डीएनए हिंदीः आज से नवमी तक विशेष पूजा-पाठ किया जाता है. पूजा पंडालों में मां दुर्गा की मूर्ति को स्थापित होती है. आज से देवी पूजा में क्या-क्या होगा और क्या रस्में अदा होंगी और कैसे पारंपरिक रिवाजों के साथ देवी विदाई होती है, इससे जुड़ी पूरी बातें जानें.
देवी के आंखों से हटेगी पट्टियां
षष्ठी से मां दुर्गा की प्रतिमा पंडालों में विधि विधान पूजा के साथ स्थापित की जाती है. षष्ठी पर देवी कात्यायनी की पूजा होती है और आज के ही दिन देवी की आंखों पर बांधी गई पट्टी भी खोली जाती है. आज से ही भक्त देवी के दर्शन करने पंडालों में भी जाते हैं. हालांकि कई जगह सप्तमी को भी देवी की आंखों से पट्टी खोली जाती है. पंरपरा के अनुसार षष्ठी या सप्तमी को ही देवी की आंखें खुलती हैं.
मां आती हैं अपने मायके
मान्यताएं हैं कि देवी दुर्गा ने असुर महिषासुर का वध किया था और बुराई पर अच्छाई के प्रतीक के रूप में नवदुर्गा की पूजा की परंपरा शुरू हुई. वहीं कुछ मान्यताओं के अनुसार देवी नवरात्रि में अपने मायके आती हैं, इसलिए ये उत्सव होता है.
दुर्गा मां संग इनकी भी स्थापना
मान्यता है कि महालया के दिन शाम को मां दुर्गा कैलाश पर्वत से पृथ्वी की ओर प्रस्थान करती हैं और पूरे 9 दिन वह धरती पर रहती हैं. षष्ठी के दिन पंडालों में मां दुर्गा के साथ मां सरस्वती, माता लक्ष्मी, भगवान कार्तिकेय, भगवान श्रीगणेश के साथ राक्षस महिषासुर की प्रतिमा भी स्थापित होती है.
मां को लगाते हैं प्रिय भोग
षष्ठी के दिन महिलाएं अपनी संतान और परिवार की खुशहाली और सुख-समृद्धि के लिए व्रत रखती हैं.सप्तमी के दिन देवी पंडालों में बहुत भक्तिनुमा वातावरण रहता है, लोग अपने पारंपरिक वेशभूषा में मां के दर्शन और पूजा के लिए पहुंचते हैं.इस दिन मां दुर्गा को उनका पसंदीदा भोग जैसे खिचड़ी, सब्जियां,पापड़, बैंगन का भर्ता और रसगुल्लाअर्पित करते हैं.
सांस्कृतिम कार्यक्रम का आयोजन
बंगाली समुदाय के लोगों के बीच दुर्गा पूजा को अकालबोधन, शदियो पूजो, शरदोत्सब, महा पूजो, मायेर पूजो, पूजा या फिर पूजो भी कहा जाता है.दुर्गा उत्सव के दौरान भव्य पंडाल बनाकर उनमें इस दौरान मां की आराधना के अलावा अनेक रंगारंग और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होते हैं.
ऐसे होती है मां की विदाई
अष्टमी के दिन भी विधि विधान से मां की पूजा-अर्चना के बाद 56 भोग लगाए जाते हैं. नवमी तिथि की रात मायके में दुर्गा मां की आखिरी रात होती है. इसके बाद दशमी यानी कि दशहरे के दिन सुबह पंडाल परिसर में ही सिंदूर खेला के बाद दुर्गा मां को विसर्जन कर विदाई दी जाती है.
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