डीएनए हिंदी: एक साल था 1949 का और एक है 2024 का. इन 75 सालों में अयोध्या के राम मंदिर का मुद्दा ऐसा रहा है जिसने कांग्रेस पार्टी को हमेशा परेशान किया है. देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के सामने यह समस्या तब आई जब अचानक विवादित ढांचे में मूर्तियां रख दी गईं. वहीं, अब कांग्रेस पार्टी और गांधी परिवार के सामने भी समस्या आई है जब मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा होनी है और कांग्रेस ने औपचारिक तौर पर इस कार्यक्रम में जाने के लिए मिले न्योते को अस्वीकार कर दिया है. कांग्रेस के इस कदम ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को बैठे-बिठाए मुद्दा दे दिया है और वह 'राम के नाम' पर कांग्रेस को जबरदस्त तरीके से घेरने जा रही है.
कांग्रेस ने अपने आधिकारिक बयान में कहा है कि अयोध्या के राम मंदिर में रामलला की मूर्ति के प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे, पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी और लोकसभा में पार्टी के नेता अधीर रंजन चौधरी शामिल नहीं होंगे, क्योंकि यह बीजेपी और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) का आयोजन है और अर्द्धनिर्मित मंदिर का उद्घाटन चुनावी लाभ के लिए किया जा रहा है. इस पर बीजेपी ने कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा कि विपक्षी दल का दिमाग ठीक उसी तरह खराब हो गया है जैसा कि त्रेतायुग में रावण का हो गया था और प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम का बहिष्कार करने वालों का जनता चुनाव में बहिष्कार करेगी.
पंडित जवाहर लाल नेहरू
सबसे पहले साल 1949 में 22 दिसंबर की रात में विवादित ढांचे के मुख्य गुंबद के नीचे मूर्तियां रख दी गईं. पंडित नेहरू देश के प्रधानमंत्री थे और कांग्रेस नेता गोविंद वल्लभ पंत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. सरकार की ओर से कोशिश की गई कि मूर्तियों को इस ढांचे से निकाल दिया जाए. उस वक्त फैजाबाद के डीएम रहे केके नायर ने सुरक्षा व्यवस्था का हवाला देते हुए आदेश मानने से इनकार कर दिया और विवादित ढांचे पर ताला लगा दिया गया. उसी वक्त से बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे का इस्तेमाल बंद हो गया.
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इस बीच अगले ढाई दशक तक मामला कोर्ट में चलता रहा. दोनों पक्षों की ओर से अपील होती रही कि ताला खुलवाया जाए. मुस्लिम पक्ष वहां नमाज पढ़ने की मांग करता रहा और हिंदू पक्ष ने इसे राम मंदिर बताते हुए पूजा-अर्चना करने की अनुमति मांगी. 31 अक्टूबर 1985 से 1 नवंबर 1985 के बीच कर्नाटक के उडुपी में एक धर्मसंसद हुई. इसमें तय किया गया कि अगर ताला नहीं खुला तो 9 मार्च 1986 से अनशन किया जाएगा. महंत परमहंस रामचंद्र दास ने धमकी दे डाली कि वह आत्मदाह कर लेंगे.
राजीव गांधी के समय खुल गए ताले
इस बीच इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बन गए थे. राजनीति में अपेक्षाकृत नए राजीव गांधी के पास अब न तो उनकी मां थीं और न ही भाई संजय गांधी. ऐसे में वह अपने सलाहकारों की सलाह पर चलने लगे थे. इन्हीं की सलाह पर राजीव गांधी ने शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए संसद में कानून बना दिया. इस फैसले से मुस्लिम तो खुश हुए लेकिन हिंदू राजीव गांधी से नाराज हो गए थे.
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उस वक्त अरुण नेहरू और अन्य सलाहकारों ने राजीव गांधी को सलाह दी कि विवादित ढांचे का ताला खुलवा दिया जाए तो हिंदू खुश हो जाएंगे. 28 जनवरी 1986 को कांग्रेसी पृष्ठभूमि के एक वकील ने फैजाबाद की अदालत में ताला खोलने की याचिका दायर की. 1 फरवरी 1986 को ताला खोलने के आदेश दे दिए गए और सिर्फ 40 मिनट के अंदर ताले खोल भी दिए गए. इस पूरी घटना का लाइव टेलिकास्ट दूरदर्शन पर भी किया गया.
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कई संतों, कांग्रेस नेताओं और पत्रकारों का कहना है कि राजीव गांधी भव्य राम मंदिर बनवाना चाहते थे. हालांकि, वह दोबारा सत्ता में नहीं लौटे और उनकी हत्या हो गई. उसके बाद आईं तीन सरकारों में राम मंदिर आंदोलन तेज होता गया. पीवी नरसिंह राव की सरकार में 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को गिरा दिया गया. खुद उत्तर प्रदेश के सीएम कल्याण सिंह और प्रधानमंत्री नरसिंह राव पर आरोप लगे कि उन्होंने जानबूझकर कोई कार्रवाई नहीं करवाई.
सोनिया गांधी और राहुल गांधी की उचित दूरी
हिंदुत्व के मुद्दे पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी कभी मुखर नहीं हो पाए. बीजेपी के लिए यह मुद्दा रामबाण साबित हुआ. अब राम मंदिर का प्राण प्रतिष्ठा समारोह भी ऐसा ही साबित हो रहा है. जब कांग्रेस को न्योता दिया गया तभी समझा जा रहा था कि कांग्रेस इस मुद्दे पर जरूर फंसेगी. अब कांग्रेस की ओर से न्योता अस्वीकार किए जाने के बाद पार्टी के ही कई नेताओं ने इस फैसले पर सवाल उठाए हैं.
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कांग्रेस पार्टी में ही कई नेताओं का मानना है कि राम मंदिर के मामले पर ऐसा फैसला नहीं लेना चाहिए. वहीं, कांग्रेस की कोर टीम का मानना है कि बीजेपी और आरएसएस इस मुद्दे पर राजनीति कर रहे हैं और अगर उसके प्रमुख नेता इस कार्यक्रम में शामिल होते हैं तो यह ऐसा होगा जैसे वे इस अजेंडे को स्वीकार कर रहे हों. वैसे भी खुद राहुल गांधी कहते हैं कि यह विचारों की लड़ाई है जिसमें एक तरफ गांधीवादी विचारधारा है और दूसरी तरफ आरएसएस की विचारधारा.
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