‘है’ से ‘था’ हो जाना जिंदगी का सबसे कड़वा और दुखदायी सत्य है

Written By कैलाश सत्यार्थी | Updated: Mar 11, 2024, 05:15 PM IST

गंभीर चिंतन (AI प्रतीकात्मक तस्वीर)

सच दो तत्वों से बनते हैं. वे हैं- समय और स्थान. इन्हीं दोनों से हम सबकी ज़िंदगी के बनने या बिगड़ने की, सुख या दुख की, जन्म और मृत्यु की अनगिनत कहानियां बनती हैं. और फिर जिंदगी ऐसी लिखी-अनलिखी कहानियों की किताब बन जाती है. 

ओम अब हमारे बीच नहीं है. यह मेरे जीवन के सबसे कड़वे और दुखदायी वाक्यों में से एक है.
यह आज का कठोर सत्य है. सिर्फ़ पांच दिन पहले का सत्य बिलकुल उलट था. तब हम कह रहे थे, ‘ओम हैं’. और आज कह रहे हैं, ‘ओम था’. उसके इस ‘है’ से ‘था’ बनने में भले ही मेरे 62 साल गुज़र गये हों, लेकिन आख़िर सत्य तो उलट ही गया न? यह मेरे सबसे प्रिय और सबसे पुराने बचपन के मित्र ओम प्रकाश के बारे में हुआ.

आज जो कुछ भी हमारे पास है, या हमारे साथ है, क्या वह हमेशा से था, और हमेशा रहेगा? आज जो भी सुनाई या दिखाई दे रहा है, और महसूस किया जा रहा है, क्या कल ऐसा ही था और भविष्य में ऐसा ही रहेगा? क्या कुछ भी यहां स्थायी है, जिसे सच मान लिया जाए? लेकिन वही वास्तविकता हमारे जीवन में प्रेम या घृणा, शांति या झगड़े झंझट और एकता या टूटने का कारण है. 


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इस सबके बावजूद यह तो मानना ही पड़ेगा कि जो कल था, वह एक सच था. और जो आज है, वह भी एक सच है. इस ‘था’ और ‘है’ के बीच के फ़ासले भी सच हैं. इन फ़ासलों के बीच के सभी सच दो तत्वों से मिलकर बनते हैं. वे हैं- समय और स्थान. इन्हीं दोनों से हम सबकी ज़िंदगी के बनने या बिगड़ने की, सुख या दुख की, और जन्म और मृत्यु की अनगिनत कहानियां बनती हैं. और जिंदगी ऐसी लिखी-अनलिखी कहानियों की किताब बन जाती है. 

दरअसल पूरा ब्रह्मांड ही समय और स्थान के आपस में मिलते और बिछड़ते रहने की कहानी है. स्पेस और टाइम दोनों अनंत है. दोनों शाश्वत हैं, और गतिशील भी. यानी न तो वे कभी पैदा हुए, न मरेंगे और न ही कभी रुकेंगे. यों समझिए कि वे अपनी अनंत यात्रा में साथ-साथ रहते हैं, और अलग अलग भी. इस निरंतर चलने वाली यात्रा में उनके मिलन से परिस्थितियां जन्मती हैं.  वे परिस्थितियों ही मनुष्य के छोटे से जीवन से लगाकर धरती, चांद और सूरज तक की उम्र होती हैं, जो कि अनंत कालचक्र में एक नगण्य सा भाग है. इसीलिए संसार को जगत कहा जाता है. अर्थात लगातार चलते रहने वाला.

मनुष्य की बुद्धि अपनी आंखों, कानों, नाक, जीभ और छुअन से जो कुछ कर जान सकती है, वह सब कुछ जगत ही है. दुनिया में कुछ भी स्थिर और स्थाई नहीं है, भले वह में चलते हुए दिखाई न दे. यही हमारे संसार की कहानी है. लेकिन एक और मज़ेदार बात है. वह यह कि चलती हुई कहानियों में से नई कहानियां जन्म लेती रहती हैं. वे भी कभी रुकती नहीं. 

