DNA Kavita Sahitya: बेचैनियों से भरीं कवि मुक्ति शाहदेव की छह कविताएं

| Updated: Nov 27, 2023, 07:21 PM IST

झारखंडी कवि मुक्ति शाहदेव.

DNA Lit: मुक्ति शाहदेव की कविताओं में देशज शब्दों का सहज प्रयोग देखने को मिलता है. 'सोंटी', 'काठी चूल्हा', 'बिचला कोठरी', 'छिलका' जैसे शब्द जैसे कविता में झारखंडी परिवेश को जिंदा कर देते हैं.

डीएनए हिंदी : मुक्ति शाहदेव की कविताओं में प्रकृति किसी न किसी रूप में उपस्थित रही है. उनकी कविताओं के संग्रह 'आँगन की गौरैया' में भी यही बात दिखी है. लेकिन इसके साथ ही यह तथ्य भी गौरतलब है कि इन कविताओं में एक अजब किस्म की बेचैनी तैरती रहती है. मुक्ति चाहे प्रकृति की बात करें या समाज की, ऐसा लगता है जैसे किसी ने इन्हें जकड़ रखा है और इन जकड़नों से मुक्ति की आकांक्षा कविता में छटपटा रही है.
रांची में पली-बढ़ीं मुक्ति शाहदेव पेशे से शिक्षक हैं. साहित्यिक समारोहों में इनके मंच संचालन की तारीफ होती रही है. मुक्ति की कविताओं में देशज शब्दों का सहज प्रयोग देखने को मिलता है. 'सोंटी', 'काठी चूल्हा', 'बिचला कोठरी', 'छिलका' जैसे शब्द जैसे कविता में झारखंडी परिवेश को जिंदा कर देते हैं. आज डीएनए हिंदी के पाठकों के लिए पेश है मुक्ति शाहदेव की छह कविताएं.

1. उदास है सांझ

आ जाओ कि सांझ बहुत उदास है आज
उम्मीद की आखिरी लौ भी थरथरा रही है आज

अनजान सी धड़कन उनींदी हैं आंखें, 
बेचैन रूह संग भीगी पलकें भी हैं आज। 

बादलों से कह दो रुख कर लें मेरी गलियों का, 
तपिश है बहुत दरख्तों के साये में भी आज। 

परिंदों से कह दो बतिया लें हमसे भी दो बोल, 
गरमाहट रिश्तों की जाने कहां खो गई है आज। 

ढलने को है यूं भी अब जिंदगी की सांझ, 
कांधे पे सर रख के जी भर रो लेने दो आज। 

2. सुनो! ओ शोख हवाएं

सुनो! ओ शोख हवाएं,
ले जाओ अपने संग 
मन के कोने-कोने से
खींच कर सारी व्यथाएं।
नव सृजन की चाह नई-सी
छूट रहा है जाने क्या-क्या।
उम्मीदों की फुनगियों पर,
नव पल्लव-सा स्वप्न अकेला
और यादों का सिलसिला
तोड़ कर हर बंध,
कलकल, छलछल निर्झर
बह जाने को आतुर जैसे,
दिवा स्वप्न-सा रहा सदैव जो
सांसों संग आता-जाता 
मेरा एक संसार निराला।
रहा सदैव सपनों में मेरे
हो न सका साकार कभी वह
खो गया नित भंवर जाल में।
कह अलविदा उन सपनों को मैं
जतन कर रही जीने की
सुनो! ओ शोख हवाएं।

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3. भोर

कुहासा अभी था घना, 
चिड़िया अभी थी जगी, 
किरणों के इंतजार में, 
मुस्कुरा रही थी कलियां
और बूंदें ओस की, 
कह रही थीं विदा...विदा...विदा! 

सुबह की आपाधापी में
पोंछ कर रात के आंसू, 
झटक कर बासीपन,
भाग रहे हैं कदम
मंजिल की ओर, 
एकाकी! 

