साल 2023 के ज्ञानपीठ पुरस्कार (Jnanpith Awards 2023) की घोषणा हो चुकी है. ज्ञानपीठ ने बताया कि 58वां यह पुरस्कार उर्दू के साहित्यकार गुलज़ार और तुलसी पीठ के संस्थापक और संस्कृत के विद्वान रामभद्राचार्य को दिया जा रहा है.
90 वर्ष के युवा गुलज़ार को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलना सुखद तो है ही और उन्हें साहित्यकार कहा जाना और ज्यादा सुखद है. लेकिन गुलज़ार को उर्दू के खांचे में फिट कर देना पुरस्कार की मजबूरी हो सकती है, उन्हें पढ़ने और सुनने वालों की यह मजबूरी नहीं कि उन्हें उर्दू का साहित्यकार कहा जाए. बता दें कि भारतीय भाषाओं को प्रोत्साहन देने के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार 1961 में शुरू हुए थे.
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फिल्मों के लिए हिंदी साहित्य में नहीं रहा सम्मानजनक रवैया
एक सच तो यह भी है कि हिंदी के किसी भी गंभीर विमर्श में मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों को कभी भी सम्मानजनक जगह नहीं मिल पाई है. इसी नाते मेरे जैसे कई लोग फिल्म के लिए गीत लिखने वाले गीतकारों और शायरों को साहित्यकार मानने से परहेज करते रहे.
शायद इसकी वजह यह रही हो कि लेखन का पेशेवर हो जाना 'साहित्य की गरिमा' पर चोट पहुंचाने जैसा लगता रहा हो. पर जब थोड़ी समझ पैदा हुई तो यह बात भी समझ आई कि लेखन का गैरपेशेवर होना साहित्य को ही नहीं, साहित्यकार को भी कमजोर बनाता है. मुद्रक-प्रकाशक-पाठक सब पेशेवर हो सकते हैं तो भला रचनाकार क्यों नहीं?
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गुलजार के लेखन की रेंज में है विविधता
बहरहाल मुद्दे पर लौटें. मेरे लिए गुलज़ार हिंदी के कवि-कथाकार-गीतकार और फिल्मकार रहे. गुलजार के लेखन की रेंज उन्हें दूसरों से अलग करती रही. गुलज़ार एक संजीदा शायह और लोकप्रिय फिल्मकार तो हैं ही, दूसरी तरफ वे मंजे हुए संवाद और पटकथा लेखक भी हैं. उनकी कविताएं - 'जानम', 'एक बूंद चांद', 'कुछ नज़्में', 'कुछ और नज़्में', 'साइलेंसेज', 'पुखराज', 'चाँद पुखराज का', 'ऑटम मून', 'त्रिवेणी', 'रात चाँद और मैं', 'रात पश्मीने की', 'यार जुलाहे' और 'पन्द्रह पाँच पचहत्तर' में संकलित हैं.
फिल्मों से इतर भी साहित्य लेखन
कहानियों/गद्य-लेखन के महत्त्वपूर्ण संग्रह हैं- 'चौरस राल', 'राबी पार', 'ड्योढ़ी और पिछले पन्ने'. फिल्मी गीतों के संग्रह 'मेरा कुछ सामान', 'छैंया-छैंया', '100 लिरिक्स' और 'मीलों से दिन में' संकलित हैं. उन्होंने बच्चों के लिए कुछ बेहद गंभीर लेखन किया है, जिसमें 'बोस्की का पंचतंत्र' भी शामिल है.
फिल्म निर्देशन की बात की जाए तो 'मेरे अपने', 'आंधी', 'मौसम', 'कोशिश', 'खुशबू', 'किनारा', 'नमकीन', 'मीरा', 'परिचय', 'अंगूर', 'लेकिन', 'लिबास', 'इजाज़त', 'माचिस' और 'हू-तू-तू' जैसी सार्थक फिल्में हैं. मिर्जा ग़ालिब पर एक प्रामाणिक टी.वी. सीरियल बनाया और दूरदर्शन के लिए गोदान पर लंबी फिल्म के अतिरिक्त प्रेमचंद की कई कहानियों पर फिल्में बनाईं. गुलज़ार के खाते में पुरस्कार और सम्मानों की एक लंबी फेहरिस्त है.
गीतों में जिंदगी के हर सुर की झलक
गीत लेखन की रेंज देखनी हो तो 'तुझसे नाराज नहीं जिंदगी' से लेकर 'बीड़ी जलइले पिया' या 'दिल तो बच्चा है जी' से 'जय हो' तक देखकर समझा जा सकता है. पेशे से चिकित्सक विनोद खेतान ने अपनी किताब 'उम्र से लंबी सड़कों पर गुलजार' में लिखा है 'हर रचनाकार ने कभी-न-कभी यह महसूस किया होगा कि रचने की प्रक्रिया में ऐसे मुक्काम आते हैं, जब रचनाकार पीछे छूट जाता है और रचना आगे निकल जाती है-वक़्त की हदों को धूमिल करती हुई-कालजयी. कुछ रचनाओं में तो ऐसा भी होता है कि तारीख के पन्नों पर लिखने वाले का नाम धुँधला पड़ जाता है और उसकी पहचान वह रचना बन जाती है. संभवतः ऐसा कविताओं में ज़्यादा संभव होता है.
मैंने गुलज़ार के लिखे गीतों में ऐसी अद्भुत रचनाओं को एक साथ रखने की कोशिश की तो दो अलग रास्ते निकल पड़े-एक रास्ते पर वे गाने थे, जो अपने खयालों में, अपनी भाव-भूमि में, अपने बिम्बों में, अपने शिल्प में और अपने प्रभाव में किसी हद में समेटे नहीं जा सके-ऐसे 'वे-हद' को कभी भी सुनें. कितनी बार भी सुनें, हर बार हम चकित होते हैं। और दूसरे रास्ते पर वे गाने सुनाई पड़े- जो अद्भुत तो हैं ही- जिनकी लोकप्रियता ने उम्र, पीढ़ी और बौद्धिकता के भेद को मिटा सबको झूमने पर मजबूर किया। फिर बरबस पूरी दुनिया कोरस में कह उठी-जय हो.'
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