Joshimath sinking: नरसिंह के हिरण्यकश्यप वध से आदि शंकराचार्य के तप तक, जोशीमठ धंसा तो खो जाएगी ये 6 विरासत

Joshimath Photos: उत्तराखंड के चमोली जिले में मौजूद जोशीमठ की भारतीय संस्कृति में बेहद अहमियत है. इसे स्वर्ग का द्वार भी कहा जाता है.

Joshimath News: उत्तराखंड के सबसे पुराने शहरों में से एक ज्योतिर्मठ यानी जोशीमठ (Joshimath Sinking) लगातार धंस रहा है. यहां के 561 घरों को खतरनाक घोषित कर दिया गया है. इन घरों को खाली कराया जा रहा है. जमीन के धंसने के हिसाब से डर है कि भारतीय संस्कृति का यह सबसे अहम हिस्सा किसी दिन अचानक पाताल लोक में समाकर अतीत का हिस्सा न बन जाए. भारतीय सेना को तिब्बत से सटी LAC  तक पहुंचाने वाले NH-58 पर समुद्र तल से करीब 6,150 बसे इस शहर की क्या अहमियत है, यह जानने के लिए आपको धौलीगंगा और अलकनंदा के संगम पर बसे जोशीमठ के इतिहास की परतों से होकर गुजरना होगा. यह जानना होगा कि आखिर इस शहर को 'स्वर्ग का द्वार' कहकर क्यों पुकारा जाता है? क्यों इस शहर का जिक्र हिंदू धर्म के पवित्र पुराणों में भी है? आइए जानते हैं ऐसी 5 सांस्कृतिक विरासतों के बारे में, जो इस शहर के धंसने पर हमेशा के लिए खो जाएंगी.

भगवान नरसिंह ने किया था हिरण्यकश्यप का वध

जोशीमठ में भगवान नरसिंह का मंदिर है, जिसके दर्शन किए बिना भगवान बद्रीविशाल के दर्शनों को अधूरा माना जाता है. किवदंती है कि प्रह्लाद के आह्वान पर भगवान विष्णु ने नरसिंह (आधा इंसान और आधा शेर) रूप धारण किया. नरसिंह खंभा फाड़कर निकले और हिरण्यकश्यप का पेट नाखूनों से चीरकर वध कर दिया. कहा जाता है कि इसके बाद भी कई दिन तक नरसिंह बेहद क्रोधित अवस्था में रौद्र रूप धारण करके रहे. इससे सृष्टि को खतरा पैदा हो गया, तब भगवती लक्ष्मी ने प्रह्लाद को ही उन्हें शांत करने की जिम्मेदारी सौंपी. माना जाता है कि प्रह्लाद के कई दिन तक भगवान विष्णु का जाप करने पर वे शांत हुए और नरसिंह के शांत स्वरूप में जोशीमठ में स्थापित हो गए. इसी नरसिंह मंदिर में भगवान बद्रीविशाल छह महीने के लिए बद्रीनाथ धाम छोड़कर शीतकालीन प्रवास करते हैं.

बद्रीनाथ धाम का भविष्य भी तय करेगा नरसिंह मंदिर

स्कंद पुराण के केदारखंड में जोशीमठ क्षेत्र का जिक्र है. इसमें बताया गया है कि नरसिंह मंदिर में मौजूद शालिग्राम की मूर्ति बद्रीनाथ धाम का भविष्य तय करेगी. यह कलाई हर दिन थोड़ी पतली हो जाती है, जब शालिग्राम के शरीर से अलग होकर गिर जाएगी, तब इस क्षेत्र में प्रलय होगी और नर व नारायण पर्वत आपस में टकरा जाएंगे. इससे बद्रीनाथ धाम जाने के रास्ते हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे. इसके बाद भगवान बद्रीविशाल के रूप में मौजूद विष्णु की पूजा भविष्य बद्री में होगी, जो जोशीमठ से 19 किलोमीटर दूर तपोवन में है. 

बाबा केदारनाथ का भविष्य का आवास भी यहीं है

जोशीमठ में मौजूद है भविष्य केदार मंदिर. स्थानीय किवदंती के अनुसार, जब नर व नारायण पर्वत आपस में टकराएंगे तो बद्रीनाथ के साथ ही केदारनाथ धाम भी गायब हो जाएगा. इसके बाद जोशीमठ के इस भविष्य केदार मंदिर में ही बाबा केदार की चट्टान रूपी शिवलिंग फिर से प्रकट होगा. अब भी इस मंदिर में एक छोटा सा शिवलिंग है. यहीं पर एक छोटा सा अहाता भी है, जिसमें रखे हथियारों को पांडव भाइयों का बताया जाता है. मान्यता है कि स्वर्गारोहण के लिए हिमालय पर आगे बढ़ने से पहले पांडव भाइयों ने इन शस्त्रों को यहां त्याग दिया था.

