Book Review: कविता संग्रह 'सूरज का आठवाँ घोड़ा' में हैं मानवीय सरोकारों से गुथीं कविताएं
निवास चंद्र ठाकुर की कविताओं का संग्रह 'सूरज का आठवाँ घोड़ा'.
Hindi Literature: कश्मकश वाली पीढ़ी के रचनाकार हैं डॉ. निवास चंद्र ठाकुर. इनकी कविताओं में आजादी के बाद हुए मोहभंग की पीड़ा दिखती है. नैतिक मूल्यों के जतन की कोशिश दिखती है. परंपरा और आधुनिकता के बीच संघर्ष दिखता है. तार्किक सवाल दिखते हैं और आदर्शवादी सुझाव भी.
डीएनए हिंदी : देश की आजादी के बाद 70 के दशक की युवा पीढ़ी मोहभंग की पीड़ा से गुजर रही थी. नए भारत के जो सपने उन्होंने देखे थे, देश की आजादी के बाद वे बिखरते दिख रहे थे. यही वजह है कि उस दौर की रचनाओं में हताशा, निराशा और क्षोभ के तीखे स्वर देखने को मिलते हैं. उस वक्त के कई युवा ऐसे भी रहे थे, जिनके पास लिखने का कौशल तो था मगर उन्होंने लिखने से चुप्पी साध ली थी. चुप्पी भी एक तरह का विरोध ही होती है. वे बस अपनी पीड़ा और चुप्पी के साथ रोजी-रोजगार में जुते रहे. उन्होंने उदारीकरण का दौर भी देखा, उससे पैदा हुई उपभोक्तावादी संस्कृति भी देखी. नई सदी में प्रवेश के साथ उन्होंने नैतिक मूल्यों का ह्रास भी देखा.
तो जब वह पीढ़ी रोजी-रोजगार से मुक्त हुई, तब उसके सामने बदली हुई पूरी दुनिया थी. इस दुनिया में तत्काल सब कुछ हासिल कर लेने की हड़बड़ी दिखी. इस 'पा लेने' की कोशिश में 'किसी भी हद से गुजरने' का दुस्साहस था. 70 के दशक में युवा रहा शख्स इस बदले माहौल में खुद को मिसफिट पाता है. उसकी निगाह में नैतिकता के मूल्य बचे रहे हैं और अब की पीढ़ी में इस नैतिकता के खिलाफ विद्रोह दिखता है. तो इस मिसफिट हुई पीढ़ी के सामने अपने वक्त के सपने जगते हैं और अब की पीढ़ी में हुए नैतिक मूल्यों का ह्रास दिखता है. इसी कश्मकश वाली पीढ़ी के रचनाकार हैं डॉ. निवास चंद्र ठाकुर. इनकी कविताओं में दोनों दौर से मोहभंग की पीड़ा दिखती है. निवास जी के कविता संग्रह 'सूरज का आठवाँ घोड़ा' में उनकी कुल 37 कविताएं हैं. यह संग्रह इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड से प्रकाशित हुआ है.
कविताओं में व्यंग्यात्मक टोन
निवास चंद्र ठाकुर की कविताओं में आशावाद खूब मुखर है. संग्रह की कई कविताओं की भाषा व्यंग्यात्मक है. कुछ कविताएं विमर्श भी पैदा करती हैं. इन कविताओं से गुजरते हुए कई बार विषय और उसकी भाषा आपको छायावादी युग की याद दिलाएंगी, लेकिन कविता के अंत तक आते-आते आप बिल्कुल आज के माहौल को महसूसेंगे. इनकी भाषा में 70 के दशक की अभिशप्त पीढ़ी या भूखी पीढ़ी वाला क्षोभ नहीं दिखेगा, लेकिन आपको उसमें व्यंग्यात्मक टोन जरूर सुनाई देगा. 'सूरज का आठवाँ घोड़ा' संग्रह में 'अरे वो आ रहा सच - भाग-भाग बच-बच', '' जैसी कविताओं में यह टोन बहुत खुलकर सामने आया है.
