Azamgarh Election: क्यों बिखर रहे हैं समाजवाद के गढ़, बीजेपी से हार के बाद कुछ सीखेगी पार्टी?

Written By डीएनए हिंदी वेब डेस्क | Updated: Jun 27, 2022, 01:50 PM IST

धर्मेंद्र यावद और दिनेश लाल यादव

ऐसा क्या हुआ कि 3 साल पहले जिस आजमगढ़ की सीट पर अखिलेश यादव ने ढाई लाख से ज्यादा वोटों से जीत हासिल की थी, वहीं से सपा को हार का मुंह देखना पड़ रहा.

डीएनए हिन्दी: आजमगढ़ (Azamgarh Election) का चुनाव परिणाम आ गया है. अपने ही गढ़ में समाजवादी पार्टी हार गई है. यहां से बीजेपी के दिनेश लाल यादव उर्फ निरहुआ (Dinesh Lal Yadav Nirahua) ने करीबी मुकाबले में सपा के धर्मेंद्र यादव (Dharmendra Yadav) को पराजित किया है. बीएसपी कैंडिडेट गुड्डू जमाली तीसरे स्थान पर रहे. 

अब सवाल उठता है कि ऐसा क्या हुआ कि तीन साल पहले पीएम मोदी के प्रचंड लहर के बावजूद जिस आजमगढ़ की सीट पर सपा के मुखिया अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ने ढाई लाख से ज्यादा वोटों से जीत हासिल की थी, वहीं से सपा को हार का मुंह देखना पड़ रहा है.

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इस हार के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन एक बड़ा कारण है, चुनाव के बाद से आजमगढ़ में सपा सांसद अखिलेश यादव की सक्रियता का कम होना. दूसरी तरफ बड़ी हार के बावजूद बीजेपी कैंडिडेट दिनेश लाल यादव निरहुआ ने हिम्मत नहीं हारी. वह बराबर आजमगढ़ आते रहे. लोगों से मिलते रहे. पार्टी कार्यकर्ताओं के सुख-दुख का हिस्सा बनते रहे. परिणाम सामने रहा. बीजेपी को जीत मिली.

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इसी साल हुए विधानसभा चुनाव में आजमगढ़ जिले के 10 में से 10 सीटों पर बीजेपी को हार मिली थी. ऐसे में सभी सियासी पंडितों का मनना था कि आजमगढ़ उपचुनाव में समाजवादी पार्टी को ही जीत मिलेगी, भले ही जीत का अंतर कम हो. उम्मीद्वार भी अखिलेश यादव के चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव थे. यानी सपा की तरफ से मजबूत कैंडिडेट उतारा गया, लेकिन चुनाव उस मजबूती के साथ नहीं लड़ा गया. सपा ओवर कॉन्फिडेंस में थी. उसे लगता था कि आजमगढ़ तो हम जीत ही जाएंगे. चुनाव प्रचार के दौरान सपा मुखिया अखिलेश यादव का एक बार भी दौरा नहीं हुआ. 

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दूसरी तरफ बीजेपी पूरी ताकत के साथ चुनाव लड़ी. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रचार की कमान खुद संभाली. बीजेपी के कई स्टार प्रचारक आजमगढ़ उतरे. निरहुआ ने धुंआधार प्रचार किया. घर-घर लोगों से संपर्क किया और उसी का परिणाम रहा कि यादव और मुस्लिम बहुल इलाके से बीजेपी ने बाजी मार ली. 

इस जीत में निरहुआ का मेहनत काफी काम आया. 2019 में हार  के बाद से ही निरहुआ ने क्षेत्र में अपनी सक्रियता बनाए रखी. निरहुआ ने कुछ वैसा ही किया जैसा 2014 के चुनाव में अमेठी में हार के बाद स्मृति ईरानी ने किया था. राहुल गांधी से चुनाव हारने के बावजूद स्मृति ईरानी ने अमेठी का साथ नहीं छोड़ा.  वह लगातार वहां सक्रिय रहीं. वह लोगों के हर दुख-दर्द में दिखती थीं. वहीं राहुल गांधी नदारद दिखते थे. जिसका परिणाम रहा कि 2019 में कांग्रेस के गढ़ में उसी के मुखिया को हार का सामना करना पड़ा था. अब देखना है कि बीजेपी के इस मॉडल से विपक्षी पार्टियां कितना सीखती हैं.

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