सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने इलेक्टोरल बॉन्ड का डेटा चुनाव आयोग को सौंप दिया था. अब चुनाव आयोग ने अपनी वेबसाइट पर दो फाइल जारी की हैं. एक फाइल में यह बताया गया है कब, किसने और कितने रुपये का इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदा. दूसरी फाइल में बताया गया है कि किस पार्टी को कितना पैसा कब मिला. अब सुप्रीम कोर्ट ने स्टेट बैंक को फटकार लगाते हुए कहा है कि वह इलेक्टोरल बॉन्ड के यूनीक नंबर भी बताए. इसके लिए SBI को सोमवार तक का समय दिया गया है.
सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर सवाल उठाएं हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड का जो डेटा सार्वजनिक किया गया है, उसमें बॉन्ड के नंबर की जानकारी नहीं दी गई. कोर्ट ने SBI को नोटिस जारी करके जवाब भी मांगा है. अब सुप्रीम कोर्ट का यह रुख बेहद अहम हो गया है क्योंकि बॉन्ड के नंबर से ही यह पता चल सकता है कि किस शख्स या पार्टी ने किस राजनीतिक पार्टी को कितना चंदा दिया है. आइए इसे विस्तार से समझते हैं...
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कहां आ रही है दिक्कत?
चुनाव आयोग की वेबसाइट पर जो डेटा अभी उपलब्ध है, उससे यह पता चलता है कि किस शख्स ने कितने का इलेक्टोरल बॉन्ड कब खरीदा. दूसरी फाइल से इलेक्टोरल बॉन्ड को भुनाने वाली पार्टी का नाम, भुनाने की तारीख और राशि की जानकारी मिलती है. ऐसे में यह मिलान नहीं हो सकता है कि किस पार्टी को किसने और कब पैसा दिया. दूसरी बात यह भी है कि जरूरी नहीं है कि जिस दिन इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदा गया हो, उसी दिन उसे भुना भी लिया गया हो, ऐसे में तारीखों में भी काफी अंतर देखने को मिला है.
उदाहरण के लिए- अभी चुनाव आयोग की वेबसाइट से पता चलता है कि A नाम के शख्स ने 1000 रुपये का बॉन्ड अमुक तारीख को खरीदा. डेटा के दूसरे सेट से पता चल जाता है कि B नाम की राजनीतिक पार्टी ने 1000 हजार रुपये के बॉन्ड को भुनाया है.
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इसके बावजूद भी पुख्ता तौर पर यह नहीं कहा जा सकता है कि B को जो पैसा मिला है, वह A का दिया हुआ ही है. दरअसल, हो सकता है कि C नाम के शख्स ने भी 1000 रुपये का एक बॉन्ड खरीदा हो. ऐसे में ये सुनिश्चित करने के लिए कि B को जो पैसा मिला, वह A का है या C का, बॉन्ड नंबर का होना ज़रूरी है.
क्यों रद्द की गई थी इलेक्टोरल बॉन्ड योजना?
ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के चुनावी बॉन्ड स्कीम को रद्द करने के फैसले का कोई मतलब ही नहीं रह जाता. 15 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच ने इस स्कीम को इसी आधार पर रद्द किया था कि वोटर को यह जानने का हक है कि किसने, किसको, कितना चंदा दिया.
अपना फैसला सुनाते वक्त सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, "हमारे यहां पैसे और राजनीति का जो गठजोड़ है, उसमें इस बात की पूरी संभावना है कि चंदा सत्तारूढ़ पार्टी के लिए घूस का जरिया बन जाए और इसके एवज में सरकार ऐसी नीतियां बनाए जिससे चंदा देने वाले कॉरपोरेट कंपनी को फायदा हो. ऐसे में अगर आम वोटर को इस बात की जानकारी रहेगी कि किस पार्टी को किस कॉरपोरेट से कितना पैसा मिला है, तब वह यह तय कर सकता है कि सरकारी की किसी नीति के पीछे वजह उसे मिलने वाला चंदा तो नहीं है!
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