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संग्रह की पहली कविता
संग्रह की पहली कविता 'हाँ कोयल' में कोयल के भीगे नयनों की चर्चा है, साथ ही उसे यह भरोसा दिलाने की कोशिश भी है कि तमाम विपरीत परिस्थितियां गुजर जाएंगी और उसके बाद खुशियों भरे दिन लौटेंगे. और तब तुम्हें फिर से गाना है. जाहिर है कोयल की सुरीली बोली यहां आत्मिक सुख, संतोष और खुशी का प्रतीक बनी है. कविता का टोन आपको बीते दिनों का लग सकता है, लेकिन अब के दौर में जिस आशावाद की निहायत जरूरत है, वह स्वर आपको प्रभावित करेगा.
संतोषं परमं सुखम्
इस संग्रह की दूसरी कविता में निवास जी ने सूरज, चांद, सागर, पर्वत यानी पूरी प्रकृति का उदाहरण देते हुए यह समझाने की कोशिश की है कि सारी मुरादें पूरी नहीं हो सकतीं. जीवन में बहुत कुछ आधा-अधूरा रह जाता है. इस अधूरेपन के साथ खुश होकर जीना जिंदगी की बड़ी कला है. कविता के अंतिम अनुच्छेद में निवास जी लिखते हैं -
सच है यही
जो अरमान पूरे हो जाएँ
बस वे ही अपने हैं।
अधूरे रह गए अरमान
सुहाने सपने हैं।
फिर भी
कभी-कभी यूँ ही बड़े सपनों के संग
हवाओं में उड़ चलने का आनंद
इन्द्रधनुषी होता है।
नैतिक मूल्यों के ह्रास पर चिंता
इस संग्रह की कई कविताएं नैतिक मूल्यों पर चिंता जतलाती हैं. झूठ, दलाली, लफ्फाजी और नकली चरित्र को खारिज कर देने वाली बिल्कुल साफ दृष्टि के साथ कवि अपनी बात रखता है. अपनी कविताओं के जरिए कवि इस समाज को अपने चंचल मन को थीर करने का सुझाव देता है. वह बताता है कि सफलता के लिए किसी दूसरे का मुंह जोहने की जरूरत नहीं, बल्कि दृढ़ प्रतिज्ञ हो अपना रास्ता खुद बनाने की जरूरत है. अब के दौर में अपना 'गॉडफादर' तलाश रहे लोगों के लिए कवि का संदेश है -
अपनी दिशा तय कर अपनी पाल मोड़
किसी दूसरे के बेड़े की आस छोड़।
अपने ही हाथों से अपनी पतवाल चला
ओ मेरे मन बढ़ता जा, बढ़ता जा।
कठघरे में परंपराएं
निवास जी की कविताओं का एक स्वर परंपरा और आधुनिकता के संघर्ष से भी जुड़ता है. कविता 'लक्ष्मण-रेखा' में यह स्वर साफ सुनाई देता है. इस कविता का मूल स्वर स्त्री का हिमायती है. इस कविता में वह लिखते हैं -
... कितना बड़ा वहम है न यह
'कोई भी पुरुष खींच सकता है
किसी भी नारी के लिए कोई लक्ष्मण रेखा!'
सीता की ओर से वह लक्ष्मण रेखा तोड़े जाने की वजह लिखते हैं -
... उसके तोड़े जाने के मेरे भी थे कारण
ये थे - मेरी करुण, निर्णय लेने की
मेरी अपनी स्वतंत्रता और मेरा 'मैं'
सौ कपटी मेरे साथ कपट रता
परंतु, एक भी भूखा अगर लौट जाता
मेरी कुटिया से, यह नहीं था मुझे स्वीकार
सौ दोषी बच जाए, पर किसी निर्दोष को
मृत्यु तंड न मिल जाय, यही तो है न्याय...
अपनी इस कविता में निवास चंद्र ठाकुर बताते हैं कि स्त्री अबला नहीं है, उसकी आजादी अपनी है, उसके सपने अपने हैं और वह हर हाल में अपने फैसले ले सकने में सक्षम है.
विचारों का विचलन
इस संग्रह की कविता 'सुन रहे हो देवदत्त' में विचारों का विचलन दिखता है. हिंदी के लब्धप्रतिष्ठ कवि सुदामा पांडेय 'धूमिल' की आलोचना ऐसे ही विचलन के लिए होती है जहां उन्होंने लिखा था 'सबको मादा पाया है'. निवास चंद्र ठाकुर की इस कविता में देवदत्त और गौतम के उस प्रसंग की चर्चा है जहां देवदत्त के तीर का निशाना बना था उड़ता हुआ हंस. इस हंस की जान बचाई थी गौतम ने. लेकिन हंस पर अधिकार किसका हो - इस बात को लेकर देवदत्त और गौतम में ठन गई थी. फिर देवदत्त ने न्याय पाने की गुहार लगाई थी. निवास जी ने इस कविता में देवदत्त के कृत को 'आदर्श अन्याय' बताया है. इस कविता में वे कई जगह देवदत्त के पक्ष में खड़े दिखते हैं. अगर उनका यह खड़ा होना व्यंग्य में है तो कहना होगा कि वह उभर नहीं पाया है. वे लिखते हैं -
... एक बात पूछनी है तुमसे, बताओगे?
