शिक्षण संस्थानों में हिजाब पहन कर जाने को लेकर कर्नाटक की उठापटक पर उच्च न्यायालय के फैसले के बाद इस मसले पर उलझे लोग भले ही अलग-अलग राय दे रहे हों, किन्तु हिजाब के अब तक के हिसाब-किताब ने तमाम लोगों की राजनीति का चश्मा उतार दिया है. दरअसल हिजाब को न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाने की भरपूर कोशिशें हुई हैं. इसे संयोग ही कहेंगे, ऐसी हर कोशिश तर्कों के साथ विफल साबित हुई और अब उच्च न्यायालय के फैसले के बाद धार्मिक मान्यताओं और शैक्षिक आवश्यकताओं के बीच संतुलन पर एक सर्वस्वीकार्य हल निकलता भी दिख रहा है.
कर्नाटक में हिजाब पहनने को लेकर जो खींचतान जनवरी के अंत होते-होते शुरू हुई थी, वह फरवरी की शुरुआत तक विस्तार ले चुकी थी. यह संयोग ही कहा जाएगा कि उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव अभियान भी इसी दौरान गति पकड़ रहा था.
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के लिए दस फरवरी को पहले चरण का मतदान होना था और फरवरी के पहले सप्ताह में ही कर्नाटक में कहीं समर्थन तो कहीं विरोध में प्रदर्शन होने शुरू हो गए थे. कुछ छात्राएं जिद कर हिजाब पहनकर शिक्षण संस्थानों में पहुंच रही थीं और इसकी अनुमति न मिलने पर विरोध स्वरूप पढ़ाई और परीक्षाओं तक का बहिष्कार कर रही थीं.
हिजाब समर्थक छात्राओं के इस फैसले के विरोध में कई संस्थानों में छात्र-छात्राओं ने भगवा दुपट्टे और शॉल ओढ़ कर आना शुरू कर दिया. इस मसले पर साम्प्रदायिक सौहार्द्र तक बिगड़ना शुरू हो गया था और कर्नाटक में कई जगहों से हिंसा होने की भी खबरें सामने आई थीं. इस कारण वहां नौ फरवरी से शिक्षण संस्थानों को बंद करना पड़ गया था.
यही वह समय था जब हिजाब का मसला कर्नाटक से बाहर निकला और सबसे पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव अभियान का हिस्सा बन गया. दरअसल उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले दो चरणों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिन क्षेत्रों में चुनाव होने थे, वहां मुस्लिम मतदाताओं की संख्या तुलनात्मक रूप से अधिक है.
इस दौरान 50 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले रामपुर सहित 30 से 47 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं वाले मुरादाबाद, संभल, बिजनौर, अमरोहा, सहारनपुर, बरेली और शाहजहांपुर जैसे जिलों में भी चुनाव होना था. यही कारण है कि यहां ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने इस मसले को तेजी से उठाया था.
मामला इतना बढ़ा कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का चुनाव अभियान संभाल रही प्रियंका गांधी भी इस मसले पर बोलने का मोह संवरण न कर सकीं. पहले चरण के मतदान से ठीक एक दिन पहले 9 फरवरी को प्रियंका ने ट्वीट किया था, ‘बिकिनी, घूंघट, जींस या हिजाब, यह महिला का अधिकार है वह क्या पहनना चाहती है. भारत के संविधान ने उन्हें यह अधिकार दिया है.’
प्रियंका के इस बयान और ओवैसी की इस मसले को मुस्लिम धार्मिक अस्मिता की कोशिशों से जोड़ने के बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कहां मौन रहने वाले थे? उन्होंने दूसरे चरण के मतदान से ठीक पहले ट्वीट किया, ‘गजवा-ए-हिन्द का सपना देखने वाले मजहबी उन्मादी यह बात गांठ बांध लें, वह रहें या न रहें, भारत शरीयत के हिसाब से नहीं, संविधान के हिसाब से चलेगा.’
इस हिजाबी खींचतान के बावजूद उत्तर प्रदेश की जनता मानो इस मसले से दूर रहने का ही मन बना चुकी थी. जिन असदुद्दीन ओवैसी ने सबसे पहले यह मसला उठाया, उनकी पार्टी एआईएमआईएम को उत्तर प्रदेश में मुसलमानों का नगण्य समर्थन ही मिल सका. उन्हें महज 0.49 प्रतिशत मतों से संतोष करना पड़ा और विधानसभा में शून्य के आंकड़े पर सिमटी.
यही हाल प्रियंका गांधी की पार्टी कांग्रेस का भी रहा. कांग्रेस को महज दो विधायकों से संतोष करना पड़ा और उत्तर प्रदेश में भी महज 2.33 प्रतिशत वोट ही मिल सके. समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने पूरे चुनाव अभियान के दौरान हिजाब विवाद पर चुप्पी साधे रखी. उन्होंने न तो हिजाब के समर्थन में, न विरोध में कोई बयान दिया. इसके बावजूद मुस्लिम बहुल इलाकों में समाजवादी पार्टी को जमकर वोट मिले और एकतरफा वोट मिले. यही नहीं विधानसभा में पहुंचे सभी 34 विधायक समाजवादी पार्टी गठबंधन से जीते हैं.
इन परिणामों से यह तो स्पष्ट है कि हिजाब के हिसाब-किताब में राजनीतिक चश्मा लगाने वालों को यह चश्मा मतदाताओं ने सीधे तौर पर उतार दिया है. जिन लोगों ने हिजाब को लेकर खुलकर बातें कीं, उन्हें वोट नहीं मिले और इस मसले पर मौन रहने वाले अखिलेश वोट पा गए. इससे यह बात भी तय होती है कि हिजाब कोई मुद्दा था ही नहीं. कुछ राजनीतिक दलों ने इसे जबरन मुद्दा बनाने की कोशिश की थी, जिसे मतदाताओं ने खारिज कर दिया.
(डॉ. संजीव कुमार मिश्र राजनीतिक विश्लेषक हैं. यह उनके निजी विचार हैं.)