Kargil Vijay Diwas: 'शेरशाह' के नाम से थर्राते थे दुश्मन, पढ़िए विक्रम बत्रा की शौर्य गाथा

आदित्य प्रकाश | Updated:Jul 26, 2024, 12:56 PM IST

Captain Vikram Batra With His Team

आज हम कारगिल के सभी योद्धाओं को याद कर रहे हैं. इन्हीं में से एक जांबाज योद्धा थे विक्रम बत्रा, इनकी दिलेरी और बहादुरी की वजह से इनके साथी इन्हें 'शेरशाह' कहते थे.

आज 26 जुलाई की तारीख है. वो दिन जब हमारी भारतीय सेना के बहादुर जवानों ने वीरतापूर्वक अंदाज में पाकिस्तानी सेना के नापाक इरादों को कुचला था. वो दिन जब पाकिस्तान भारतीय सेना के आगे भाग खड़ा हुआ था, और भारत ने एक बार फिर से पाकिस्तान पर फतेह हासिल की थी. इसी खास दिन के उपलक्ष्य में प्रत्येक साल 26 जुलाई के दिन हम कारगिल विजयी दिवस के रूप में मनाते हैं. ये दिन अपने वीर योद्धाओं के शौर्य को याद करने का दिन होता है. आज हम कारगिल के एक ऐसे ही वीर योद्धा को याद कर रहे हैं. इनका नाम है विक्रम बत्रा, इनकी दिलेरी और बहादुरी की वजह से ये शेरशाह के तौर पर जाने जाते थे.

हिमाचल के एक छोटे से गांव से हुई थी शुरुआत
हिमाचल प्रदेश के इस वीर सैनिक ने शेरशाह देश की सरहदों की रक्षा करते हुए कारगिल युद्ध में अपने प्राण न्योछावर कर दिए. इस शहीद जवान के नाम से दुश्मन भी थर्राते थे. उनकी ऐसी बहादुर शख्सियत थी. विक्रम बत्रा का जन्म  9 सितंबर 1974 को हिमाचल के कांगड़ा जिले में हुआ था. कांगड़ा जिले में उनका वास्ता पालमपुर तहसिल के घुग्गर गांव से था.

शौर्य गाथा शेरशाह की
कारगिल युद्ध शुरू हो चुका था. पाकिस्तानी सेना घुसपैठिए के वेश में भारतीय सरजमीन में दाखिल हो गए थे. वो भारतीय जमीन को हड़पना चाहते थे, और लोगों में आतंक का माहौल क्याम करना चाहते थे. पाक फौज की तरफ से तमाम नापाक कोशिशें की जा रही थी. फिर वो दिन आया जब इस जंग में सीधे तोर पर कैप्टन बत्रा की एंट्री हुई. वो 20 जून 1999 तारीख थी. कैप्टन बत्रा अपने मिशन में लग गए, और कारगिल की प्वाइंट 5140 चोटी से पाकिस्तानी फौज को ठिकाने लगाने का कैंपेन शुरू कर दिया. कई राउंड की झड़प के बाद वो अपने मिशन में कामयाब हो गए. उन्होंने अपने जीत के कोड का नाम दिया, ' ये दिल मांगे मोर'. उनके शानदार बहादुरी और अदम्य साहस को देखते हुए कमाडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेंट कर्नल जोशी की तरफ से उन्हें शेरशाह का उपनाम दिया गया.  

देश के लिए दिया अपना सर्वोच्च बलिदान
अब उन्हें 5140 चोटी को अपने कब्जे में लेने का मिशन दिया गया. वो तो इस ऑर्डर का इंतजर ही कर रहे थे. एक बार फिर से कैप्टन बत्रा अपने पांच साथियों के साथ कैंपेन पर निकल पड़े. पाकिस्तानी फौज के सिपाही वहां चोटी के सबसे ऊंचे स्पॉट पर मौजूद थे. वो वहां से भारतीय सैनिकों के ऊपर ताबड़तोड़ गोलियां चला रहे थे. लेकिन कैप्टन बत्रा कहां मानने वाले थे. वो चोटी पर मौजूद एक के बाद एक पाकिस्तानी सिपाही को ठिकाने लगाते गए, और आखिरकार चोटी पर कब्जा कर लिया. लेकिन इस दौरान वो खुद घायल हो गए. साथ ही 4875 प्वांइट पर फतेह के दौरान भी कैप्टन बत्रा ने दिलोरी दिखाई थी. आखिरकार देश के लिए वो खुद शहीद वो गए. उन्होंने मिशन के दौरान खुद को सबसे आगे रखा, जिस सैनिक को आगे बढ़कर कार्रवाई करनी थी, उन्हें ये कहकर आगे नहीं जाने दिया कि 'आप बाल-बच्चेदार हैं, पीछे हो जाइए'. ऐसा बोलकर वो खुद आगे बढ़े और दुश्मनों को ढेर करते हुए, उस चोटी पर फतेह हासिल कर ली, और शहीद हो गए.

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