डीएनए हिंदी: बेजुबान जानवरों की भाषा समझना सभी के लिए आसान नहीं होता और जानवर अगर सूअर हो तो बात ही क्या ? उनकी आवाज और इशारे तो शायद उन्हें भी समझ नहीं आते होंगे जो इन्हें पालते होंगे. यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि जब सूअर चिल्लाता है तो क्या महसूस करता है. ऐसे में सूअरों की भाषा समझने (Pigs Language Decode) के लिए वैज्ञानिकों ने काफी रिसर्च की और आखिरकार इसका एक तरीका खोज निकाला है.
WION की रिपोर्ट के मुताबिक, डेनमार्क, स्विट्जरलैंड, फ्रांस, जर्मनी, नॉर्वे और चेक गणराज्य के वैज्ञानिकों की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने सूअरों की भाषा को डिकोड (Pigs Language Decode) करने का एक तरीका खोजा है. साइंटिफिक रिपोर्ट्स में इस महीने की शुरुआत में प्रकाशित शोध में, वैज्ञानिकों ने अलग-अलग हालातों में सूअरों की आवाजों को रिकॉर्ड करके उनकी भावनाओं को पकड़ने में कामयाबी हासिल की है.
411 सूअरों पर हुई रिसर्च
शोधकर्ताओं ने 411 सूअरों पर शोध किया और उनकी 7,414 आवाजों का इस्तेमाल करते हुए एक एल्गोरिदम डेवलप किया. इससे यह समझने में मदद मिली कि सूअर पॉजिटिव और निगेटिव भावना या बीच में कुछ अनुभव कर रहे थे. यह रिकॉर्डिंग पॉजिटिव और निगेटिव दोनों तरह के हालातों में रिकॉर्ड की गई थी. इस दौरान उनके पैदा होने से मरने तक निगरानी की गई. पॉजिटिव सिचुएशन में मादा सूअर के अपने बच्चों को चूमना और अलग होने के बाद परिवार से मिलना शामिल था. जबकि निगेटिव स्थितियों में दूर होना, सुअर के बच्चों में लड़ाई, बधियाकरण और उनको मारना शामिल था.
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शोध के लीडर और कोपेनहेगन यूनिवर्सिटी के जीवविज्ञान विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर एलोडी ब्रीफर कहते हैं कि इस शोध से यह पता चलता है कि जानवरों की आवाज में उनकी भावनाओं की गहराईयां होती हैं. इससे यह साबित होता है कि सूअरों की भावनाओं को समझने के लिए एक एल्गोरिदम का इस्तेमाल किया जा सकता है जिससे पशु कल्याण की दिशा में काफी मदद मिलेगी.
7000 से ज्यादा ऑडियो रिकॉर्डिंग का विश्लेषण करने के बाद यह देखने के लिए कि किन भावनाओं से गुजरने के दौरान आवाजों में कोई पैटर्न था, शोधकर्ताओं ने निगेटिव स्थितियों में जोर की आवाज, चीखना आदि पाया. आवाज की फाइलों के और गहन विश्लेषण के बाद शोधकर्ताओं ने एक नया पैटर्न पाया जिससे पता चला कि सूअरों ने कुछ स्थितियों में और भी अधिक विस्तार से क्या अनुभव किया. यह शोध कोपेनहेगन यूनिवर्सिटी (University of Copenhagen) और फ्रेंच नेशनल रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर एग्रीकल्चर, फूड एंड एनवायरनमेंट के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया था.
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