Supreme Court: पिता ने गर्भवती बेटी का किया था कत्ल, SC ने माफ की मौत की सजा, जानें वजह

Written By शिवानी झा | Updated: Oct 17, 2024, 02:26 PM IST

Supreme Court

एकनाथ किसन कुम्भारकर ने अपनी गर्भवती बेटी की हत्या की, क्योंकि उसने दूसरी जाति के लड़के से शादी की थी. अब सुप्रीम कोर्ट ने उसकी मौत की सजा को बदलकर 20 साल की सख्त सजा में तब्दील कर दिया है. जानें कोर्ट ने क्यों दी आरोपी को राहत? आइए इस पूरे मामले को विस्तार से समझते हैं.

Supreme Court Commutes Death Penalty: भारत में अक्सर जाति और परिवार के दबाव के चलते कई तरह के विवाद होते हैं. हाल ही में एक ऐसा मामला सामने आया है. एक पिता ने अपनी गर्भवती बेटी की हत्या कर दी. उसने परिवार की इच्छा के खिलाफ दूसरी जाति के लड़के से शादी की थी. उसका यही निर्णय उसकी मौत की वजह बन गया. ये मामला पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया है. साथ ही सुप्रीम कोर्ट की तरफ से इसको लेकर फैसला भी आ चुका है.

सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार, 16 अक्टूबर, 2024 को एकनाथ किसन कुम्भारकर की मौत की सजा को बदल दिया. अब उसे 20 साल की सख्त सजा भुगतनी होगी. कुंभारकर महाराष्ट्र के नासिक जिले का निवासी है. न्यायमूर्ति बी आर गवई, न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और न्यायमूर्ति के वी विश्वनाथन की बेंच ने फैसला सुनाया हैं. इस बेंच ने एकनाथ किसान कुंभारकर की दोषी होने की बात को माना हैं. हालांकि उन्होंने उसकी मौत की सजा को खत्म कर दिया. कोर्ट ने कहा कि ये मामला “सबसे दुर्लभ मामलों” में नहीं आता, जिसमें केवल मौत की सजा ही सही हो.

क्या हुआ था?
प्रमिला नाम की गर्भवती बेटी ने अपने परिवार की इच्छाओं के खिलाफ जाकर दूसरी जाति के लड़के से शादी की थी. इसके बाद, 28 जून 2013 को, उसके पिता ने उसकी हत्या कर दी. सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी की सजा को बरकरार रखा. मौत की सजा को लेकिन घटाकर 20 साल की कठोर सजा में बदल दिया हैं.

क्यों मिली राहत?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कुम्भारकर गरीब और घुमंतू समुदाय से आते हैं. उनका जीवन गरीबी और पारिवारिक दबाव (Family Pressure) से प्रभावित रहा है. कोर्ट ने ये भी बताया कि उनके खिलाफ कोई पूर्व आपराधिक रिकॉर्ड (Previous Criminal Record) नहीं है. इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए अदालत ने मौत की सजा को सही नहीं समझा.


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सुधार की संभावना
कोर्ट ने कहा कि सजा का फैसला केवल अपराध की गंभीरता पर नहीं होना चाहिए. ये देखना चाहिए कि आरोपी में सुधार की गुंजाइश है या नहीं. इस मामले ने एक बार फिर जातिवाद (Casteism) और परिवार के दबाव की गंभीरता को उजागर किया है.

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