अमन कौशिक ने हाल की आई हुई कन्नड़ फिल्म हम सभी चार्ली हैं के हवाले से ज़िंदगी पर एक मोहक गद्य लिखा है.
अमन कौशिक
हाल ही में आई कन्नड़ फ़िल्म 777 चार्ली, इंसान और जानवर के बीच के अनकंडीशनल लव को दर्शाती है, मगर यह फ़िल्म और भी बहुत कुछ कहना चाहती है, आपको अंदर से झगझोड़ कर रख देना चाहती है, कि हम सब अपने आप से एक सवाल पूछें कि क्या हम भी चार्ली हैं?
लाइफ इज़ सफरिंग. भगवान बुद्ध ने यह बात शायद इसीलिए कही थी क्योंकि उनका मानना था कि इच्छा यानी डिज़ायर इज़ डी रुट कॉज ऑफ सॉरो, मतलब की इच्छा ही दुःख का कारण है. मगर हर कोई इस भागती दुनिया में पीपल के पेड़ के नीचे इनलाइटेन तो नहीं हो सकता. भाग दौड़ भरी ज़िन्दगी में इच्छाओं का होना ही हमें पूरे तरीके से मशीन होने से बचा कर रखता है.
हमें बचपन से यही सिखाया जाता है कि टेक मिनिमम रिस्क इन लाइफ. प्रैक्टिकल एडुकेशन की स्कारसिटी के कारण ही आज हमारा यह हाल है कि हम जीवन में चुनौतियों से घबराते हैं. पचास बच्चों के क्लास में सभी के टैलेंट को जांचने के लिए एक ही पैमाना. सवालों से भरा एक पन्ना यह सर्टिफिकेट दे जाता है कि कौन सक्सेसफुल होगा और कौन फेलियर.
मर जाने की बात किससे कही जा सकती है?
पाश ने कहा था कि सबसे बुरा होता है सपनों का मर जाना. हम सभी बचपन से कोई ना कोई सपने बुनते चले आते हैं, बिना यह सोचे कि कल किसने देखा है? उम्मीद पर दुनिया कायम है जैसे तसल्ली से भरे तराने गाये जाते हैं, मगर क्या यह बात कोई उस व्यक्ति की आंखों में आंखें डाल कर कह सकता है जो जीवन के हर एक पल के लिए रोज लड़ रहा है.
उमर खान नाम था उसका. दिल्ली यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन करने के बाद औरों की तरह उसकी भी सीमित तमन्ना थी कि बस एक छोटी सी नौकरी लग जाये, ताकि परिवार की गरीबी थोड़ी सी दूर हो पाए. मगर उमर के उम्र को ब्लड कैंसर की नज़र लग गई. उमर सिर्फ 24 साल का था. वो तो बेचारा विनय पाठक जी की तरह मरने से पहले दसविदानियाँ भी नहीं कह सका, क्योंकि इच्छाओं को पूरा करने के लिए भी पैसे चाहिए होते हैं.
फ़िल्म 777 चार्ली जानवरों की दुनिया में हो रही अनएथिकल ब्रीडिंग और उससे जुड़ी समस्याओं को जनता के सामने लाने की कोशिश करती है. मगर हमें थोड़ा रुक कर यह सोचना चाहिए कि क्या हमारा जन्म इस धरती पर सारे एथिक्स को ध्यान में रख कर किया गया है? कुत्तों की दुनिया में एक टर्मिनोलॉजी होती है, जिसे हम पप्पी मिलर कहते हैं. मतलब वैसे पप्पी ब्रीडर जो महज प्रॉफिट कमाने के चक्कर में एक ही कुतिया से पूरे साल ब्रीडिंग कराते हैं. ताकि मार्किट में डिमांड एंड सप्लाई का खेल चलता रहे. कुत्ता सभी को पालना होता है, और वो भी विदेशी ब्रीड का, और वो भी कमसेकम दाम में. तभी मार्किट में आपको बारह हजार का भी लैब्राडोर कुत्ता मिल जाएगा और अस्सी हजार का भी. फ़र्क सिर्फ इतना रहेगा कि एक बासी रोटी खायेगा और दूसरा रोज गरम गरम बोटी तोड़ेगा. सांस तो दोनों की ही समान चलेगी, मगर बासी रोटी खाने वाला ही चार्ली कहलायेगा, जिसका दुःख उसका खुद का नहीं, बल्कि सिस्टम का दुःख दिया हुआ होता है. कुत्ते का बच्चा हो या इंसान का बच्चा, वो कह कर नहीं आता आपके घर कि आप उसे पालो. यह सौ प्रतिशत सिर्फ और सिर्फ आपकी जिम्मेदारी होती है कि आप उसे कैसा माहौल दे रहे हैं.
