Good News: लैब में बने खून का क्लीनिकल ट्रायल शुरू, पहली बार किसी इंसान को चढ़ाए गए कृत्रिम ब्लड सेल

Written By डीएनए हिंदी वेब डेस्क | Updated: Nov 07, 2022, 11:30 PM IST

दुनिया के इस पहले क्लीनिकल ट्रायल में यह देखा जाएगा कि कृत्रिम रेड ब्लड सेल्स इंसानी शरीर में कितनी देर तक जिंदा रहते हैं.

डीएनए हिंदी: स्वास्थ्य जगत से एक अच्छी खबर सामने आ रही है. पहली बार लैब में बनाए गए कृत्रिम खून का इंसानों पर क्लीनिकल ट्रायल शुरू हो गया है. ब्रिटेन में वैज्ञानिकों ने लैब में बनाए गए ब्लड सेल्स को एक इंसानी शरीर में चढ़ाया है. यह इस तरह का दुनिया में पहला क्लीनिकल ट्रायल बताया जा रहा है. यदि ये ब्लड सेल्स इंसानी शरीर में सुरक्षित और प्रभावी साबित होते हैं तो दुनिया में रोजाना खून की कमी के कारण अस्पतालों में दम तोड़ने वाले हजारों इंसानों की जिंदगी बचाने की राह खुल जाएगी. साथ ही इससे उन लोगों के इलाज में भी क्रांति आएगी, जो सिकल सेल और रेअर ब्लड टाइप्स जैसे ब्लड डिसऑर्डर्स से जूझ रहे हैं. अभी तक इन डिसऑर्डर्स के कारण बहुत सारे लोगों के लिए पूरी तरह मैच करने वाला खून पर्याप्त मात्रा में तलाशना असंभव सा काम होता है.

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स्टेम सेल्स डोनर्स की मदद से तैयार किया लैब में खून

PTI के मुताबिक, ब्रिटेन की कैंब्रिज यूनिवर्सिटी (University of Cambridge) के शोधकर्ताओं समेत इस प्रयोग में जुटी पूरी टीम कृत्रिम ब्लड सेल्स को लेकर बेहद उत्साहित है. उनका कहना है कि ये ब्लड सेल्स डोनर्स से मिले स्टेम सेल्स की मदद से लैब में तैयार किए गए हैं. अब इन रेड सेल्स को पूरी तरह स्वस्थ दो वॉलंटियर्स में ट्रांसफ्यूज किया गया है, जिनकी हर पल निगरानी की जा रही है. उनका कहना है कि यह दुनिया का पहला मौका है, जब रेड ब्लड सेल्स को लैब के अंदर तैयार किया गया है और ब्लड ट्रांसफ्यूजन के ट्रायल के हिस्से के तौर पर इन्हें दूसरे व्यक्ति को चढ़ाया गया है.

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कितने दिन जिंदा रहेंगे रेड सेल, इसकी स्टडी

क्लीनिकल ट्रायल के दौरान शोधकर्ताओं की टीम यह स्टडी करेगी कि इंसानी शरीर के अंदर ये रेड ब्लड सेल कितने दिन जिंदा रहेंगे. कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और NHS ब्लड एंड ट्रांसप्लांट के चीफ इन्वेस्टिगेटर सेड्रिक घेवाएर्ट ने कहा, हमें उम्मीद है कि हमारे लैब में बने रेड ब्लड सेल्स ब्लड डोनर्स से मिलने वाले सेल्स के मुकाबले ज्यादा लंबे समय तक चलेंगे. यदि हमारा ट्रायल, जो दुनिया में अपनी तरह का पहला ट्रायल है, सफल रहा तो इसका मतलब होगा कि फिलहाल रेगुलर लॉन्ग टर्म ट्रांसफ्यूजन्स की जरूरत वाले मरीजों को भविष्य में कम ट्रांसफ्यूजन की जरूरत होगी. इससे उनकी देखभाल में बड़ी मदद मिलेगी.

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