Aug 27, 2024, 12:04 PM IST
तवायफों की आखिरी मुजरे की रस्म क्यों होती थी बेहद दुखदाई?
Ritu Singh
मुजरा एक नृत्य कला है जो मुगल काल से शुरू होकर ब्रिटिश काल तक खूब चर्चित थी
और आज भी कोठों और महफिलों में इस कला की नुमाइश होती रहती है. बस थोड़ा तरीका और संगीत बदल गया है.
एक समय तवायफों के लिए मुजरा बहुत खास हुआ करता था और किसी तवायफ का अंतिम मुजरा जब होता था तो...
वो तवायफ उस दिन खुश नहीं, बल्कि बेहद दुखी होती थी. अंतिम मुजरा एक रस्म होती थी.
इस रस्म के मुताबिक जिस दिन किसी तवायफ का आखिरी मुजरा होता था उसके बाद वह फिर कभी महफिल में नहीं नाच सकती थी.
आखिरी मुजरा करने के बाद उसकी बोली लगती थी और उस बोली को जीतने वाले की वो तवायफ एक तरह से गुलाम हो जाती थी.
यही कारण था कि हर तवायफ अपने आखिरी मुजरे की रस्म के समय दुखी होती थी क्योंकि इसके बाद उसकी जिंदगी पर उसक हक खत्म हो जाता था.
अंतिम मुजरे की रस्म के बाद तवायफों के लिए अपने मालिक को खुश करना ही मेन काम होता था.
इस रस्म को नथ उतराई भी कहा जाता है और बोली लगाने वाला ही केवल नथ उतराई यानी तवायफ के साथ फिजिकल रिलेशन बन सकता था.
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