शास्त्र समुद्र को सरित्पति मानता है इसलिए नदियों का सागर में मिलना समझ में आता है. काका कालेलकर (Kaka Kalelkar) ने नदियों और समुद्र के मिलन का अद्भुत वर्णन किया है. ज्वार-भाटा के बारे में उन्होंने लिखा है कि जब समुद्र में ज्वार आता है और उसके पानी का स्तर बढ़ता है तब लगता है कि समुद्र नदी की ओर तेजी से बढ़ता है, उसका आलिंगन करने के लिए. भाटा के समय यही काम नदी करती है और वह दौड़ पड़ती है समुद्र की ओर जब उसे अपना प्रेम दर्शाना होता है. दोनों की यही लीला देख कर रसिक मनीषियों ने उन्हें पति-पत्नी के रूप में देखा हो.
इस परिभाषा में एक पेच है. पति-पत्नी के इस रिश्ते में जो ब्रह्मपुत्र(Brahmaputra), सिंधु (Sindh) और सोनभद्र (Sonbhadra) जैसे नद हैं उनके और समुद्र से संगम को किस तरह से पारिभाषित करेंगे, यह मेरी समझ से परे है. यहां तो दोनों पक्ष इस परिभाषा के अनुसार समलिंगी हैं. उनमें पिता-पुत्र या भाई-भाई का ही संबंध हो सकता है. प्रेम की प्रगाढ़ता इन सम्बन्धों में उतनी तीव्र होती है पर यह प्रगाढ़ता दैनिक नहीं होती. लम्बे समय तक विछोह के बाद ही ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं.
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कुछ नदियां कैसे कहलाईं नद?
कुछ 'नदियां' नद क्यों कही जाने लगीं. मुझे इसका उत्तर बहुत तलाशने पर भी नहीं मिला. अगर इन तीनों नदों का वर्गीकरण उनके आकार पर हुआ है तो बंगाल की दामोदर, अजय या रूपनारायण आदि 'नद' कैसे हो गए जबकि गोदावरी और कृष्णा जैसी नदियां नदी ही रह गईं. उनका आकार तो दामोदर, अजय या रूपनारायण से किसी भी मायने में कम नहीं है. ब्रह्मपुत्र और सिंधु तो समुद्र पहुंचने तक छितरा कर नदी के रूप में आ जाते हैं पर शोणभद्र (सोनभद्र) का क्या करें? वह तो उलटे गंगा के पास आता है, समुद्र से उसका कोई सीधा वास्ता भी नहीं पड़ता.
पेड़ के तने से होता है पुष्करिणी का विवाह!
यही विभ्रम पुष्कर और पुष्करिणी के बीच भी है. कौन सा स्थिर जलस्रोत किस सीमा तक ताल रहेगा और वह कितना सिकुड़े कि तलैया हो जाए? यह कौन और किस आधार पर तय करता है. पुष्करिणी का अगर विवाह न हो तो उसके पानी से यहां तक कि उसके किनारे, कोई मंगल कार्य सम्पन्न नहीं होता है. बहुत से स्थानों पर पुष्करिणी का विवाह साल के पेड़ के तने से होता है और इसमें विवाह के सारे कर्मकाण्ड का पालन होता है.
कैसे होती है विवाहित नदियों की पहचान?
षुष्करिणी के बीच खड़ा हुआ खम्भा ही उसके विवाहिता होने का सूचक होता है. मिथिला में पुष्करिणी के विवाह का बड़ा प्रचलन है. उस क्षेत्र का मालिक पिता की भूमिका में आकर बेटी की तरह उसका विवाह करता है. भोज-भात होता है, नाते-रिश्ते वाले बुलाते जाते हैं. वह सब कुछ होता है जो एक बेटी के ब्याह में होता है. तभी वह पुष्करिणी मंगल कार्यों के लिये उपयुक्त मानी जाती है. यही स्थिति कुओं की भी है. उसका भी विधान है. उनका भी विवाह होता है मगर क्यों होता है इसका उत्तर मुझे अभी तक नहीं मिला.
क्यों होती है नदियों की शादी?
मैंने कई विद्वानों से इस समस्या पर चर्चा की है पर कहीं से संतोषजनक उत्तर नहीं मिल पाता है. लोग विवाह की विधि समझाने लगते हैं पर यह विवाह होता क्यों है उसे बताने में उन्हें पसीने छूटने लगते हैं. बड़ा विभेद है इस विषय को लेकर. मैंने बहुत से विद्वानों से जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया मगर कोई भी अधिकारपूर्वक बता नहीं पाया.
वैसे घटनाक्रम ठीक है कि ताल का पानी नदी में जाता है और नदी का पानी समुद्र में जाता है? समुद्र का पानी कहां जाता है, यह कोई नहीं जानता. इस पृष्ठभूमि पर एक बड़ा मशहूर फिल्मी गाना भी है. गाने के शुरुआती बोल हैं ओह रे ताल मिले नदी के जल में. यह गाना फ़िल्म अनोखी रात में संजीव कुमार और ज़ाहिदा हुसैन पर फिल्माया गया है. शुष्क वैज्ञानिक से पूछिए तो वह जल-चक्र के बारे में समझाने लगेगा. वह तो आंसू का भी टेस्ट करके उसे H2O बता देगा और यह भी बता देगा कि इसमें कौन-कौन सी अशुद्धियां मिली हैं और कितनी मिली हैं.
भारतेन्दु हरिश्चंद्र ठीक ही कह गये थे, 'जो पढ़तव्यम् सो मरतव्यम् जो न पढ़तव्यम् सो भी मरतव्यम्. तब फिर दन्तकटाकटेति किम् कर्तव्यम्?'
(दिनेश मिश्र प्रसिद्ध पर्यावरणविद हैं.)
(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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