Mumbai Rain: मुंबई की 'सागर' जैसी आबादी नदियों में जा बसी, अब पानी में डूबने से कौन बचाए?

Written By Swatantra Mishra | Updated: Jul 05, 2022, 10:19 PM IST

बारिश के बाद हर साल बेहाल हो जाती है मुंबई.

नदियां ताल, तलैया, नालों आदि से पानी लेकर महायात्रा करती हुई सागर तक पहुंचती है.

डीएनए हिंदी: मुंबई (Mumbai) को शंघाई बनाने का महाराष्ट्र सरकार (Maharashtra) का दावा तब हिलता हुआ दिखता है जब मानसून की एक-दो दिन की बारिश के बाद ही पूरा महानगर किसी हिचकोले खाते हुए नाव की तरह दिखने लगता है. ऐसा लगता है कि जल निकासी की व्यवस्था के लिए जिम्मेदार बृहन्मुंबई महानगर पालिका (BMC) गहरी नींद में सो गया हो. 

दरअसल, यह सब प्रकृति के साथ लगातार हो रही छेड़छाड़ के चलते हो रहा है. मुंबई में आने वाली इस प्राकृतिक विपदा का कारण जानने की कोशिश की गई तो पता चला कि यहां बहने वाली मीठी नदी सहित उल्हास, वालधुनी, दहिसर और ओशविरा नदियों के तटों का अतिक्रमण कर लिया गया है. उनकी गोद में महानगर का विकास घुस जा बैठा है और यही वजह है कि बारिश के पानी के निकास की कोई गुंजाईश नहीं रह गई है. 

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एक तथ्य यह है कि नदियां ताल, तलैया, नालों आदि से पानी लेकर महायात्रा करती हुई सागर तक पहुंचती है. दूसरा तथ्य यह है कि महासागर के पानी को नदियां मैदानी इलाकों में आने से रोकती है. 

अतिक्रमण का ठीकरा झुग्गी वासियों पर फोड़ा जाता है

मुंबई नगरपालिका की लापरवाहियों की पोल जब हर साल खुलकर सामने आती है तो वह इस अतिक्रमण का ठीकरा झुग्गीवासियों के सिर फोड़ने से रत्ती भर भी संकोच नहीं करता है. इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि मीठी नदी के तट का अतिक्रमण झुग्गीवासियों ने किया है पर मुंबई हवाई अड्डे के कारण भी मीठी नदी के बेसिन का संकुचन हुआ है. 

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मीठी नदी पर भवन निर्माण कम्पनियों ने बहुमंजिली इमारतें बना दी गईं. इस नदी तट से अतिक्रमण हटाने की बात जब जांच समिति ने सुझाई तो झुग्गी वालों को उजाड़ने की योजना बनाई गई. ऐसे में सवाल यह है कि मुंबई में बाढ़ से हुए हर साल अरबों रुपए के नुकसान के लिये क्या सिर्फ झुग्गीवासी जिम्मेदार हैं?

नालियों और सीवरों में जमा होतर रहता है कचरा

झुग्गीवासियों पर यह आरोप लगाया जाता है कि वे प्रदूषण फैलाते हैं पर सच्चाई यह है कि रिहायशी इलाकों में बसी झुग्गियों से अधिक कचरा फैलाने के लिये जिम्मेदार बहुमंजिली इमारतों, रासायनिक उद्योगों और दूसरे कल-कारखानों में समुचित कचरा प्रबन्धन का न होना है. आज भी रिहाइशी इलाकों की साफ-सफाई, कूड़ा-करकट और घरेलू कचरा उठाने की जिम्मेदारी नगर निगम पर है, मगर साधनों की कमी की वजह से वह इस जिम्मेदारी का सही तरीके से निर्वाह नहीं कर पाती है. 

नतीजतन, सूखा कचरा सड़कों और गलियों में बिखरा रहता है और बरसात में बहकर खुली नालियों और सीवरों में जमा हो जाता है. कल-कारखानों की चिमनियों से निकलने वाले धुएं और व्यवहार में लाए जा रहे पानी के निकास का कभी भी सही ढंग से प्रबन्धन नहीं होता है. सरकार कभी यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाते कि कल-कारखानों से निकलने वाला धुआं और दूषित जल-मल प्रदूषण में इजाफा कर रहा है.