तुम क्यों चल पड़े थे सिद्धार्थ के संग,
किसी न्यायाधीश से करवाने को न्याय?
तेरे पास तो अस्त्र था, शस्त्र था,
तेरा प्रतिवादी निरीह था,निरस्त्र था।
तुम तक्षण ही चला सकते थे तीर,
बेध सकते थे, सिद्धार्थ के शरीर!
पर तुझे क्या हो गया था देवदत्त!
न्याय के लिए तुम भी हुए अधीर!
माना कि हंस बींधना अन्याय था,
परअन्याय के बाद ताकतवर का ,
न्याय चाहना, और बड़ा न्याय था।
आज अगर होता ऐसा विवाद,
तुरंत चल जाते तरकश से वाण,
और वहीं, ऑन द स्पोट,
चले जाते सिद्धार्थ के प्राण।
करुणा की चिरंतन धारा,
वहीं रह जाती अवरुद्ध,
तब कोई सिद्धार्थ कभी,
कहां से बन पाता बुद्ध!
आज तो सबल, वहीं का वहीं,
मनचाहा न्याय कर देता है,
बड़े आराम से निकल जाता है,
निर्बल जिंदा रहा, तो कोर्ट जाता है।
पहले लाल कपड़े में, फिर कम्प्यूटर में
कैद, हमारी आज की न्याय व्यवस्था में,
पीढ़ियाँ मर खप जाती हैं, और न्याय तो
अपने जीते जी, नहीं ही पाती हैं।
यहां आज न तो आदर्श अन्याय है,
और न ही कहीं है आदर्श न्याय।
इसीलिए देवदत्त, तुम्हें बुला रहा हूं।
सुन रहे हो देवदत्त! तुम यहां आओ,
अन्याय का ही सलीका हमें सिखाओ।...
अपराध है, तभी न्याय का महत्त्व है - यह बात सही होते हुए भी न्याय का महत्त्व बनाए रखने के लिए हम अपराध के होने की कामना नहीं कर सकते. किसी भी हाल में अन्याय का महिमामंडन नहीं किया जा सकता. इस अर्थ में यह कविता इस संग्रह की सबसे कमजोर कविता लगती है.
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मानवीय स्वर की कविताएं
संग्रह में 'मैं अहिल्या आज पूछ रही हूँ', 'लोक देव : महादेव' कविताएं अहिल्या और शिव का तार्किक पक्ष रखती हैं. ऐसे मानवीय स्वर 'यह क्या हो गया हूँ', 'सूरज का आठवाँ घोड़ा', 'नया युग : नए मम्मी-पापा' और 'परिंदे का जोड़ा' जैसी कविताओं में देखे जा सकते हैं. इस संग्रह में 'एक ही देह' शीर्षक कविता मानवीय ऊष्मा से भरी हुई कविता है. इस कविता में एलजीबीटीक्यू समाज की बेचैनी, उनकी तकलीफ, उनके प्रेम को बिल्कुल मानवीय नजरिए से देखा गया है. मुख्यधारा वाले समाज में उनकी उपेक्षा के खिलाफ बहुत ही सौम्य तरीके से निवास चंद्र ठाकुर ने अपनी बात रखी है और उन्हें लगता है कि इस समाज को मुख्यधारा में पूरा सम्मान दिए जाने की जरूरत है.
संग्रह की सबसे मजबूत कविता
'फंस गया कबीर' इस संग्रह की सबसे मजबूत कविता लगती है. शीर्षक में कबीर का फंसना जरूर दिख रहा, पर पूरी कविता में मोह में फंसे लोग दिखते हैं, अज्ञान के जंगल में भटकते लोग दिखते हैं. लोक से पैदा हुआ कवि अब लोक में ही खारिज किया जा रहा. पर इन सबसे बेखबर कबीर अपनी मस्त चाल में चले जा रहे हैं. कबीर के दोहों का इस्तेमाल करते हुए निवास चंद्र ठाकुर ने इस कविता में इस बदले हुए समाज की समझ को बड़ी सहजता से सामने रख दिया है.
