Allahabad High Court Latest Decision: इलाहाबाद हाई कोर्ट ने हिंदू दंपती के बीच तलाक के मुकदमे में एक ऐसा फैसला सुनाया है, जो आगे इस तरह के मामलों में मिसाल बन सकता है. इलाहाबाद हाई कोर्ट (Allahabad High Court) ने इस बात का जवाब दिया है कि सहमति से तलाक के लिए दाखिल अर्जी में यदि पति या पत्नी में से कोई एक केस वापस ले ले तो क्या होगा? क्या कोर्ट तब भी तलाक की अर्जी मंजूर कर सकती है या वह मुकदमा खारिज पाया जाएगा. इन सवालों का जवाब देते हुए हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि हिंदू विवाह शास्त्र सम्मत विधि आधारित होता है, जिसे किसी तरह की कॉन्ट्रेक्ट मैरिज की तरह भंग नहीं किया जा सकता है. हिंदू विवाह को सीमित परिस्थितियों के आधार पर ही भंग किया जा सकता है. इसके साथ ही हाई कोर्ट ने निचली अदालत की तरफ से मंजूर किए गए तलाक को खारिज कर दिया है.
कहा कहा है हाई कोर्ट ने फैसले में
दरअसल हाई कोर्ट में एक महिला ने याचिका दाखिल की थी कि उसके सहमति वापस लेने के बावजूद निचली अदालत ने उसका और उसके पति का तलाक मंजूर कर दिया. हाई कोर्ट में जस्टिस सौमित्र दयाल सिंह और जस्टिस दोनाडी रमेश की बेंच ने इस याचिका को स्वीकार करते हुए सुनवाई की. बेंच ने कहा,'यदि याची यह कह रही है कि उसके सहमति वापस लेने की बात को रिकॉर्ड में दर्ज कर लिया गया था तो अदालत उसे मूल सहमति पर टिके रहने के लिए बाध्य नहीं कर सकती है. निचली अदालत को किसी भी तलाक को पारस्परिक सहमति के आधार पर मंजूरी देकर विवाह तभी भंग करना चाहिए, जब आदेश की तारीख तक पति-पत्नी के बीच वह सहमति बनी रहे. याची को मूल सहमति पर टिके रहने के लिए बाध्य करना न्याय का उपहास उड़ाना है.'
बुलंदशहर का है तलाक का मामला
हाई कोर्ट ने तलाक के जिस फैसले को खारिज किया है, वो बुलंदशहर के मामले में दिया गया था. बुलंदशहर में भारतीय सेना में कार्यरत एक व्यक्ति का विवाह 2 फरवरी, 2006 को हुआ था. पति ने 2007 में पत्नी पर छोड़कर जाने का आरोप लगाते हुए 2008 में तलाक के लिए अदालत में अर्जी दाखिल की थी. महिला ने पिता के घर रहने की बात अपने लिखित बयान में मानी. सेना के अधिकारियों की मध्यस्थता से पति-पत्नी साथ रहने को राजी हो गए. दोनों के दो बच्चे भी हुए. इसके बाद दोनों में फिर अनबन हो गई और वे अलग हो गए.
मध्यस्थता के दौरान पति-पत्नी तलाक पर हुए सहमत
पति-पत्नी के बीच फिर से मध्यस्थता की कोशिश की गई, लेकिन उन्होंने अलग रहने की इच्छा जताई. बाद में मुकदमा लंबित रहने के दौरान पत्नी का विचार बदल गया. उसने अपने खिलाफ लगाए आरोपों से इंकार करते हुए तलाक पर सहमति वापस ले ली. दूसरी बार मध्यस्थता की कोशिश भी फेल हो गई. इसके बाद पति की अर्जी पर महिला के पहले दिए सहमति के बयान को आधार मानकर बुलंदशहर के अपर जिला जज ने साल 2011 में दोनों का तलाक मंजूर कर लिया. इसी फैसले के खिलाफ महिला ने हाई कोर्ट में अर्जी दाखिल की थी.
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