World day of social justice: ये हैं वो हाशिए के हस्ताक्षर, जिन्होंने बदली हजारों बच्चों की जिंदगी
Nikita and Kajal
दुनिया भर में 20 फरवरी को विश्व सामाजिक न्याय दिवस के रूप में मनाया जाता है. इसकी शुरुआत 2009 में हुई थी.
पंकज चौधरी
डीएनए हिंदी: सामाजिक न्याय का दायरा बहुत बड़ा है. इसके दायरे में बच्चे भी आते हैं. उनके बचपन और अधिकारों की रक्षा कर सामाजिक न्याय के सपने को पूरा किया जा सकता है. बच्चे भविष्य हैं इसलिए उन पर ध्यान देना पहले जरूरी है. यहां हाशिए के उन बच्चों की चर्चा की जा रही है, जो बाल श्रम, बाल विवाह के खिलाफ काम करते हुए शिक्षा की रोशनी को लगातार उन तक फैलाने में जुटे हुए हैं, जिन तक चाहे-अनचाहे हम नहीं पहुंच पाते. ये बच्चे सभी बच्चों के लिए न्याय (जस्टिस फॉर एवरी चाइल्ड) को मुमकिन कर रहे हैं.
स्कूल में अंग्रेजी और संस्कृत शिक्षकों के खाली पदों को भरवाया निकिता ने
निकिता की पारिवारिक पृष्ठभूमि को देखते हुए किसी को भी यह आश्चर्य लग सकता है कि वह जो चाहती है उसे कैसे कर लेती है? राजस्थान के अलवर जिले के एक छोटे से गांव गढ़ी की रहने वाली 16 वर्षीय निकिता के माता-पिता दोनों दिहाड़ी मजदूर हैं. लेकिन उसने अपनी पढ़ाई के लिए ऐसी जिद ठानी कि उसके माता-पिता को उसके आगे झुकना पड़ा और उसे पढ़ाई के खर्चे देने के लिए मजबूर होना पड़ा.
निकिता बाल पंचायत का चुनाव लड़ती है और भारी मतों से जीत दर्ज कर अपने बाल मित्र ग्राम (बीएमजी) का बाल सरपंच बनती है. बीएमजी ऐसे गांवों को कहते हैं जहां एक भी बाल मजदूर नहीं होता है और सभी बच्चे स्कूल जाते हैं. बाल सरपंच बनकर निकिता यह सुनिश्चित करती है कि उसके स्कूल में सभी बच्चों के लिए स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल हो. मिड डे मील में किसी भी तरह का भेदभाव नहीं हो. खेल का मैदान सुसज्जित हो. निकिता को जब पता चलता है कि उसके स्कूल में पिछले 10 वर्षों से संस्कृत और अंग्रेजी शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हुई है, तो उसने ग्राम पंचायत और शिक्षा विभाग के सहयोग से अपने विधायक को कई पत्र लिख डाले. शिक्षक नियुक्ति के सवाल पर निकिता का सत्याग्रह तब तक जारी रहता है जब तक कि उसके स्कूल में संस्कृत और अंग्रेजी शिक्षकों को बहाल नहीं कर दिया जाता. निकिता पढ़ाने-लिखाने के कार्य से प्रेरित और प्रभावित है और वह शिक्षक बनना चाहती है. उसकी इच्छा है कि सभी बच्चों को शिक्षा मिले. शिक्षा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से उसे नार्वे के दूतावास में वहां के प्रधानमंत्री से भी मिलने में कोई संकोच नहीं हुआ. निकिता का मानना है कि उससे बड़ा कोई नहीं है और उससे छोटा भी कोई नहीं है.
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काजल कुमारी ने अपना बाल विवाह रुकवाया और 20 बाल मजदूरों को स्कूल भेजा
काजल के खानदान में सात पीढ़ियों से कोई साक्षर नहीं था. परिवार के सभी सदस्य, माता-पिता, भाई-बहन और खुद काजल दो जून की रोटी के लिए कोडरमा के अभ्रक खदानों में अभ्रक चुनने का काम करती थी. वह स्कूल तो जरूर जाती थी लेकिन कभी-कभार. इन विपरीत हालात में भी उसने वह कर दिखाया जो अभाव में जीने वाले साधनहीन लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बन सकता है. वह अपने गांव की पहली ऐसी लड़की बनी जिसने बारहवीं पास की. वह भी अव्वल नंबरों से. उसने बड़ी बहादुरी से अपना बाल विवाह भी रुकवाया.
