Hydrogen fuel जितना फायदेमंद उतना ही खतरनाक, जानें भारत में कैसा है इसका भविष्य

आरती राय | Updated:Jun 04, 2022, 08:30 PM IST

वैज्ञानिकों के अनुसार, वायुमंडल में लीक हुई हाइड्रोजन कार्बन की तरह ही जलवायु परिवर्तन का बड़ा कारण बन सकती है.

डीएनए हिंदी: एक जलवायु अनुकूल इंधन के लिए बेताब दुनिया हाइड्रोजन को उम्मीद भरी नजरों से देख रही है. हाइड्रोजन आने वाले समय में इंधन के लिए सबसे कारागार और इको फ्रेंडली विकल्प के तौर पर देखा जा रहा है. हालांकि, कैंब्रिज सहित दुनियाभर के वैज्ञानिकों के मानें तो ये फ्यूल अभी जितना सेफ है, आने वाले समय के लिए उतना ही घातक भी साबित हो सकता है. 

वैज्ञानिकों के अनुसार, वायुमंडल में लीक हुई हाइड्रोजन कार्बन की तरह ही जलवायु परिवर्तन का बड़ा कारण बन सकती है. इस तरह से फ्यूल का ज्यादा इस्तेमाल अगले कुछ दशकों में ग्लोबल वार्मिंग की और भी बढ़ सकता है. इतना ही नहीं, भले ही आज के समय में कार्बन बड़ा खतरा बन गया हो लेकिन यह हाइड्रोजन गैस से होने वाले खतरे से अभी भी कम ही है. 

भारत में क्या है हाइड्रोजन फ्यूल का भविष्य?
बढ़ती फ्यूल की डिमांड और कम सप्लाई की वजह के साथ-साथ प्रदूषण से छुटकारा पाने के लिए भारत सरकार ने भी देश को हाइड्रोजन पावर बनाने का ठान ली है. वहीं, भारत की मिनिस्ट्री ऑफ पावर ने नई ग्रीन हाइड्रोजन पॉलिसी भी बनाई है जिसका देश के उद्योगपतियों ने भी खुलकर स्वागत किया. इस पॉलिसी के तहत 2030 तक 50 लाख टन तक हाइड्रोजन बनाने की योजना है.

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किसे कहते हैं ग्रीन फ्यूल?
बता दें कि हाइड्रोजन वो गैस है जिससे सितारे इंधन प्राप्त करते हैं. गैलेक्सी में हाइड्रोजन को बहुत बड़ी मात्रा में पाया जाता है लेकिन धरती पर यह कांपलेक्स मॉलिक्यूल जैसे पानी या हाइड्रोकार्बन के तौर पर पाई जाती है. हाइड्रोजन खेती जीवाश्म इंधन या नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत (Renewable Energy Source) जैसे सूरज की रोशनी और हवा की तरह ऊर्जा का स्त्रोत नहीं होता है बल्कि यह ऊर्जा को चलाने में इस्तेमाल होता है. यानी इस्तेमाल के लिए इसका उत्पादन किया जा सकता है. हाइड्रोजन जलने के बाद पानी ही बनता है विश्व ऊर्जा परिषद का कहना है कि 1 किलो हाइड्रोजन के जलने से जो ऊर्जा मिलती है वह 1 किलो गैसोलिन के जलने वाली ऊर्जा से 3 गुना ज्यादा होती है. इसके बाद पानी बनता है.

ग्रीन हाइड्रोजन से होंगे क्या फायदे?
जिस तरह से दुनिया में पशुपालन बढ़ रहा है, ठीक उसी तरह से धरती पर फ्यूल और एनर्जी से जुड़े माध्यम कम होते जा रहे हैं. डिमांड ज्यादा और कम सप्लाई की वजह से कीमतें आसमान छू रही हैं. भारत सरकार तेल की बढ़ती खपत और कीमतों को देखते हुए 2030 तक बनने वाली नई पेट्रोल/डीजल कारों को ही अनुमति दे रही है. सोचिए अगर 9 साल बाद पेट्रोल डीजल की कार बाजार में आना बंद हो जाए तो क्या होगा?

बता दें कि भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कच्चा तेल आयातक है और हर साल 100 अरब डॉलर से अधिक मूल्य की अपनी तेल आवश्यकताओं का 84 प्रतिशत आयत करता है. यही वजह है कि अब भारत ने भी तेजी से फ्यूचर फ्यूल के विकल्प को अपनाना शुरू कर दिया है.

