माना जाता है कि इस गली में सिखों के दसवें गुरु श्री गुरु गोविंद सिंह का जन्मस्थल होने के कारण यहां रोज लंगर बांटा जाता था. बचे हुए लंगर को लंगूर खाने के लिए झुंड लगा लेते थे. इस वजह से इस गली का नाम लंगर से लंगूर हो गया.
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लोगों का मानना है कि पटना की इस गली के पुराने मकानों में बंदरों का बसेरा था. दिन भर इधर-उधर घूमने के बाद बंदर वापस अपने घरों में चले आते थे. यही वजह है कि इस गली को बंदरिया गली कहा जाने लगा.
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दैनिक जागरण पर छपी एक खबर के मुताबिक, माना जाता है कि मुगलकाल में इस गली में हरियाली अधिक थी. यहां चारों तरफ पेड़ थे और पेड़ों पर कौवों का बसेरा अधिक था. स्थानीय लोगों बताते हैं कि कौवों की खोह की तरह चर्चित यह इलाका कौवा खोह और बाद में कैमाशिकोह कहलाया.
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इस गली में मछलियों का बाजार लगता था. इस वजह से इस गली को मच्छरहट्टा कहा जाने लगा. लोगों का मानना है कि यहां तवायफों के गीत-संगीत की महफिलें भी लगा करती थीं. इसलिए भी यह मोहल्ला फेमस था.
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इस गली में कचहरी लगा करती थी और लोगों के लिए कचौड़ी-जलेबी की दुकानें लगाई जाती थीं. बाद में कचहरी शब्द कचौड़ी में बदल गया. अब ये कचौड़ी गली हो गई.