भारत में हमारे पूर्वजों ने अपने हज़ारों साल के अनुभव और ज्ञान का निचोड़ उपनिषदों के रूप में लिख दिया. उनमें से एक का नाम ईशोपनिषद है. मैं उसका ज़िक्र इसलिए कर रहा हूं कि उसके एक मंत्र के कुछ ही शब्दों में ऊपर लिखी बातों और उनके रहस्यों को बहुत सरल तरीक़े से समझाया गया है. 

चलती हुई कहानियां में से निकलकर चलने वाले वाली कहानी को ‘जगत्यां जगत्‌’ कहा गया है. उदाहरण के लिए एक नदी बह रही है. तेज रफ़्तार में बहती उस नदी में लहरें उठने लगती हैं. गोल-गोल भंवरें बनती हैं. वे होती तो नदी ही हैं, लेकिन उनका रूप और आकार अलग-अलग होने से उन्हें लहर या भंवर नाम मिल जाता है. वे अलग दिखती हुई धारा के साथ-साथ चलती रहती हैं. कभी कभी उनमें से बुलबुले फूटते हैं. चूंकि उनका भी एक रूप और आकार होता है, इसलिए उन्हें अलग नाम दे दिया जाता है. वे लहरें, भंवरें और बुलबुले नदी में से निकल कर नदी में ही डूबती हैं. उसी तरह हम भी समय और स्थान में से निकलकर रूप और आकार लेते हैं. फिर उसी में समा जाते हैं. हमारे पूर्वजों ने इस शाश्वत नियम को ऋतु कहा है. 


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इस नियम को मनुष्य के जन्म और मृत्यु के बारे में समझाते हुए श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है,

‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः. न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः.’ 

हमें न शस्त्र काट सकते हैं, न आग जला सकती है. न पानी भिगो सकता है, न हवा सुखा सकती है. इसी बात को और स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा,

‘वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि. 
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही.’

जैसे कोई व्यक्ति अपने फटे पुराने कपड़ों को उतार कर नये कपड़े पहन लेता है, उसी तरह आत्मा बुरी हालत में पहुंच चुके पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण कर लेती है. इसका मतलब यह हुआ कि ख़ुद को केवल शरीर मानते हुए जीवन जीने की कहानी सिर्फ़ समय के एक छोटे से टुकड़े की वास्तविकता हो सकती है, लेकिन उसके भीतर कभी न मिटने वाली एक और कहानी छुपी है.

‘जो कुछ है’ और ‘जो कुछ था’ को जानने और समझने का कोई भी तरीक़ा अपने आप में पूरा  नहीं हो सकता. क्योंकि वह किसी न किसी समय या स्थान पर निर्भर है, जो ख़ुद स्थिर नहीं होते. हर कहानी कभी न कभी और कहीं न कहीं की वास्तविकता होती है. लेकिन जिन्हें हम सच मानते हैं वे सब सापेक्ष सत्य हैं. सांसारिक सत्य हैं. बस, सिर्फ़ किसी ख़ास जगह और ख़ास समय की असलियत. इस बात में से कई सवाल उठ सकते हैं. पहला तो यह कि क्या कोई पूरा और निरपेक्ष सत्य भी हो सकता है, यानी जो हर प्रकार की नाप तौल से परे हो? क्या ऐसी हर तरह की कहानी के भीतर भी कोई कहानी बसती है, जो कभी न बदलती हो? उस कहानी को किस तरह समझा, या समझाया जा सकता है?

इसका उत्तर है, हां. सभी भेदभावों, रफ़्तार, समय और स्थान की सीमाओं से परे एक ही शाश्वत सत्य है. वह न तो जन्म लेता है और न मरता है. वही क्या, क्यों, कैसे, कौन, कब और कहां सरीखे सभी सवाल है, और उनका जवाब भी वही है. उसे हम ईश्वर कहते हैं. 

उस शाश्वत सत्य को सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है. मुझे किसी ऐसे व्यक्ति पर भरोसा नहीं, जो यह कहता है कि उसने ईश्वर को पा लिया है. संपूर्ण सत्य को पा लेने वाला कह नहीं सकता और कहने वाला पा नहीं सकता.  इसलिए जब कोई किसी को ईश्वर से मिलने का रास्ता बताता है, तो मुझे सिर्फ़ हंसी आती है. पूर्ण सत्य अकथनीय, अवर्णनीय, अनिवर्चनीय है. अनस्पीकेबल है. अनएक्सप्लेनेबल है.

