सावन का महीने की शुरुआत आज (16 जुलाई) से हो रही है, जब उत्तराखंड में हरेला उत्सव मनाया जाता है. धन और खुशहाली का प्रतीक यह पारंपरिक उत्सव का अर्थ है "हरियाली का दिन", जो चंद्र कैलेंडर के पांचवें महीने में मनाया जाता है. यह भगवान शिव और देवी पार्वती को समर्पित होता है.
देहरादून के सुनीत द्विवेदी इस त्योहार के बारे में बताते हैं कि ये त्योहार मुख्य रूप से कुमाऊं समुदाय के लिए बेहद खास होता है. सावन की शुरुआत से पहले, हरेला के बीज बोने के लिए एक डिकोरी (पवित्र बर्तन) चुना जाता है. नौ दिनों तक, गेहूं, जौ और अन्य बीजों को रोजाना पानी देकर पोषित किया जाता है. दसवें दिन, हरेला काटा जाता है, जो खुशी और कृषि समृद्धि का प्रतीक है.
अगर पौराणिक मान्यताओं को माने तो हर वर्ष हरेला पर्व भगवान शिव और देवी पार्वती की शुभ विवाह वर्षगांठ पर मनाया जाता है. कुमाऊं में माना जाता है कि हरेला मनाने से घर में सुख-समृद्धि और शांति आती है. वहीं, पर्यावरण और मानव के बीच मजबूत सेतु का काम भी यह हरेला पर्व करता है.
घरों में मिट्टी से शिव-पार्वती और गणेश-कार्तिकेय के प्रतीक बनाए जाते हैं. हरेले के साथ-साथ भगवान शिव के पूरे परिवार की पूजा की जाती है. हरेला काटकर सबसे पहले इष्टदेव व अन्य देवताओं को अर्पित करने के बाद परिवार के सदस्यों को हरेला पूजा जाता है.
हरेला के उत्सव को लेकर यहां हर कोई उत्साहित रहता है. उत्तराखंड सरकार पूरे प्रदेश में 16 जुलाई से पौधरोपण अभियान शुरू कर रही है. जो एक माह तक चलेगा. इस बार विभिन्न महकमों के जरिए लाखों की संख्या में पौधे लगाए जाएंगे.
हरेला पर गाया जाता है लोकगीत-
कुमाऊं क्षेत्र में इसका बहुत महत्व है. पर्व के दिन पूजा करने के दौरान घर की महिलाएं और सभी सदस्य मंडली में जुटकर लोकगीत गाते हैं. हरेला के लिए लोकगीत है-
जी रये जागी रये,
यो दिन यो बार भेंटने रये.
दुब जस फैल जाए,
बेरी जस फली जाईये.
हिमाल में ह्युं छन तक,
गंगा ज्यूं में पाणी छन तक,
यो दिन और यो मास
भेंटने रये..
अगाश जस उच्च है जे,
धरती जस चकोव है जे.
स्याव जसि बुद्धि है जो,
स्यू जस तराण है जो.
जी राये जागी राये.
यो दिन यो बार भेंटने राये..
हरेला प्रकृति और मानव के बीच के संबंधों को दर्शाता है. कहीं न कहीं हरेले का पर्व हमें प्रकृति से सीखने और उसके जैसे बनने के लिए प्रेरित करता है. तो आप सभी को हरेला की बहुत बधाई.
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