डीएनए हिंदी: Supreme Court Latest News- अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर चल रही सुनवाई पूरी हो गई है. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में 8 दिन तक दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद गुरुवार को फैसला सुरक्षित रख लिया है. यह मामला सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की संविधान पीठ सुन रही है, जिसकी अध्यक्षता चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ कर रहे हैं. यह विवाद 57 साल पुराना है, जिसमें इलाहाबाद हाई कोर्ट के साल 2006 के फैसले पर सुनवाई की गई है. हाई कोर्ट ने साल 2006 में अपने फैसले में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना था. इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई थी, जहां 3 जजों की बेंच ने इसे सांविधानिक व्याख्या का केस मानते हुए 7 जजों की संविधान पीठ के लिए रेफर किया था. संविधान पीठ ने गुरुवार को फैसला सुरक्षित रखते हुए यह नहीं बताया है कि वह इस फैसले को कब सुनाएगी.
8 दिन में संविधान के कई अनुच्छेदों की व्याख्या पर हुई बहस
चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ में जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस दीपांकर दत्ता, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस एससी शर्मा शामिल हैं. इस बेंच ने 8 दिन की सुनवाई के दौरान संविधान के अनुच्छेद 30, संविधान की सूची 1 की प्रविष्टि 63, AMU के विधायी इतिहास और 1920 के ऑरिजिनल AMU एक्ट में 1951 से 1981 के बीच किए गए विभिन्न संशोधनों पर दोनों पक्षों की दलीलों को सुना है. इसके बाद फैसला सुरक्षित रखने का निर्णय लिया गया है.
सरकार का तर्क- राष्ट्रीय महत्व के संस्थान नहीं हो सकते अल्पसंख्यक
इस मामले में बुधवार को 7वें दिन सुनवाई के दौरान इस सवाल पर बहस हुई थी कि क्या राष्ट्रीय महत्व के संस्थान को अल्पसंख्यक दर्जा मिल सकता है? अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) को भी संविधान की सूची-1 की प्रविष्टि 63 के तहत दिल्ली यूनिवर्सिटी और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय आदि के साथ राष्ट्रीय महत्व का संस्थान घोषित किया गया है. केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय महत्व वाले संस्थान को अल्पसंख्यक दर्जा देने का विरोध किया था, क्योंकि इससे ऐसी संस्था समाज के अन्य वर्गों की पहुंच से बाहर हो जाएगी और इसमें अनुसूचित जातियों व जनजातियों को आरक्षण का लाभ भी नहीं मिलेगा.
अब जानिए क्या है 57 साल पुराना विवाद
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे पर चल रहा विवाद करीब 57 पुराना है. दरअसल 1877 में मुस्लिम नेता सैय्यद अहमद खान ने मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज (MAO College) की स्थापना की थी. साल 1920 में MAO कॉलेज और मुस्लिम यूनिवर्सिटी एसोसिएशन को एक करने के लिए द अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी एक्ट 1920 (AMU Act 1920) पास किया गया. साल 1951 में इस एक्ट में संशोधन कर AMU में मुस्लिमों के लिए धार्मिक शिक्षा अनिवार्य होने और यूनिवर्सिटी कोर्ट में मुस्लिम प्रतिनिधित्व से जुड़े मैन्डेट को हटा दिया गया. इसके बाद 1965 में यूनिवर्सिटी की गवर्निंग बॉडी के सदस्यों के नामांकन की जिम्मेदारी राष्ट्रपति को दे दी गई.
इसके खिलाफ 1967 में कुछ लोग सु्प्रीम कोर्ट चले गए. इस केस को एस. अजीज बाशा बनाम भारत सरकार मामला कहा जाता है. इसमें याचिकाकर्ताओं ने एएमयू की स्थापना मुस्लिमों के लिए होने की बात कहकर इसका संचालन मुस्लिम समुदाय को देने की मांग की. हालांकि सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की संविधान पीठ ने 1951 और 1965 के संशोधनों की समीक्षा के बाद इन्हें सही घोषित कर दिया. इसके खिलाफ देशभर में विरोध प्रदर्शन के बाद 1981 में सरकार ने एएमयू एक्ट में दोबार संशोधन करते हुए इसे अल्पसंख्यक संस्थान घोषित कर दिया.
2005 से शुरू हुआ असली विवाद
साल 2005 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पीजी मेडिकल की 50% सीटें मुस्लिम छात्रों के लिए रिजर्व कर दी गई. इसे इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी गई. हाई कोर्ट ने 1981 के संशोधन को अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर उठाया गया कदम घोषित करते हुए रिजर्वेशन पॉलिसी रद्द कर दी. इस फैसले के खिलाफ साल 2006 में कांग्रेस नेतृत्व वाली तत्कालीन भारत सरकार और एएमयू प्रबंधन, दोनों ने सु्प्रीम कोर्ट में अपील की. इस अपील की ही सुनवाई अब सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की संविधान पीठ कर रही है, जिस पर फैसला सुरक्षित रखा गया है.
मोदी सरकार ने खुद को किया था केस से अलग
कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए गठबंधन की साल 2014 में हार के बाद भाजपा नेतृत्व वाले NDA गठबंधन की केंद्र में सरकार बनी थी. साल 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने इस केस में अपनी अपील वापस ले ली थी. अब एएमयू प्रबंधन और एएमयू ओल्ड बॉयज एसोसिएशन आदि इस केस में याची हैं.
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