डीएनए हिंदी: अणु बम से देश-दुनिया को जीता जा सकता हो भले, मगर वह संस्कृति नहीं गढ़ सकता. संस्कृति बनाने का काम महाकाव्य से ही मुमकिन है, साहित्य से ही संभव है. ये बातें मराठी साहित्यकार शरणकुमार लिंबाले ने हंस साहित्योत्सव के उद्घाटन समारोह के मौके पर कहीं. तीन दिनी यह आयोजन दिल्ली के हैबिटैट सेंटर के एएमफी थियेटर में किया जा रहा है.
लिंबाले ने कहा कि 'हंस' पत्रिका ने दलित साहित्य के जरिए दलित विमर्श को दिशा दिया है. मेरे लिए लिखने का मतलब अपनी आजादी सेलिब्रेट करना है. मेरा साहित्य दलित आंदोलन का हिस्सा है. पहले की स्थितियां बदली हैं तभी मैं यहां उद्घाटन कर रहा.
लिखना बड़ी चुनौती
उद्घाटन सत्र में प्रख्यात साहित्यकार मृदुला गर्ग ने कहा कि सपने हैं तभी आप संघर्ष करते हैं. यानी सपने और संघर्ष विलोम नहीं हैं बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं. इन सपने और संघर्षों को लेकर लिखना एक तरह का सृजन है.
जब कोई तंत्र स्वतंत्रता का हनन कर रहा हो ऐसे दौर में साहित्य लिखना बड़ी चुनौती. है.
हम गांधी के वंशज
इस मौके पर 91 वर्षीय कवि आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि आजादी, स्वतंत्रता और निर्भीकता की जहां बात हो रही हो उसका हिस्सा बनना सुखद लगता है. उन्होंने कहा कि यह विमर्शों का दौर है. मनुस्मृति के सम्मुख डॉ. अंबेडकर का संविधान लिखना कुछ लोगों के लिए चौकाने वाली घटना है. समझौता करना तो अपने आधारभूत मूल्यों को त्यागना है. मैं समन्वय की बात करता हूं जिससे अंतर्संबंध बनते हैं. उन्होंने सवाल पूछा कि इस बहुसंख्यक समाज में हम अल्पसंख्यकों की कितनी चिंता करते हैं. उन्होंने याद दिलाया कि कई लोग शहीद हुए हैं, लेकिन वे सभी अपने लोगों के लिए शहीद हुए. एकमात्र गांधी हैं जो दूसरों की चिंता करते हुए शहीद हुए. हम गांधी के वंशज हैं, उनके अनुयायी हैं, क्या हमने अल्पसंख्यकों के लिए कोई आंदोलन किया?
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हिंदी भाषी समाज सबसे हिंसक
इस उद्घाटन सत्र के अंतिम वक्ता के रूप में मंच पर मौजूद थे कवि, आलोचक और संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी. उन्होंने कहा कि हिंदी भाषी समाज अन्य भाषी समाज से ज्यादा हिंसक है. इस समाज में हत्या का साधारणीकरण किया जा चुका है यानी यह प्रवृति पूरे हिंदी प्रदेश में फैल गई है. स्त्रियों और बच्चों के प्रति इस समाज ने खूब हिंसा की है. हिंदी भाषियों के बीच झूठ इस कदर पसर चुका है कि हम सच का सामना नहीं कर सकते. जबकि सच कहने की कोशिश करना ही हिंदी समाज का प्रतिपक्ष हो सकता है. यह दौर विस्मृति फैलाने का सुनियोजित अभियान है. जैसे इजराइल अब खुद को विक्टिम बता रहा है वैसे ही हिंदू समाज भी खुद को विक्टिम बता रहा है. इस व्यवस्था का सबसे पहला शिकार हिंदी होगी. ऐसे दौर में हिंदी लेखकों को अपनी जिम्मेदारी का अहसास होना चाहिए.
हंस की भूमिका
तीन दिनी साहित्योत्सव के उद्घाटन सत्र में हंस की प्रबंध निदेशक रचना यादव ने सभी अतिथियों और वक्ताओं का स्वागत किया. उसके बाद हंस के संपादक संजय सहाय ने राजेंद्र यादव को याद किया. उन्होंने कहा कि राजेंद्र जी हमेशा जीवित रहेंगे. उन्होंने वंचित समुदाय को मुख्यधारा में लाने का प्रयास किया. हंस पत्रिका की सबसे बड़ी भूमिका यथास्थितिवाद को तोड़ने की रही है. आज के पूरे दिन के कार्यक्रम का संचालन सुषमा गुप्ता ने किया.
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