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मीठी नदी जहां सागर में मिलती है, वहां कभी मैंग्रोव का घना जंगल हुआ करता था. महाराष्ट्र सरकार ने इस जंगल को उजाड़ कर और मीठी नदी में मिट्टी भरकर बांद्रा-कुर्ला काम्प्लेक्स बनवाया. हवाई पट्टी का एक कोना भी इसी अतिक्रमण का हिस्सा है. हजारों एकड़ जमीन नदी के बेसिन और जंगल से छीनकर राज्य सरकार की दो कंपनियों- सिडको और महाडा- को दे दी गई. 

आज वहां देशी और विदेशी बड़ी कंपनियों के बहुत सारे दफ्तर हैं. चमड़ा शोधन और रासायनिक उद्योग भी अपना कचरा मीठी नदी में प्रवाहित करते हैं. आश्चर्य तो यह है कि इन कचरा फैलाने वालों में कोई छोटा उद्योग नहीं है. 

महाराष्ट्र के जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता विलास सोनवणे ने बातचीत में कहा था कि कि झुग्गीवासी यहां इमारतों के निर्माण कार्य के लियए आये थे. निर्माण का कार्य पूरा हो गया है. अब यहां ये श्रम करके अपना पेट पालते हैं तो पर्यावरण का बहाना करके इन्हें उजाड़ने की बात होने लगी है.

नदियों का हाल हर जगह बुरा है. आगरा, मथुरा, कानपुर में भी चमड़ा उद्योग और दूसरे कल-कारखानों से निकलने वाला कचरा ही इसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं. तमिलनाडु के आंबूर और रानीपेट शहरों में चमड़ा शोधन के करीब 250 सौ कारखाने हैं. 

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यह उद्योग अपनी सारी गंदगी  बगैर शोधित किये बहाए चले जा रहे हैं. इस कारण पैदावार काफी घट गई है. पीने लायक पानी नहीं बचा है. नदियों में बढ़ते प्रदूषण के चलते त्वचा संबंधी रोगों की शिकायतें बढ़ती जा रही हैं.


सरकार और उद्योगपति बढ़ते प्रदूषण को कम करने के मामलों पर चुप्पी साधे रहती है लेकिन गरीब मछुआरों के जाल डालने पर प्रतिबन्ध लगाने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ती है. उसके पीछे तर्क यह दिया जाता है कि मछलियों के मारे जाने से पारिस्थितिकीय संतुलन बिगड़ जाएगा जबकि गरीब मछुआरों का मछली और जाल के साथ पारम्परिक और सांस्कृतिक रिश्ता होता है. 


दूसरी ओर उद्योगपति बड़े ट्रालरों से मछली मारते हैं. उनके जाल में छोटी-बड़ी सारी मछलियां फंस जाती हैं. उनकी जरूरत से अतिरिक्त जो मछलियां होती हैं, उन्हें तट पर मरने के लिये छोड़ दिया जाता है. ये बरसात में भी मछलियां मारने का काम करते हैं पर कभी यह सुनने में नहीं आता कि बड़े ट्रालरों से मछली मारने पर प्रतिबन्ध लगाया गया है.

प्रतिबंध का यह मामला पर्यावरण को बचाने का नहीं, अपने अपराधों को छिपाने का है. समाज के ताकतवर लोग जीवन से जुड़ी हरेक चीज पर आधिपत्य जमाना चाहते हैं. सारी सुविधाओं को कुछ लोगों तक सीमित कर देना चाहते हैं.

अमेरिका की इसकी सबसे अच्छी मिसाल है. वह दुनिया भर को पर्यावरण का पाठ पढ़ाता है लेकिन जब क्योटो प्रोटोकाल की शर्तों को मानने की बात आती है तो हर बार इनकार कर देता है. पर्यावरण को बचाना है तो प्रकृति के नियमों के साथ तालमेल बिठाना होगा.

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