ये 1962 का नहीं, 24 का हिंदुस्तान है, युद्ध में कहीं नहीं टिक पाएगा चीन

डीएनए हिंदी वेब डेस्क | Updated:Apr 10, 2024, 11:44 PM IST

Ladakh Indian Army (file photo)

1962 में भारत-चीन के बीच जब युद्ध हुआ तो पहली बार तनाव लद्दाख से शुरू हुआ था. इस इलाके में चीन बार-बार उकसाने वाली हरकत करता रहता है. लेकिन अब भारत पहले जैसा नहीं रहा है. पढ़िए मेजर अमित बंसल का खास लेख.

1962 में हुए भारत-चीन युद्ध की यादें आज भी लोगों के जहन में है. इस युद्ध के लिए जिम्मेदार कौन था इसे लेकर काफी बार बहस हो चुकी है कि युद. अलग-अलग समय पर अधिकारियों ने अपनी-अपनी बात रखने की भी कोशिश की है, लेकिन पूरे प्रकरण में एक भी सिरा ऐसा आज तक नहीं मिल सका जिसमें दोनों पक्ष सहमत हुए हों. विवाद का सबसे पहला और बड़ा कारण यह था कि दोनों देशों के बीच सीमाएं केवल मानचित्रों पर खींची गई थीं. 1956 तक किसी भी देश द्वारा बॉर्डर के आस-पास के इलाकों पर कब्जा करने का कोई प्रयास नहीं किया गया. लेकिन इसके बाद स्थितियां बदलने लगीं. दूसरा कारण ये था कि कोई भी देश एक-दूसरे के क्षेत्रीय मानचित्रों पर सहमत नहीं सका था. 

इसी का नतीजा है कि आज पूर्वी लद्दाख में ये हालात बनी हुई है.

1962 से अभी तक

लेकिन 1962 युद्ध के बाद से गंगा और Huang-Ho (ह्वांग-हो) में बहुत सारा पानी बह चुका है. चीजें बदल चुकी हैं और भारत अब अर्थव्यवस्था के साथ-साथ सैन्य ताकत के मामले में दक्षिण एशिया में बड़ी शक्ति बन चुका है. भारत की ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जहां 1962 के युद्ध के दौरान पूर्वी लद्दाख में हमारे पास एक इन्फैंट्री ब्रिगेड और एक फील्ड आर्टिलरी बैटरी (यानी इस सैन्य टुकड़ी में आम तौर पर छह से आठ हॉवित्जर या छह से नौ रॉकेट लांचर और 100 से 200 कर्मी ही होते थे.) थी. वहीं आज देश की सीमाओं की रक्षा करने के लिए भारत-तिब्बत सीमा पुलिस के अलावा एक दुर्जेय 'फायर एंड फ्यूरी कोर' भी मौजूद है.

आज हम उन पहलुओं के बारे में बताएंगे जो लद्दाख क्षेत्र में भारतीय सेना को चीनी सेना से मजबूत बनाता है- 

भूभाग

14000 फीट से लेकर 17000 फीट तक के ऊंचाई वाले इलाके किसी भी सेना के लिए बड़ी चुनौती पैदा करते हैं. ऐसे इलाकों में एयर ऑपरेशन करना भी कठिन होता है. लेकिन पिछले 6 दशक से भारतीय जवान लद्दाख क्षेत्र के साथ-साथ सियाचिन ग्लेशियर में देश की सुरक्षा के लिए डटे हुए हैं. इन इलाकों में सेवा देने के लिए देश के जवानों को एक से दो मौके ही मिलते हैं.

मौसम
इन क्षेत्रों में तापमान -20 डिग्री सेंटीग्रेड से नीचे चला जाता है. ऑक्सीजन का स्तर गंभीर स्तर से नीचे गिर जाता है. अप्रत्याशित मौसम, बर्फीला तूफान, लैंडस्लाइड, अचानक बाढ़ और जबरदस्त बर्फबारी जैसी समस्याएं लोगों के जीवित रहना और उपकरणों का संचालन कठिन बना देती हैं. लेकिन भारतीय सेना ऐसे इलाकों में जीवित रहने के लिए अनोखे तरीके और साधन अपनाती है. सैनिकों को जब ऊंचाई वाले इलाकों में भेजा जाता है तो उन्हें उस मौसम के हिसाब से उपकरण उपलब्ध कराए जाते हैं. लेकिन चीन के साथ ऐसा नहीं है.