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भारत में तमाम गाड़ियां चलाने, ट्रेनें चलाने और बहुत सी फैक्ट्रियों में भी इनसे काम आसानी से हो जाता है लेकिन आज भी स्टील और सीमेंट जैसे उद्योगों में कोयले की जरूरत पड़ रही है. वहीं, एयरलाइन और पानी के जहाजों के लिए लिक्विड फ्यूल की आवश्यकता पड़ रही है. देखा जाए तो सिर्फ सोलर एनर्जी या उससे मिलने वाली बिजली से यह सब नहीं चल पाएंगे. इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि लंबी दूरी की यात्रा रिन्यूएबल एनर्जी पर निर्भर रहते हुए नहीं की जा सकती है. ऐसे में जरूरत पड़ती है हाइड्रोजन की जिसका इस्तेमाल स्टील-सीमेंट इंडस्ट्री समेत एयरलाइंस और पानी के जहाजों में लंबी दूरी के लिए हो सकता है. इसे स्टोर किया जा सकता है और फिर जरूरत के हिसाब से इस्तेमाल भी किया जा सकता है.

ग्रीन हाइड्रोजन के नुकसान भी समझना जरूरी
कहते हैं जो चीज हद से ज्यादा फायदेमंद हो, उसके दोष-परिणाम भी होते हैं. ग्रीन हाइड्रोजन यानी भविष्य का फ्यूल फायदे के साथ-साथ हानिकारक भी है. वहीं, इसके साथ सुरक्षा का भी रिस्क है और अर्थव्यवस्था का भी. बात अगर सुरक्षा की करें तो हाइड्रोजन बहुत अधिक ज्वलनशील होती है. यानी अगर डीजल-पेट्रोल का टैंक लीक हो जाए तो वह जमीन पर फैल जाएगा लेकिन हाइड्रोजन टैंक में एक छोटी सी चिंगारी या लीक का अंजाम भयानक हो सकता है. इसमें इतनी शक्ति होती है कि ये बम की तरह फट सकता है.

इसके अलावा CO₂ की तरह हाइड्रोजन सीधे गर्मी पर असर नहीं डालता है लेकिन लीक होने पर यह रासायनिक प्रतिक्रियाओं की एक ऐसी कड़ी को बंद कर देता है जो हवा को गर्म करती है. वो कड़ी अप्रत्यक्ष ग्रीनहाउस गैस के रूप में कार्य करती है. हांलाकि यह कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में कही अधिक तेजी से वातावरण से बाहर निकलता है जो सदियों तक रहता है. यह कम समय में CO₂ की तुलना में अधिक नुकसान कर सकता है. हाल ही में यूके सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार,  हाइड्रोजन फ्यूल की वजह से होने वाला असर 20 सालो में, कार्बन डाइऑक्साइड की समान मात्रा की ग्लोबल वार्मिंग क्षमता का 33 गुना है.  

दुनिया भर में हाइड्रोजन की वार्मिंग क्षमता पहले कभी कोई समस्या नहीं थी, क्योंकि इसका उपयोग काफी हद तक तेल रिफाइनरियों और रासायनिक या उर्वरक संयंत्रों तक सीमित था लेकिन अब दुनिया भर की सरकारें हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था बनाने के लिए अरबों का निवेश कर रही हैं. गैस को कई ऐसे उद्योगों को डेकार्बोनाइज करने के एकमात्र विकल्प के रूप में देख रहे हैं. 

इसे लेकर यूके के अध्ययन के प्रमुख लेखक और नेशनल सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक साइंस रिसर्च के साइंटिस्ट निकोला वारविक ने कहा, 'कार्बन डाइऑक्साइड के बहुत सारे उत्सर्जन को बचाने के लिए हाइड्रोजन का उपयोग करने की काफी संभावनाएं हैं लेकिन हाइड्रोजन रिसाव दर को कम रखना वास्तव में महत्वपूर्ण है.'  

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पहले भी हाइड्रोजन की वजह से हो चुके हैं बड़े हादसे 
सन 1937 में एक बड़े एयरशिप हिंडेनबर्ग में आग लग गई थी जिसकी वजह से उसमें सवार 97 लोगों में से 36 लोगों की जान चली गई. उसके बाद एयरशिप को असुरक्षित कहा जाने लगा और इसी वजह से एयरशिप इंडस्ट्री डूब गई.

साल 2011 में जापान में भूकंप आया और सूनामी आई. इसकी वजह से फुकुशिमा न्यूक्लियर पावर स्टेशन में हाइड्रोजन की वजह से एक बड़ा धमाका हुआ जिससे रेडियोएक्टिव लीकेज हुआ, लाखों लोगों को वहां से हटाया गया और अभी भी उसके असर देखने को मिलते हैं.

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