4. दूर जाकर कितनी पास लगती हो तुम 

लगता है, 
जैसे तुम देख रही हो मेरी राह,
घर की देहरी पर लगे
पत्थर वाली सीढ़ी पर बैठकर,
अब भी उसी तरह
जैसे मेरे स्कूल, कॉलेज,
ऑफिस या कहीं भी, कभी भी 
घर से बाहर जाने पर
देखा करती थी।

लगता है,
जैसे बांस वाली डलिया में,
गेंदा, तुलसी और दूब घास सजाकर
जगन्नाथ मंदिर की सीढ़ियों पर
जल्दी-जल्दी चढ़ रही हो
कि सुबह की आरती में,
समय से पहुंच सको ।

लगता है, जैसे
लालटेन की मद्धम रोशनी में
मिट्टी, गोबर लिपी,
सोंधी खुशबू वाली
बिचला कोठरी में,
इमली वाली सोंटी लेकर,
नौ और तेरह का पहाड़ा
सुनाने की जिद ठाने तुम,
अभी, यहीं मेरे पास खड़ी हो।

लगता है, जैसे
काठी चूल्हा पर,
तवा चढ़ाकर,
गोल-गोल छिलका बना रही हो,
और
तुम्हारे माथे पर सजा,
टहटह लाल सिंदूरी बिंदी भी
कितनी गोल हुआ करती थी न?
एकदम चंदा मामा जैसी 
बिंदी सजाए
तुम, 
बड़ी प्यारी मुस्कुराहट के साथ, 
अब भी मुझे देख रही हो। 

लगता है, जैसे
पलंग के नीचे से खींच लाई हो 
पान पेटी
और सरौता से सुपारी काटती,
चूना, पिपरमेंट और
जाने कितने सुगंधित मसालों से पूरित
पान का बीड़ा चुभलाते हुए,
पढ़ रही हो तुम,
गोल फ्रेम वाला चश्मा चढ़ाए,
रांची एक्सप्रेस, धर्मयुग
या शिवानी का, 
कोई अधूरा पढ़ा हुआ उपन्यास।

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5. ओ तथागत!

कितना भटके, भरमाये तुम
अनवरत कितनी प्यास, 
कितनी पीड़ा, 
कितनी बेचैनी सहे तुम...!

अनवरत कितना चले तुम 
जंगलों, पहाड़ों, बियाबानों की
खाक छानते रहे
विपरीत हवाओं से
डिगे नहीं तुम
कठिन समय से
हारे नहीं तुम
त्याग त्याग त्याग...
तप तप तप...
प्यास प्यास प्यास...
तम, घोर तम ...!

और एक दिन,
हर पराकाष्ठा को पार कर,
जीत गई जिजीविषा तुम्हारी।
गहन अंधकार को
चीर कर,
तुम ढूंढ़ लाए
बाती ज्ञान की।

ओ तथागत!
तुम्हारी यह 
परम शांति की स्मित रेख!
कह रही है यही न,
कि यह तो केवल एक मुट्ठी है।
तुम सब भी अपने हिस्से का
एक मुट्ठी सत्य ढूंढ़ लो । 

6. कर्तव्य पथ

अनंत आकाश, 
एकाकी पाखी। 
कर्तव्य पथ पर
ठिठकता मन। 
कठिन, पथरीले और
उदासी से भरे क्षण, 
हारता और जीतता मन बारहा, 
जाने कब शाम ढले। 

ढलती तो है शाम,
हर रोज। 
रात का घुप्प अंधेरा, 
कितनी रोशनी से भरा है, 
इन दिनों
कि दिखता है, 
अतीत का पन्ना-पन्ना, 
एकदम साफ-साफ! 

पढ़ा जा सकता है, 
बिना चश्मे के भी, 
एक-एक शब्द। 
खुद लिखी, खुद बुनी कहानी, 
कोई भूलता है भला?

अंतहीन क्षणों के, 
तमाम खुशगवार किस्से, 
संपूर्णता से जीए गए, 
सुखद, बेहद सुखद! 

और, 
जो रह गए जीने को शेष? 
सोचता है पाखी एकाकी, 
अनंत आकाश तले, 
जीवन की शाम, 
ढल जाएगी एक दिन, 
चल-चल,
कर्तव्य पथ पर, 
चल।

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