काजल जब 12 साल की हुई, तब वह कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रन्स फाउंडेशन (केएससीएफ) के सम्पर्क में आई और उसके कार्यों से प्रभावित होकर बाल पंचायत का चुनाव लड़ी. वह उप मुखिया एवं बाल पंचायत की एक बार मुखिया बनी. उसने कार्यकर्ताओं के सहयोग से अभ्रक खदानों से 20 बाल श्रमिकों को मुक्त करवाकर उनका स्कूलों में दाखिला करवाया. दस साल पहले उसके गांव में कोई भी लड़की स्कूल नहीं जाती थी. लेकिन अब हरेक बच्चा स्कूल में है. वहां अब ना तो कोई बाल श्रमिक है और ना ही बाल विवाह का कोई मामला दर्ज होता है. अब जब स्कूल खुल चुके हैं, तो उससे पहले लॉकडाउन के दौरान काजल 25 छात्रों के समूह को ऑनलाइन शिक्षा दे रही थी.
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बाल श्रम और बाल विवाह के खिलाफ लोगों को जागरूक करने में अग्रणी है हलीमा परवीन
हलीमा उस तेजस्वी लड़की का नाम है जिसने असुरक्षा और गरीबी के माहौल में 76 प्रतिशत अंकों के साथ 10वीं की परीक्षा पास की है. उससे जब पूछा गया कि कैसे उसने इतने शानदार अंक पाए, तो उसका जवाब था कि किसी भी चीज की कमी के अहसास को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया. हमेशा लक्ष्य पर अपना ध्यान केंद्रित रखा.
कोडरमा जिले के देबुआडीह गांव की रहने वाली हलीमा को अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए अभ्रक खदानों में अभ्रक चुनने पड़े. वह बाल पंचायत की सक्रिय सदस्य है. वह अपने गांव और समुदाय में शिक्षा एवं स्वच्छता के महत्व के प्रति लोगों में बड़ी तेजी से जागरुकता फैला रही है. ग्रामीणों के साथ नियमित रूप से घर-घर जाकर उनसे बातचीत करके उनके बच्चों को स्कूल भेजना उसकी दिनचर्या का हिस्सा बन चुका है. उल्लेखनीय है कि हलीमा कई बच्चों का स्कूलों में दाखिला सुनिश्चित करवा चुकी है. वह जब बाल श्रम और बाल विवाह के खिलाफ लोगों को जागरूक कर रही होती है, तो उसे ग्रामीणों के विरोध का भी सामना करना पड़ता है. कई बार तो उस पर हमले हुए हैं. लेकिन वह हार नहीं मानती और कहती है कि बड़े उद्देश्य की पूर्ति के लिए यदि थोड़ी हानि भी होती है तो उस हानि को सहने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए. हलीमा की अपने समुदाय में धीरे-धीरे धाक जमने लगी है. लोग उसे तवज्जो देने लगे हैं. वह अपने समुदाय की एक प्रभावशाली नेता के रूप में उभर रही है.
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गांव में स्कूल की स्थापना कर अशिक्षा का अंधियारा मिटा रहा नीरज मुर्मू
नीरज की जिंदगी का यदि लेखा-जोखा किया जाए तो वह जीवट का बड़ा धनी लगता है. ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रहा नीरज 10 साल की उम्र में ही परिवार का गुजारा चलाने के लिए बाल मजदूरी करने लगा था. वह दिनभर अभ्रक खदानों में मजदूरी करता और रात को लालटेन की रोशनी में पढ़ाई करता. लेकिन एक दिन ऐसा भी आया जब उसकी जिंदगी में धूप खिली और वह बाल मजदूरी से मुक्त हुआ.
बाल मजदूरी से मुक्त होकर नीरज बाल मित्र ग्राम (बीएमजी) के जन-जागरुकता अभियानों से जुड़कर काम करने लगा. तभी उसने शिक्षा के महत्व को बखूबी समझा. अपने समाज के लोगों को उसने समझाना शुरू किया और उनके बच्चों का स्कूलों में दाखिला कराने लगा. इतना ही नहीं एक कदम आगे बढ़ते हुए नीरज ने झारखंड के गिरिडीह जिले के दुलियाकरम गांव में गरीब, आदिवासी बच्चों के लिए एक स्कूल की भी स्थापना कर दी.जिसके माध्यम से वह तकरीबन 150 बच्चों को समुदाय के साथ मिलकर शिक्षित करने में जुटा है. नीरज शिक्षा की ज्योति से सामाजिक बुराइयों की होली जलाना चाहता है. नीरज की इसी काबिलियत और जुनून को देखते हुए पिछले साल उसे ब्रिटेन के प्रतिष्ठित डायना अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया है.
(पंकज चौधरी कवि एवं लेखक हैं)
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