मगर क्या हममें इस बात की हिम्मत है कि हम उन सारे बाप को बेबी मिलर कह सकें? जो बिना सोचे समझे पहले तो गाजे बाजे के साथ शादी करते हैं, और उसके बाद अन प्लांड बेबी को इस दुनिया में लाते ही कहते हैं कि मेरा बच्चा इंजीनियर बनेगा.
रिक्त नाम है उसका. बारहवीं के बाद डॉक्टर बनना चाहता था. कई बार ट्राय भी किया की सरकारी कॉलेज मिल जाये, क्योंकि उसे पता था कि उसके पिता की हैसियत नहीं कि उसे प्राइवेट मेडिकल कॉलेज में एडमिशन दिलवा सकें. रिक्त आज गुमनामी की जीवन जीता है. इस रिक्तस्थान में आप किसी का भी नाम भर सकते हैं, अपना भी.
हम हर बार झूठी तसल्ली ही तो देते हैं
भारत सरकार की रिपोर्ट कहती है कि भारत में अनवांटेड गर्ल चाइल्ड की संख्या बहुत ही ज्यादा है. मतलब दिल में चाहत बेटे की, मगर बेटी के आने पर मन मसोस कर कहना कि लक्ष्मी आई है. उसी लक्ष्मी के पैदा लेते ही उसकी शादी के लिए पैसे जुटाए जाते हैं, लाखों लाख एक दिन में खर्च हो जाता है, बारह तरह के पकवान होते हैं, मगर जिसकी शादी हो रही होती हैं, उसके पोषण की किसी को चिंता नहीं होती है. शारीरिक पोषण तो फिर भी मरमुरा कर इंसान पूरा करता है, क्योंकि शादी से पहले एक बाजार सजता है. जितनी सुंदर लड़की, उतना मोटा असामी. यानी पैसे वाले ससुराल की गारंटी. इन सारे जद्दोजहद में मानसिक पोषण और मेन्टल हेल्थ पर बात कहीं दूर छूट जाती है.
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लड़को का हाल तो और भी बुरा है. बचपन से ही इस बात को दिमाग में भरा जाता है कि बेटा पहले इंजीनियरिंग करना, और उसके बाद जो मन में आये वो करना. ये एक ऐसा ट्रैप होता जिसमें बेमन से फंस जाने पर मन का कुछ बचता ही नहीं है. हर साल भारत के बिलो एवरेज इंजीनियरिंग कॉलेज से लाखों बिलो एवरेज इंजीनियर निकलते हैं. कंपनी भी मौज में आ जाती है कि उन्हें बारह हजार महीने पर मजदूरों की फौज मिल रही है. और इन सारे समस्या का सूत्रधार वही बेबी मिलर होता है, जिसे हम फादर्स डे पर झूठी तसल्ली देते हैं कि वें इस दुनिया के सबसे कूल डैड हैं.
भारत सरकार भोपू लेकर पूरी दुनिया में यह कहती थकती नहीं है कि भारत के पास डेमोग्राफिक डिविडेंड हैं. मगर जब भारत का युवा सरकारी नौकरी की तलाश में ट्रेन को जलाने लगता है, तब हमें यह सोचने की जरूरत होती है कि कहीं डेमोग्राफिक डिविडेंड, डेमोग्राफिक डेंजर तो नहीं बन रहा है?
रह सह कर, मर जी कर, जैसे तैसे इन्ही बारह हजारी मजदूरों में से जब कोई मिडिल क्लास लेवल में पहुंचता है, तो फिर से वही गलती करता है, जो गलती कभी इस चार्ली के पप्पी मिलर ने की थी, और इसी तरह अनवरत समाज में चार्ली पैदा होते चले जाते हैं.
अतः हम सभी चार्ली हैं.
(दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातक अमन कौशिक घूमना और लिखना चाहते हैं. अपनी चाहना के सद्यः होने के मुन्तज़िर अमन फिलहाल सिविल सर्विसेज की तैयारी में व्यस्त हैं. )
(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)