उपनिषद का वह पूरा मंत्र है-  

ईशा वास्यमिदं सर्वं, यत्किञ्च जगत्यां जगत्‌. तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‌. 

जिस तरह नदी, धारा, भंवर, लहर, बूंद और बुलबुले की बदलने वाली कहानियों के भीतर की सिर्फ़ कहानी है, जो कभी नहीं बदलती. वह है, पानी. यही उनके अस्तित्व का एक अकेला शाश्वत सत्य है. इसीलिए इस मंत्र में कहा गया है कि लगातार चलते रहकर अपने रूप और आकार बदल रही दुनिया के भीतर एक ऐसी कहानी है जो कभी भी और कहीं भी नहीं बदलती. वह अकेली कहानी ईश्वर है. इसलिए वही कहानी शाश्वत सत्य है. वह यहां और इस समय, तथा सभी जगहों पर हर समय मौजूद रह कर शाश्वत नियमों के हिसाब से सभी कहानियों को नियंत्रित करता है. 


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सबसे बड़ा सवाल यह है कि हम जिस सांसारिक कहानी की वास्तविकता से संचालित होते हैं, उसके और शाश्वत सत्य के बीच तालमेल कैसे बैठाया जाए?  सरल भाषा में कहें तो मनुष्य और ईश्वर के बीच रोज़मर्रा की ज़िंदगी में व्यावहारिक रिश्ता कैसे बना कर रखा जाए? इसका उत्तर उपनिषद के इसी मंत्र की दूसरी लाइन में मौजूद है-

‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‌?’

हमारी दुनिया में मौजूद संसाधनों के पीछे पागल होकर छीना झपटी करने, या उन पर कब्ज़ा करने की जद्दोजहद के बजाय उन्हें त्याग की भावना से इस्तेमाल किया जाए. क्योंकि धरती की संपदा और संसाधन किसी अकेले के नहीं है, बल्कि सबके हैं. यह कहना तो आसान है, लेकिन कर पाना बहुत ही कठिन काम है.  इसलिए ऋषियों ने इस मंत्र के अलावा और कई जगहों पर ऐसी ज़िंदगी जी सकने की तरकीबें सुझाई हैं. और स्पष्ट रास्ते दिखाए हैं. यह बात केवल भारत के संदर्भ में ही नहीं कही जा सकती. मानव सभ्यता और संस्कृति के विकास के क्रम में दुनिया में हर जगह और हर समय लोगों ने उस शाश्वत सत्य को जानने और पा लेने की कोशिशें की हैं. इन प्रयासों के पीछे स्वयं के साथ साथ सभी की भलाई की कामना रही है. मनुष्य के भीतर बसी वही भलमनसाहत से धर्मपरायणता या राइचियस्नेस बनी. 

भारत के ऋषियों ने इसे धर्म का नाम दिया. धर्म कोई कर्मकांड, पूजा पद्धति, मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, तीर्थस्थल और किसी पवित्र ग्रंथ का पठन पाठन नहीं होता. हाँ, अगर कोई लालच, स्वार्थ या पाखंड न हो तो वे धर्म तक पहुँचने के रास्ते बन सकते हैं. लेकिन सापेक्ष सत्य और शाश्वत सत्य को जोड़ पाने का सीधा रास्ता तो केवल धर्म ही है. ईश्वर को अलग अलग तरीक़े से मानने और पूजने वाले समुदायों में धर्म की अलग परिभाषायें सकती हैं. परंतु मुझे जो सबसे सरल और अच्छी परिभाषा लगती है, वह है- “धारयति इति धर्मः” यानी जो धारण करता है, वही धर्म है. धारण करने का मतलब है, रखना, संभालना, जोड़ना, ऊपर उठाना और आगे बढ़ाना आदि.

धर्म के नाम पर मनुष्यता को खंडित करने से बड़ी असुरक्षा दूसरी कोई नहीं हो सकती. उसी तरह खुद को पूरे संसार का बना देने और संसार को अपना बना लेने से ज्यादा मजबूत कोई सुरक्षा नहीं.

(लेखक कैलाश सत्यार्थी नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित समाज सुधारक हैं.)

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