Muharram: मुहर्रम से होती है नए इस्लामिक कैलेंडर की शुरुआत, जानिए इसके पीछे की वजह

Written By ऋतु सिंह | Updated: Aug 05, 2022, 10:33 AM IST

जानें क्‍यों होती है हर साल मुहर्रम महीने से इस्लामिक कैलेंडर की शुरुआत

Beginning of new Islamic calendar: इस्लाम धर्म में नए इस्‍लामिक कैलेंडर की शुरुआत मुहर्रम से होती है. मुस्लिम धर्म में पहला महीना मुहर्रम ही होता है यानि इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना मुहर्रम ही होता है. इसके पीछे इसके पीछे की वजह 1400 साल पहले करबला की एक घटना से है.

डीएनए हिंदी: इस्लामिक कैलेंडर के नए साल के पहले महीने का नाम 'मुहर्रम' है
और मान्‍यता है कि 'इस्लाम जिंदा होता है हर करबला के बाद. 1400 साल पहले इस महीने की 10 तारीख को अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद (स:अ:व:व) के छोटे नवासे इमाम हुसैन को उनके परिवार और 72 अनुयायियों को मौत के घाट उतरा दिया गया था. ये घटना 1400 साल पहले करबला (ईराक के शहर) में हुई थी और यही कारण है कि मुहर्रम महीने में हर साल उन्हीं शहीदों का मातम मनाया जाता है.

जानें मुहर्रम के पीछे की कहानी

इस्लाम का उद्भव सऊदी अरब के शहर मदीना से हुआ. मदीना से (1132 कि.मी या 704 मील) दूर सीरिया के एक शहर ‘शाम’ में मुआविया नामक शासक का दौर था. मुआविया की मौत के बाद शाही वारिस के रूप में यजीद, शाम की गद्दी पर बैठा गया लेकनि यजीद चाहता था कि उसके गद्दी पर बैठने की पुष्टि इमाम हुसैन करें क्योंकि वह मोहम्मद साहब के नवासे हैं और वहां के लोगों पर उनका अच्छा प्रभाव था.

उधर, यजीद को इस्लाम का शासक मानने से मोहम्मद के घराने ने इन्कार कर दिया था क्योंकि यजीद इस्लामिक मूल्यों को महत्‍व नहीं देता था. यजीद इस मांग को हुसैन ने इंकार कर दिया और अपने वह अपने नाना का शहर मदीना छोड़ने का फैलसा कर लिए ताकि शहर में अमन कायम रहे.

हुसैन जब मदीना छोड़कर परिवार के साथ इराक की जा रहे थे तभी करबला के पास यजीद की फौज ने उनके काफिले को घेर कर उनके सामने ऐसी शर्त रखी जो इमाम हुसैन ने मानने से मना कर दिया. शर्त नहीं मानने पर यजीद ने जंग का ऐलान कर दिया. उस समय इमाम हुसैन इराक के रास्ते में ही अपने काफिले के साथ फुरात नदी (सीरिया) के किनारे तम्बू लगाकर ठहरे थे.

यजीदी फौज ने हुसैन के तम्बुओं को नदी किनारे से हटवा दिया. यह पहली मुहर्रम की तारीख थी, और गर्मी का वक्त था और तापमान 50 डिग्री से ज्यादा था. हुसैन जंग के इरादे से नहीं चले थे और उनके काफिले में केवल 72 लोग थे जिसमें छह माह के बेटे समेत उनका परिवार भी शामिल था. सात मुहर्रम तक इमाम हुसैन के पास जितना खाना और पानी था वह खत्म हो चुका था. इमाम सब्र से काम लेते हुए जंग को टालते रहे. 7 से 10 मुहर्रम तक (तीन दिन तक) इमाम हुसैन उनके परिवार के सदस्य और उनके साथी भूखे-प्यासे रहे लेकिन 10 मुहर्रम तक हुसैन के काफिले का बच्चा-बच्चा भूख-प्यास से तड़प उठा, तो उन्होंने मजबूरी में जंग के लिए हामी भरी.

10 मुहर्रम को हुसैन की 72 लोगों की फौज के लोग एक-एक करके मैदान-ए-जंग में लड़ने गए. जब हुसैन के सारे साथी मारे जा चुके थे, तब दोपहर की नमाज़ के बाद इमाम हुसैन खुद गए और उनका भी कत्‍ल कर दिया गया. इस जंग में हुसैन का एक बेटा जैनुल आबेदीन जिंदा बचा. 10 मुहर्रम को वे बीमार थे, मुहम्मद साहब के परिवार की नई पीढ़ी के इकलौते मर्द वही ज़िंदा बचे थे. इसी कुर्बानी की याद में मुहर्रम की महीने में ग़म मनाया जाता है.

करबला का यह वाकया मोहम्मद के घराने की तरफ से दी गई कुर्बानी माना जाता है. हुसैन और उनके पुरुष साथियों व परिजनों को कत्ल करने के बाद यजीद ने हुसैन के परिवार की औरतों को गिरफ्तार किया.

इमाम हुसैन की मौत के बाद
यजीद ने खुद को विजेता बताते हुए हुसैन के लुटे हुए काफिले को देखने वालों को यह बताया कि यह हश्र उन लोगों है जो यजीद के शासन के खिलाफ गए. यजीद ने मुहमम्द के घर की औरतों को कैदखाने में रखा, जहां हुसैन की मासूम बच्ची सकीना की (सीरिया) कैदखाने में ही मौत हो गई. बहरहाल इस वाकये को 1400 से ज्यादा साल बीत चुके हैं. कहा जाता है कि ‘इस्लाम जिंदा होता है हर करबला के बाद’.

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