आदि शंकराचार्य को यहीं मिला था ज्ञान

भारतीय सनातन संस्कृति को दोबारा जिंदा करने का श्रेय आदि शंकराचार्य को दिया जाता है, जिन्होंने 8वीं शताब्दी में यहीं तप किया था. साल 815 ई. में यहीं आदि शंकराचार्य को जिस शहतूत के पेड़ के नीचे साधना कर 'ज्ञान ज्योति' प्राप्त हुई थी, वह 36 मीटर गोलाई वाली 2400 साल पुराना शहतूत का पेड़ आज भी मौजूद है. इस पेड़ के बराबर में आदि शंकराचार्य की तपस्थली गुफा भी है, जिसे अब ज्योतिरेश्वर महादेव कहते हैं. शंकराचार्य को दिव्य ज्ञान ज्योति मिलने के कारण इस जगह को ज्योतिर्मठ कहा गया, जो बाद में आम बोलचाल की भाषा में जोशीमठ कहलाने लगा. शंकराचार्य ने देश के चार कोनों में चार मठ स्थापित किए थे, जिनमें से पहला ज्योतिर्मठ यहीं पर था. इसी में शंकराचार्य ने बेहद अहम धर्म ग्रंथ शंकर भाष्य की स्थापना की. तब से यह नगर हमेशा के लिए वेद, पुराण व ज्योतिष विद्या का अहम केंद्र बन गया.

कत्यूरी राजाओं की राजधानी कीर्तिपुर भी यही थी

उत्तराखंड के शासकों में सबसे महान नाम कत्यूरी राजवंश का है, जिन्होंने 7वीं से 11वीं सदी के बीच कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्र पर शासन किया और यहां चप्पे-चप्पे पर मंदिरों और धार्मिक केंद्रों की स्थापना कराई थी. इन कत्यूरी शासकों के समय जोशीमठ को कीर्तिपुर कहा जाता था, जो उनकी राजधानी थी. पांडुकेश्वर में पाये गये कत्यूरी शासक ललितशूर के ताम्रपत्र में इसे कीर्तिपुर व कुछ जगह कार्तिकेयपुर लिखा गया है, जो कत्यूरी राजाओं की राजधानी थी. मान्यता है कि कत्यूरी वंश के संस्थापक एक क्षत्रिय सेनापति कंटुरा वासुदेव थे, जिन्होंने गढ़वाल की उत्तरी सीमा पर कीर्तिपुर बसाकर अपना शासन स्थापित किया. इसे ही बाद में जोशीमठ कहा गया. 

पांडवों ने स्वर्ग जाने के लिए यहीं से ली थी बद्रीधाम की राह

पांडवों ने जब युधिष्ठिर के साथ अपना राजपाट छोड़कर पहाड़ों की राह पकड़ी तो जोशीमठ में पहुंचने के बाद ही उन्होंने स्वर्ग जाने का निश्चय किया. इसके बाद ही उन्होंने बद्रीधाम की राह पकड़ी थी. बद्रीधाम से पहले पांडुकेश्वर ही वह जगह है, जहां पांडवों का जन्म हुआ था. बद्रीधाम के बाद माणा गांव पार करने पर स्वर्गारोहिणी शिखर आता है, जहां से पांडव एक-एक कर युधिष्ठिर का साथ छोड़ते चले गए और आखिर में चोटी पर पहुंचने के बाद युधिष्ठिर और सफर में उनका साथ दे रहा कुत्ता सशरीर स्वर्ग के लिए गए. इसी कारण जोशीमठ को 'स्वर्ग का द्वार' भी कहा जाता है. यह नाम दिए जाने के पीछे एक कारण और भी है. जोशीमठ से आगे निकलकर ही फूलों की घाटी के लिए जाते हैं, जो स्वर्ग जैसा आभास देती है. साथ ही जोशीमठ ही विश्व प्रसिद्ध स्कीइंग प्लेस औली जाने का दरवाजा है. औली भी स्वर्ग जैसा अनुपम सौंदर्य रखता है. शायद यह भी कारण है कि जोशीमठ को स्वर्ग का द्वार कहते हैं.