इस कविता की एक बड़ी खूबी इसकी दृश्यात्मकता है. इसे पढ़ते हुए आपके जेहन में नाटक की तरह दृश्य बनते जाते हैं. आप भी पढ़ें -
उस दिन भूला-भटका
सैकड़ों साल बाद, न जानें
कहाँ से चला आया कबीर!
नहीं पता था, बदल गया है युग
बदल गई है युग की तासीर
बेमतलब फंस गया
शरम से धंस गया।
बेफिक्री से जा रहा था
इकतारे पर गा रहा था
दिखी मस्जिद, हुई थी शाम
मस्जिद को ही बना लिया
रात भर के लिए मुकाम।
लोग जुटे, हुई दुवा-सलाम
बहुत खातिरदारी, बहुत सम्मान
मोहतरम! देख रहा हूं इकतारे
कुछ गाओ, कुछ हमें भी सुनाओ
कबीर तो ठहरे कबीर!
खुद सुनाने को थे अधीर
लगे सुनाने
अपने युग के गाने-
"कांकर पाथर जोरिके, मस्जिद लई बनाय
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय
सुनाई थी इतनी-सी चौपाई
कि बूढ़े कबीर की शामत आई
"मारो स्सा... को-
निकालो इकतारे वाले को
यह कहीं से नहीं फकीर है
यह काफ़िर है, बे पीर है।"
बचाने के लिए, जैसे-तैसे,
एक-दो लोग आ गए आगे,
कबीर जान बचाकर भागे-
फिर, उलाहने देने लगे तुलसी दास जी को-
आप तो मेरे बहुत बाद आए थे, कैसे बोले थे-
"मांग के खैइबो, मसीद में सोइबो"
बेमतलब फंस गया
शरम से धंस गया!
फिर खुद से कहा- 'अपनी राह तू चले कबीरा'
चल दिए मस्त पैदल पाँव,
दूसरे गाँव।
दूसरे गाँव में फैल गई थी बात
मस्जिद में रात वाली वारदात।
एक महात्मा की, रात, मस्जिद में
हुई है बहुत ही कुटाई, पता नहीं
जिंदा भी हैं, कि वहीं सद्गति पाई!
पर तभी उसी गाँव की ओर से
भटकते अटकते आते दिखा कबीर।
कबीर मस्ती में आ रहा था,
इकतारे पर गा रहा था-
"सुखिया सब संसार, खाबै अरु सोबै
दुखिया दास कबीर, जागै, अरु रोबै।"
-धन्य प्रभो! स्वागत! प्रणाम प्रणाम
अहो भाग्य हमारे! आप जैसे संत पधारे!
आज की शाम, हमारे गाम
मंदिर में हो आपका विश्राम!
फकीर को रुकने से काम
मंदिर को ही बना लिया
आज की रात का मुकाम।
भक्त जन आए, शीश नवाए।
धन्य भाग हमारे, आप यहां पधारे!
प्रभु देख रहा हूं इकतारे, इसे उठाइए
हमें कुछ सुनाइए, कृपा बरसाइए!
कबीर तो ठहरे कबीर!
खुद सुनाने को थे अधीर!
लगे सुनाने, अपने युग के गाने-
"पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़
ताते ये चक्की भली, जो पीस खाय संसार।"
उठ गया बबाल, बहुत बड़ा सवाल, इस्सा...
ठुल्ला है, पोंगा पंडित भी नहीं, कठमुल्ला है।
घुट गई चौपाई, कबीर की फिर से शामत आई
गहरे भाव से जागा, जान छुड़ा कर भागा-
"हिंदू की दया, मेहर तुरकन की, दोनों घर से भागी"
अब आगे क्या करे कबीर -
"साधो देखो जग बौराना, सांची कही तो मारन धावे,
झूठे जग पतियाना..., आतम खबर न जाना।"
उसे खुद पता नहीं है
सोया है कि जाग रहा है।
बेमतलब फंस गया, शरम से धंस गया।
पता नहीं कौन सी सदी है
साधो, किस्मत में क्या बदी है!
