Uttarakhand में लोक संस्कृति का त्योहार फूलदेई आज से शुरू, जानें इससे जुड़ी परंपराएं और मान्यताएं

फूलदेई उत्तराखण्ड राज्य का एक स्थानीय त्यौहार है. हर साल चैत्र माह के आगमन पर मनाया जाता है. इस त्योहार की खासियत है कि बच्चे इसकी शुरुआत करते हैं.

| Updated: Mar 14, 2022, 05:26 PM IST

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उत्तराखंड के लोकपर्व प्रकृति एवं पर्यावरण के संरक्षण तथा संवर्धन को बढ़ावा देते हैं. फूलदेई या फूल संक्रांति भी प्रकृति में बदलाव का प्रतीक है. बच्चे फ्यूंली, बुरांश और बासिंग के पीले, लाल, सफेद रंगों के मनभावन फूलों से घर-आंगन सजाते हैं. और फूल देई, छम्मा देई लोकगीत गाते हैं.
 

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पूरे उत्तराखंड में चैत्र महीने के शुरू होते ही कई तरह के फूल खिल जाते हैं. इनमें फ्यूंली, लाई, ग्वीर्याल, किनगोड़, हिसर, बुरांस आदि प्रमुख हैं. चैत्र संक्रांति से छोटे-छोटे बच्चे हाथों में कैंणी (बारीक बांस की डलिया) में फूल रखकर लोगों के घरों के दरवाजे,मंदिरों के बाहर रखते है. फूलों को घरों के बाहर रखने के पीछे शुभ की कामना है. घरों में कुशलता रहे और लोग स्वस्थ रहे, इस भावना से ऐसा किया जाता है. 

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फूलदेई त्यौहार मनाने के पीछे की मान्यता पुराणों में है. मान्यता के अनुसार, शिवजी शीतकाल में तपस्या में लीन थे और इस दौरान कई साल बीत गए. बहुत से मौसम आकर गुजर गए लेकिन भगवान शिव की तपस्या नहीं टूटी. कई साल शिव के तपस्या में लीन होने की वजह से बेमौसमी हो गए थे. आखिर मां पार्वती ने युक्ति निकाली थी. कैंणी में फ्योली के पीले फूल खिलने के कारण सभी शिव गणों को पीताम्बरी जामा पहनाकर उन्हें अबोध बच्चों का स्वरुप दे दिया था फिर सभी से कहा कि वह देवक्यारियों से ऐसे पुष्प चुन लाएं जिनकी खुशबू पूरे कैलाश को महकाए. 

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पौराणिक मान्यता के अनुसार, शिवजी की तपस्या भंग करने के लिए सब गणों ने पीले वस्त्र पहनकर सुंगधित फूलों की डाल सजाई और कैलाश पहुंच गए. शिवजी के तंद्रालीन मुद्रा को फूल चढ़ाए गए थे. साथ में सभी एक सुर में आदिदेव महादेव से उनकी तपस्या में बाधा डालने के लिए क्षमा मांगते हुए कहने लगे- फुलदेई क्षमा देई, भर भंकार तेरे द्वार आए महाराज. शिव की तपस्या टूटी और बच्चों को देखकर उनका गुस्सा शांत हुआ और वे प्रसन्न मन से इस त्यौहार में शामिल हुए थे. 
 

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फूलदेई की शुरुआत आज भी मान्यता के अनुसार बच्चे ही करते हैं. बच्चे घरों में और मंदिरों के द्वार पर फूलों की डलिया हाथ में लेकर पहुंचते हैं और फूलों को वहां रखते हैं. ऐसी मान्यता है कि बच्चे अबोध होते हैं इसलिए भगवान उनकी सुनते हैं. त्योहार का समापन परिवार के बुजुर्ग करते हैं.