Book Review: 'कर्बला दर कर्बला' को पढ़कर सामने आता है सच और संवेदना का गहरा रिश्ता

डीएनए हिंदी वेब डेस्क | Updated:Feb 23, 2022, 03:58 PM IST

karbala dar karbala

गौरीनाथ का लिखा 'कर्बला दर कर्बला' उपन्यास ना सिर्फ भागलपुर जैसे एक शहर को समझने में मदद करता है, बल्कि कई गहरी संवेदनाओं को भी जाहिर करता है.

- डॉ. रुचि श्री

'कर्बला दर कर्बला' हाल में प्रकाशित गौरीनाथ की यह किताब हिंदी उपन्यास विधा में एक नए प्रयोग के तौर पर देखी जा सकती है. यह किताब जितनी एक हिन्दू लड़के और मुसलमान लड़की के बीच दोस्ती से प्रेम तक की कहानी है उतनी ही एक दशक (1980 से 1989 तक) में भागलपुर शहर के बदलते साम्प्रदायिक संबंधों की पड़ताल. शहर के मोहल्लों के नामों के हवाले से इनके ऐतिहासिक सन्दर्भ से  लेकर अल्पसंख्यकों में बढ़ती असुरक्षा की भावना का जिक्र बखूबी किया गया है. भागलपुर बिहार का एक जिला है जो सिल्क सिटी के नाम से विश्व में मशहूर है.दो अन्य दुखद बातें भी इस शहर के नाम पर याद की जाती हैं – 1980 का अंखफोड़वा कांड और 1989 में हुए साम्प्रदायिक दंगे. यह शहर अमूमन लंबे समय से समन्वयवादी संस्कृति का प्रतीक रहा है और हिन्दू और मुसलमान के अलावा बड़ी संख्या में सिक्ख तथा जैन समुदाय के लोग यहां के निवासी हैं. मेरे लिए इस किताब को पढ़ना शहर को परत दर परत जानने और समझने जैसा था.

मुझे इस शहर में आए महज दो साल हुए हैं और मैंने इसके कई मोहल्लों का बस नाम भर सुना है, ऐसे में इन नामों के इतिहास, भूगोल और संस्कृति की बारीकियां सोच को विस्तार देने में मददगार लगीं. विश्वविद्यालय में पढ़ रहे मध्यमवर्गीय छात्रों की महत्वाकांक्षाओं से लेकर भाषा/धर्म/संस्कृति/ राजनीति जैसे मुद्दों से कहानी में एक लय और गति है.उर्दू शब्दों के अधिकाधिक प्रयोग से इसने धीरे-धीरे ख़त्म हो रही गंगा-जमुनी तहजीब को याद दिलाने का काम किया है. 

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यह उपन्यास शोध पर आधारित होने के कारण पढ़ते हुए कई बार एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ की तरह जान पड़ता है. उस समय के अख़बारों तथा अन्य रिपोर्टों से तथ्यों को एकत्रित कर उन्हें कहानी में मानीखेज ढंग से पिरोया गया है.लेखक ने बखूबी सिल्क जगत के व्यापार में हैंडलूम से पावरलूम के बदलाव से लेकर धागों की तस्करी की पेचीदगियां जैसी सामाजिक और राजनीतिक बदलावों के संबंधों का जायजा लिया है. हालांकि, कई पृष्ठों पर अनेक लम्बी विश्लेष्णात्मक टिप्पणी कुछ पाठकों को अरुचिकर भी लग सकती हैं.शायद इतने तथ्यात्मक विस्तार से बचने की सम्भावना थी और शहर का इतिहास अलग से एक किताब के तौर पर भी लिखा जा सकता था. यहां यह कहना जरूरी जान पड़ता है कि मेरा मूल विषय राजनीति शास्त्र होने की वजह से यह भी संभव है कि यह मेरी साहित्यिक समझ की सीमितता हो.

जिस विश्वविद्यालय का इस किताब में जिक्र है, उसी में प्राध्यापक होने के नाते और करीब तीस से चालीस साल पहले घटित हुई घटनाओं की कल्पना कभी सहज तो कभी असहज करती रही. यहां आने के शुरुआती दिनों में विश्वविद्यालय परिसर में एकदंगा नियंत्रण वाहन को देखकर कौतूहलवश इसके बारे में जानने की इच्छा हुआ करती थी. इस वाहन के औचित्य का पता इस किताब को पढ़ते हुए अधिक स्पष्ट हुआ. 

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उपन्यास और पत्रकारिता का मिला जुला स्वरूप किताब को रुचिकर बनाता है. लेखक गौरीनाथ इसे लिखने के लिए बेशक बधाई के पात्र हैं. पूरी किताब को पढ़ते हुए कई बार उनका कहानी के घटनाक्रम  में इर्द-गिर्द मौजूद होने का भान होता है.साथ ही वह अपने पाठकों को अपने परिवेश को बारीकी से देखने, समझने और महसूस करने के लिए आमंत्रित भी करते हैं. संवेदनात्मक तरीके से लिखी गयी यह किताब जेएनयू में प्रवेशकी मुश्किलों से लेकर वहां के माहौल और वैचारिक संघर्षों का भी पाठक से एक परिचय कराती है. साथ ही पारिवारिक द्वंद्व, माता-पिता की अपने बच्चों के प्रति अपेक्षाओं और समाज के प्रति उनके उत्तरदायित्व जैसे विषयों को भी छुआ गया है. 

(डॉ. रुचि श्री तिलका माझी भागलपुर विश्वविद्यालय (बिहार) के स्नातकोत्तर राजनीति विज्ञान विभाग में सहायक प्राध्यापिका हैं.)

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