कम्युनिकेशन नेटवर्क 
पिछले 2 दशकों में भारत ने अपने कम्युनिकेशन नेटवर्क को न केवल आधुनिक किया है बल्कि मजबूत भी किया है. इस क्षेत्र में भारत ने मौसम के अनुकूल सीमा चौकियों से जोड़ने के लिए सड़कों, रेल पटरियों और संचार चैनलों का एक विशाल नेटवर्क विकसित किया है. जबकि चीन इस मामले में पिछड़ा हुआ है. चीन की हर मौसम की कनेक्टविटी सिर्फ उसके नेशनल हाइवे 219 तक ही सीमित है. इसकी सीमा चौकियों से जोड़ने वाली अधिकांश सड़कें केवल मौसम के अनुकूल है. इतना ही नहीं चीन के अधिकांश हेलीकॉप्टर अधिक ऊंचाई तक उड़ान भरने में सक्षम नहीं हैं. इसलिए उसका हवाई रखरखाव भी भारत की तरह मजबूत नहीं है.

पर्वतीय युद्ध 
चीन भले ही लद्दाख क्षेत्र में बार-बार घुसने की कोशिश करके गीदड़ भभकी दिखाता हो लेकिन असल में पर्वतीय युद्ध में फिसड्डी है. चीन के पास पर्वतीय युद्ध में प्रशिक्षण के लिए एक भी विशेष ट्रेनिंग सेंटर नहीं है. इसके विपरीत भारत में तीन प्रमुख संस्थान हैं, हाई एल्टीट्यूड वारफेयर स्कूल- गुलमर्ग (HAWS), पर्वत घटक स्कूल- तवांग और सियाचिन बैटल स्कूल- परतापुर. प्रत्येक भारतीय सैनिक इन सेंटरों में कम से कम एक बार जरूर भाग लेता है.

सिद्धांत और प्रक्रियाएं
1999 के ऑपरेशन विजय के बाद भारतीय सेना को माउंटेन वारफेयर सी जुड़ी कई जबरदस्त सीख भी मिली. आज हमारी सेना के पास पर्वतीय युद्ध के लिए एक मैकेनिज्म और सिद्धांत है जिसकी हम तीन दशकों से अधिक समय से ट्रेनिंग कर रहे हैं. हमने एक माउंटेन स्ट्राइक कोर बनाई है. चीन के पास आज तक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में काम करने का कोई Doctrine या अनुभव भी नहीं है.

इक्विपमेंट
भारतीय सेना के पास जो हथियार हैं जिनका परीक्षण अधिकांश अल्पलाइन युद्ध (पहाड़ों पर होने वाले) में किया जाता है. टैंक, आर्मर्ड पर्सनल कैरियर, हॉवित्जर तोपें, रॉकेट, मिसाइल और कम्युनिकेशन उपकरण सभी -50 डिग्री सेल्सियस तापमान में भी बिना किसी रुकावट के जबरदस्त तरीके से काम करते हैं. हम ECC क्लोथिंग, माउंटेनिंग किट र्वतारोहण किट जैसे अधिकांश उपकरणों का निर्माण यहीं भारत में करते हैं. जबकि चीनी अपकरण रूसी इंजीनियरों की देन हैं. पर्यावरणीय परिस्थितियों में उनका परीक्षण कभी नहीं किया जाता.

(मेजर अमित बंसल एक रक्षा रणनीतिकार (Defence Strategist) हैं. अमित विश्व के जाने माने थिंक टैंकों से जुड़े हैं और उनकी अंतरराष्ट्रीय मामलों, समुद्री सुरक्षा, आतंकवाद और आंतरिक सुरक्षा में गहरी पकड़ है. वह एक लेखक, ब्लॉगर और कवि भी हैं.)

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