पर कबीर तो थे कबीर, कैसे मानते हार
फिर हो गये चलने को तैयार।
नहीं मानी हार, पहुंच गए बाजार...
"कबिरा खड़ा बजार में, लिए लुकाठी हाथ,
जो घर जारे अपनों, चले हमारे साथ।"
बहुत सारे लफुए दौड़े आए...
बाबाजी, बहुत अच्छा गाना है
खर्चा-बर्चा करिए, इशारे भर करिए
किसका घर जलाना है??!!
कबीर फिर फंस गए, शरम से धंस गए।
अरे साधो! दूसरे का नहीं
अपने भीतर के कबाड़ जलाओ
ताना भरनी पर कातो सूत, फिर
चादर बीनो और मेरे साथ आओ।
लफंगे हक्के-बक्के रह गए!!
बहुत रिसिआए, खिसियाए,
भागता है कि हाथ दिखाऊँ?
यहां से सीधे ऊपर पहुंचाऊँ?
चहक उठे कबीर, छलक उठीं आंखें
"हां साधो आओ!
युग युग से भटक रहा हूं, मुक्ति दिलाओ!
मैं भी तो यही चाहूं, पर क्या कहूं!
पता नहीं दिशाओं से गूंज उठी आती है
"हम न मरैं मरिहै संसारा,
हमकूँ मिल्या जिलावनहारा।"
यहां की जो माटी है न, अजब इसका राज है
हर बार बीज छुपा लेती है, कबीर उगा लेती है!
लेकिन नहीं, इस बार मैं मरूँगा-
'अब ना बसूँ इहीं गाँव गुसाईं'।।
हां एक बात!
तुम सब मेरे बाद आपस में न लड़ो,
इसलिए अपने सामान अलग-अलग छांटूंगा,
अपने जीते जी इन्हें, तुम सबके बीच बांटूंगा।
किसी को ताना, किसी को भरनी
किसी को टेकुआ, किसी को कटरनी
सगुण को साज, निर्गुण को राज़ दूँगा।
और शेष को
इकतारे की आवाज़ दूँगा।
'बीजक' को तिजोरी में रख दूँगा
अगर प्रलय आए,तो तुम्हें बचाए।
मैंने जो बीने हैं अनंत धागे
लेने के लिए बढ़ो, थोड़ा आगे।
अगर कभी ऐसा भी दिन आए
लाज ढकने के लिए पास में
फटी चादर भी नहीं रह जाए
फिर मिलकर, एक एक धागा
चुन लेना, नई चादर बुन लेना।
जैसे ही इकतारे पर प्रेम धुन
लगाओगे,
फिर से अनंत निधियाँ पाओगे।
सब चकरा रहा था, कुछ भी
समझ में नहीं आ रहा था...!
जिज्ञासा घटने लगी, भीड़ छंटने लगी।
चलो! इसके पास कुछ नहीं धरा है...,
इस्साला... सिरफिरा है।
उधर कबीर इकतारे बजा रहा था
कोई निर्गुण-सा गा रहा था...,
तुम सब अनगिन देह, एक तुम्हारा गेह!
जगत जब आनंद को तरसेगा, तब यहाँ,
आनंद घन बरसेगा!
तुम्हीं आत्मा, तुम ही होना परमात्मा!
तुम ही पंडित, फकीर, तुम ही पीर!
सब एकाकार, एक दूसरे की तकदीर!
लोग अवाक थे! त्रस्त थे,
कबीर गा रहे थे, मस्त थे।
कबीर अभी भी इकतारे पर कुछ गा रहा है!
अभी शब्द बो रहा है, समझ नहीं आ रहा है।
इन्हीं शब्दों से अर्थ के अंकुर आएंगे!
अगर कभी आकाश से अंगारे बरसे,
तो छतनार वृक्ष बन, ये हमें बचाएंगे।
अभी कबीर इकतारे बजा रहा है...
उस पर कोई आशा भरी धुन गा रहा है
पूरब में अब उषा की लालिमा ,
छिटक रही है
वह सूरज की ओर जा रहा है!!!!!
कुल मिलाकर यह संग्रह पठनीय है. सौम्य और मृदुल स्वर में विरोध भी है, व्यंग्य भी और मानवता को बचाने की बेचैनी भी.
कविता संग्रह : सूरज का आठवाँ घोड़ा
कवि : डॉ. निवास चंद्र ठाकुर
प्रकाशक : इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड
कीमत : 275 रुपए
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