डीएनए हिंदी : पाकिस्तानी अख़बार डॉन ने एक रपट प्रकाशित की है. यह रपट इस बात की तस्दीक करती है कि पाकिस्तान में ईशनिंदा कितना बड़ा मसला है. अख़बार के मुताबिक़ जब से पाकिस्तान बना है यानी 1947 से अबतक देश में 1415 लोगों के ऊपर blasphemy या ईशनिंदा का मुक़दमा चल चुका है. इतना ही नहीं कम से कम 89 लोगों की इस मसले पर जान भी ली जा चुकी है.
यह रिपोर्ट पाकिस्तान के सेंटर फॉर रिसर्च एन्ड सिक्योरिटी स्टडीज़ (CRSS ) के हवाले से छपी है
पाकिस्तान के प्रमुख अख़बार ने यह रपट स्थानीय सेंटर फॉर रिसर्च एन्ड सिक्योरिटी स्टडीज़ के हवाले से छापी है और यह अख़बारों में नज़र आए ब्लासफेमी के मुक़दमों का अध्ययन कर तैयार की गयी है. इसके अनुसार 1947 से 2021 के दरमियान के 74 सालों में 18 औरतों और 71 मर्दों को Blasphemy के आरोप की वजह से अपनी जान देनी पड़ी है. 1415 लोग जिन पर मुक़दमा चला उनमें 107 औरतें थीं और 1308 मर्द थे.
2011 से 2021 के दौरान हुए सबसे ज़्यादा मुक़दमे
इस रिपोर्ट में साफ़-साफ़ दर्ज है कि 2011 से 2021 के दस सालों में ईश-निंदा को लेकर पाकिस्तान में सबसे अधिक असहिष्णुता फैली. इन दस सालों में कुल 1287 मुक़दमे दर्ज हुए. यह संख्या देश के इतिहास में दर्ज हुए ब्लासफेमी के मुक़दमों का नब्बे प्रतिशत है. माना जाता है कि असल संख्या कहीं अधिक है क्योंकि ईशनिंदा के सारे मामलों की ख़बर प्रेस को नहीं लग पाती है.
सबसे अधिक मामले पंजाब से हैं
पाकिस्तानी संस्था CRSS कहता है कि सत्तर प्रतिशत से अधिक मामले पाकिस्तान के पंजाब प्रांत से आए हैं. पंजाब में ईश-निंदा के आरोप में 1098 मुक़दमे चले जबकि सिंध प्रांत दूसरे नंबर पर है जहां 177 व्यक्तियों पर इस अपराध के केस चलाए गए. देश की राजधानी इस्लामाबाद में 55 केस फ़ाइल किए गए जबकि आज़ाद जम्मू और कश्मीर (पाक अधिकृत कश्मीर) में 11 केस सामने आए. बलूचिस्तान में 12 और ख़ैबर पख्तूनख्वा में 33 आरोपियों पर ईश-निंदा (Blasphemy) के मुक़दमे चलाए गए.
कोर्ट ने अक्सर blasphemy law के बेजा इस्तेमाल को ग़ैर-कानूनी क़रार दिया है
रिपोर्ट खुलकर यह दर्ज करती है कि पाकिस्तानी अदालतों ने अक्सर Blasphemy law के बेजा इस्तेमाल पर सवाल उठाया है. रिपोर्ट के अनुसार इस्लामाबाद हाई कोर्ट ने पहले भी मौजूदा कानून में आवश्यक बदलाव की बात की है और इस पक्ष को इंगित किया है कि उन लोगों को भी बराबर सज़ा मिल सके जो दूसरों पर ईश-निंदा का झूठा आरोप लगाते हैं.
रपट के मुताबिक़ पाकिस्तान के ब्लासफेमी कानून और इसका सामाजिक-राजनैतिक प्रतिफल अक्सर दो बातों के बीच घूमता रहता है. पहली बात जिसके मुताबिक यह अक्सर कहा जाता है कि 'इस्लाम की अवहेलना करने वाले लोगों को सज़ा मिलनी चाहिए' और दूसरी बात यह कि 'लोग अक्सर आपसी दुश्मनी निकालने के लिए इस कानून का सहारा लेते हैं.'
समाज का एक वर्ग ब्लासफेमी (Blasphemy) के कानून पर से विचार करने के पक्ष में है ताक़ि इसका बेजा इस्तेमाल होने से रोका जा सके, जबकि इसी वक़्त कट्टर धड़े के लोग यह कहते पाए जाते हैं कि माफ़ न करने योग्य धार्मिक अपराधों पर मौत की सज़ा वाजिब है. वे इसे 'वाजिबुल क़त्ल' का नाम देते हैं.
सरकार का कहना है कि ईशनिंदा का झूठा मुक़दमा दर्ज करवाने वाले लोगों की पहचान की जाती है, उन्हें गिरफ़्तार किया जाता है और सज़ा दी जाती है.
अंग्रेज़ी राज के ज़माने का कानून है यह
रिपोर्ट इस बात की दरियाफ़्त भी करती है कि यह कानून अंग्रेज़ों के ज़माने का है. इसकी घोषणा वास्तव में 1860 में हुई थी. पहले-पहल चार ब्लासफेमी क़ानून (Blasphemy law) लाए गए थे जो इंडियन पीनल कोड के सेक्शन 295, 296, 297 और 298 के अंतर्गत आते थे. 1927 में 295 A भी जोड़ा गया जब एक मुस्लिम बढ़ई ने महाशे राजपाल की हत्या ईश-निंदा से जुड़ी हुई एक किताब प्रकाशित करने के कारण कर दी.
अनीका अतीक़ है सबसे हालिया शिकार
पाकिस्तान में कुछ दिनों पहले 26 साल की एक लड़की अनीक़ा अतीक़ को मौत की सज़ा सुनाई गई है. लड़की पर आरोप है कि उसने व्हाट्सएप पर कुछ ऐसे सन्देश भेजे जो ईशनिंदा (Blasphemy) से जुड़े हुए थे. इस बात पर लड़की का कहना है कि उसे जान बूझकर इसमें एक लड़के के द्वारा फंसाया गया ताक़ि वह लड़का लड़की द्वारा रिजेक्ट किए जाने का बदला ले सके.