Navratri 2022: अल्मोड़ा के Nanda Devi Temple की है अनूठी महिमा, जानते हैं आप

कुलदीप पंवार | Updated:Sep 29, 2022, 06:35 AM IST

नंदादेवी माता पार्वती की बहन और पर्वतराज दक्ष की पुत्री हैं. उनके नाम पर ही भारत के सबसे ऊंचे पर्वत शिखर का नाम है.

डीएनए हिंदी: शारदीय नवरात्र के दौरान देश भर में मौजूद माता के अनूठे मंदिरों के बारे में भी आपको जानकारी लेनी चाहिए. यहां हम आपको उत्तराखंड (Uttarakhand) के अल्मोड़ा (Almora) में मौजूद मां नंदादेवी के मंदिर (Maa Nanda Devi Temple) के बारे में बताएंगे, जिनके नाम पर भारत के सबसे ऊंचे पर्वत शिखर को नंदा चोटी कहकर पुकारा जाता है. यह मंदिर ऐतिहासिक ही नहीं है, बल्कि इससे कई तरह की मान्यताएं भी जुड़ी हुई हैं. साथ ही यहां हर साल लगने वाला मेला और शोभायात्रा भी अपनेआप में अनूठी है.

7816 मीटर की ऊंचाई पर है मंदिर

नंदा देवी मंदिर उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल में मशहूर टूरिस्ट स्पॉट अल्मोड़ा में मौजूद है, जो समुद्र तल से करीब 7816 मीटर ऊंचाई पर है. इस मंदिर में भगवान शिव की पत्नी माता पार्वती की बहन और पर्वतराज दक्ष प्रजापति की दूसरी पुत्री मां नंदा देवी विराजमान हैं, जो नव दुर्गा का ही एक रूप हैं. कुछ लोग नंदा और पार्वती को एक ही मानते हैं. 

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कुमाऊं अंचल में मां नंदा को "बुराई की विनाशक" के तौर पर पूजा जाता है. साथ ही वे कुमाऊं के शासक रहे चंद वंशी राजाओं की भी कुलदेवी रही हैं. आज भी चंद वंशी राजाओं के वंशज ही नंदा अष्टमी पर लगने वाले सालाना मेले में पूजन से जुड़े अधिकार निभाते हैं.

1,000 साल पुराना इतिहास, 1670 में अल्मोड़ा आईं नंदा

इस मंदिर में मौजूद नंदा देवी की मूर्ति का इतिहास 1,000 साल से भी ज्यादा पुराना माना जाता है. हालांकि अल्मोड़ा में मां नंदा की मूर्ति सन् 1670 में आई थी, जब चंद वंश के तत्कालीन राजा नरेश बाज बहादुर उन्हें बाधानकोट किले से अल्मोड़ा लेकर आए थे. यहां मल्ला महल (मौजूदा कलक्ट्रेट) में मां नंदा का मंदिर बनाकर उन्हें स्थापित किया गया था.

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मां नंदा के अल्मोड़ा आने से जुड़ी एक मान्यता यह भी है कि राजा नरेश बाज बेहद वीर थे, लेकिन एक युद्ध में उन्हें जीत नहीं मिल पा रही थी. तब उन्होंने प्रण लिया था कि यदि उन्हें जीत मिली तो वे मां नंदा को अपनी कुल देवी के तौर पर स्थापित करेंगे. इसके बाद वे जीत गए और मां नंदा को अल्मोड़ा लाया गया.

अंग्रेज कमिश्नर ने हटवाई मूर्ति, फिर माफी मांगकर बनवाया मंदिर

चंद राजाओं के शासन के बाद नेपाली गोरखा शासकों ने आक्रमण कर अल्मोड़ा क्षेत्र पर कब्जा कर लिया. इस दौरान भी मां नंदा मल्ला महल में हीं मौजूद रहीं. गोरखा शासन के बाद यह क्षेत्र ब्रिटिश शासन के अधीन आ गया. साल 1815 में अंग्रेज कमिश्नर ट्रेल यहां तैनात थे. बताया जाता है कि ट्रेल ने मां की मूर्ति को मल्ला महल से हटवाकर उद्योत चंद्रेश्वर में रखवा दिया था. लोगों के बहुत कहने पर भी नंदा को वापस मल्ला महल में स्थापित नहीं किया गया और वहां कलक्ट्रेट बना दी गई.

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मान्यता है कि साल 1832 में ट्रेल पिंडारी-मिलम ग्लेशियर की यात्रा पर थे, उसी दौरान नंदा शिखर को देखते ही उनकी आंखों की रोशनी अचानक धुंधली हो गई. तब स्थानीय पंडितों ने इसे देवी प्रको बताकर नंदा देवी का मंदिर निर्मित कराने का सुझाव दिया. कमिश्नर ने मौजूदा मंदिर बनवाकर मां की मूर्ति उसमें स्थापित कराई, जिसके बाद उनकी आंखों की रोशनी पहले जैसी हो गई. 

इस मंदिर की शोभा पत्थर का मुकुट और दीवारों पर बनी पत्थर की कलाकृतियां बढ़ाते हैं, जिन पर एक पर्व विशेष के दौरान हर साल महापूजा के दिन सूर्य किरण पहले मां के चरण, फिर हृदय और फिर मुकुट पर पड़कर विलीन हो जाती है. इसे अद्भुत वास्तु विज्ञान का नमूना माना जाता है.

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नंदा देवी मेले और यात्रा की विदेशों तक है धूम

हर साल भाद्र मास (महीने) की अष्टमी (नंदा अष्टमी) के दिन नंदा देवी का मेला आयोजित किया जाता है. इस मेले और इसमें निकाली जाने वाली मां की शोभा यात्रा की धूम विदेशों तक है. पंचमी तिथि से प्रारम्भ मेले के अवसर पर दो भव्य देवी प्रतिमाएं बनायी जाती हैं. ये प्रतिमायें कदली स्तम्भ से बनती हैं.

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षष्ठी के दिन पुजारी गोधूली के समय चन्दन, अक्षत एवम् पूजन का सामान तथा लाल एवं श्वेत वस्त्र लेकर केले के झुरमुटों के पास जाते हैं. धूप-दीप जलाकर पूजन के बाद अक्षत मुट्ठी में लेकर कदली स्तम्भ की और फेंके जाते हैं, जो स्तम्भ पहले हिलता है. उसे देवी नन्दा बनाया जाता है. जो इसके बाद हिलता है, उससे देवी सुनन्दा तथा तीसरे स्तम्भ से देवी शक्तियों के हाथ पैर बनाये जाते हैं.

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सप्तमी के दिन झुंड से स्तम्भों को काटकर लाया जाता है. मुख्य मेला अष्टमी को प्रारंभ होता है. नवमी के दिन मां नंदा और सुनंदा को डोली में बिठाकर अल्मोड़ा और आसपास के क्षेत्रों में शोभायात्रा निकाली जाती है. इस शोभायात्रा में शामिल होने के लिए भारी भीड़ जुटती है और विदेशों तक से लोग आते हैं. मेले के दौरान रात में जागर आयोजित किए जाते हैं, जिनमें देवी की महिमा सुनाई जाती है.

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