रूसी साहित्यकार लियो टॉल्स्टॉय की पहचान दार्शनिक के रूप में भी रही. कहते हैं कि 1851 में जुए के कारण टॉल्स्टॉय कर्ज से घिर गए थे. तब वह अपने भाई के साथ सेना में शामिल होने के लिए चले गए. 1853 से 1856 तक क्रीमिया युद्ध के दौरान वे तोपखाना अधिकारी रहे और अपनी बहादुरी के लिए सराहे गए. उन्हें लेफ्टिनेंट के रूप में पदोन्नत भी किया गया, लेकिन टॉल्स्टॉय को यह माहौल रास नहीं आया और उन्होंने नौकरी छोड़ दी.
1857 में टॉल्स्टॉय पेरिस में थे जब उन्होंने सार्वजनिक फांसी देखी. इसका असर उनके मन-मस्तिष्क पर बुरी तरह हुआ. उनमें सरकार के प्रति गहरी घृणा और अविश्वास पैदा हो गया. उनका मानना था कि अच्छी सरकार जैसी कोई चीज नहीं होती, यह केवल नागरिकों का शोषण और भ्रष्ट करने का एक तंत्र है और वह अहिंसा के मुखर समर्थक बन गए. इस बाबत उन्होंने अहिंसा के व्यावहारिक और सैद्धांतिक प्रयोगों के बारे में महात्मा गांधी से पत्र-व्यवहार भी किया था.
'वॉर एंड पीस' और 'अन्ना कैरेनिना'
साहित्यिक लेखन की बात करें तो टॉल्स्टॉय की 'वॉर एंड पीस (हिंदी में अनूदित 'युद्ध और शांति') 1869)' और 'अन्ना कैरेनिना (1877)' खूब चर्चित रहे हैं. कहते हैं कि 'वॉर एंड पीस' उपन्यास टॉल्स्टॉय ने विक्टर ह्यूगो के 'लेस मिजरेबल्स' पढ़ने के तुरंत बाद लिखा था. इसलिए उनका उपन्यास 'वॉर एंड पीस' ह्यूगो से काफी प्रभावित दिखता है. बहरहाल आज आपके लिए DNA Lit में लियो टॉल्स्टॉय की 4 लघुकहानियां लेकर आए हैं. जिनमें आपको टॉल्स्टॉय का विट साफ-साफ दिखेगा.
अंधे की लालटेन (लघुकथा)
अंधेरी रात में एक अंधा सड़क पर जा रहा था. उसके हाथ में एक लालटेन थी और सिर पर एक मिट्टी का घड़ा. किसी रास्ता चलने वाले ने उससे पूछा, ‘अरे मूर्ख, तेरे लिए क्या दिन और क्या रात. दोनों एक से हैं. फिर, यह लालटेन तुझे किसलिए चाहिए?’
अंधे ने उसे उत्तर दिया, ‘यह लालटेन मेरे लिए नहीं, तेरे लिए जरूरी है कि रात के अंधेरे में मुझसे टकरा कर कहीं तू मेरा मिट्टी का यह घड़ा न गिरा दे.’
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बोझ (लघुकथा)
कुछ फौजियों ने दुश्मन के इलाके पर हमला किया तो एक किसान भागा हुआ खेत में अपने घोड़े के पास गया और उसे पकड़ने की कोशिश करने लगा, पर घोड़ा था कि उसके काबू में ही नहीं आ रहा था.
किसान ने उससे कहा, ‘मूर्ख कहीं के, अगर तुम मेरे हाथ न आए तो दुश्मन के हाथ पड़ जाओगे.’
‘दुश्मन मेरा क्या करेगा?’ घोड़ा बोला.
‘वह तुम पर बोझ लादेगा और क्या करेगा.’
‘तो क्या मैं तुम्हारा बोझ नहीं उठाता?’ घोड़े ने कहा, ‘मुझे क्या फर्क पड़ता है कि मैं किसका बोझ उठाता हूं.’
(इन दोनों लघुकथाओं के अनुवादक हैं सुकेश साहनी)
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