ईरान ने भी दी ब्रिक्स के लिए अर्जी, क्या हैं इसके मायने और क्या होगा असर

डॉ. सुधीर सक्सेना | Updated:Jul 03, 2022, 11:09 AM IST

Brics

ब्रिक्स में ईरान का दाखिला अमेरिका को रास नहीं आयेगा. व्हाइट हाउस इसे अमेरिका विरोधी कदम के रूप में देखेगा. ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा भारत निर्गुट और तटस्थ राजनय का निर्वाह कैसे करता है?

डीएनए हिंदी: पांच देशों के समूह ब्रिक्स में सदस्यता के लिए ईरान की अर्जी ने ब्रिक्स-राष्ट्रों के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय राजनय में भी हलचल पैदा कर दी है. यद्यपि ब्रिक्स की सदस्यता के लिए लातिनी अमेरिकी देश अर्जेंटिना  ने भी आवेदन किया है. अलबत्ता उत्सुकता और आशंकाएं ईरान को लेकर ही व्यक्त की जा रही हैं. वजह यह कि अमेरिका और ईरान के संबंध कई दशकों से खराब हैं और उन देशों की ईरान से नजदीकियां उसे कतई पसंद नहीं आतीं, जो उसके लिए अहमियत रखते हैं. ब्रिक्स में ईरान के संभावित दाखिले को भी वह चीन के पैंतरे के रूप में देख रहा है. यह बात वैसे भी लुकी-छिपी नहीं है कि चीन अमेरिका को छेड़ने और पछाड़ने की कोशिशों में लगातार लगा रहता है.

अमेरिका विरोधी संजाल को मजबूत करने के मकसद से बीजिंग की कोशिश है कि ईरान को ब्रिक्स में प्रवेश मिले. 23-24 जून को ब्रिक्स के 14वें सम्मेलन में ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी को न्यौता इसकी तस्दीक करता है. रईसी ने मौका न गंवाते हुए सम्मेलन को संबोधित किया और कोरोना-त्रासदी, जलवायु परिवर्तन और वैश्विक शांति पर अपने विचार रखे. उन्होंने राष्ट्रों के मध्य डायलॉग की अहमियत पर जोर दिया और शीतयुद्ध की मानसिकता को गिजा नहीं मुहैया करने की गुजारिश की.

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वैश्विक आर्थिकी और राजनय में ब्रिक्स का खासा महत्व है और यह बात व्हाइट हाउस से छिपी नहीं है. ब्रिक्स देशों में विश्व की 40 फीसद जनसंख्या निवास करती है और विश्व के सकल उत्पाद में इसकी भागीदारी करीब 30 प्रतिशत है. ब्रिक्स के तीन सदस्य राष्ट्र-भारत, चीन और रूस-परमाणु शक्ति संपन्न हैं. उनका एका किसी भी आर्थिक, राजनयिक और सामरिक संतुलन को बदल सकता है. गौरतलब है कि चीन की इकोनॉमी 15 ट्रिलियन डॉलर की है. ताइवान और प्रशांत महासागरीय कुछ द्वीपों पर उसकी गिद्ध दृष्टि के परिप्रेक्ष्य में रूस से उसकी नजदीकी और दूरगामी लक्ष्य सिद्धि के लिए ईरान, मलेशिया और तुर्की आदि को साधने की कोशिशों से अमेरिका की भृकुटि में बल पड़ना स्वाभाविक है. ब्रिक्स के चौदहवें सम्मेलन में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने नाटो या क्वाड का नाम तो नहीं लिया, लेकिन उन पर तंज जरूर कसा.

उल्लेखनीय है कि भारत क्वाड का सदस्य है और उसके सहयोगी राष्ट्र हैं-अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया. चीन की परोक्ष मंशा है कि ईरान और अर्जेंटिना को ब्रिक्स में लाकर अमेरिका के विरुद्ध वैश्विक स्तर पर मोहरें बिछाए जाएं.वैश्विक संगठनों की कतार में ब्रिक्स नवजात संगठन है. इसकी पहली बैठक यूं तो 16 जून, सन् 2010 में रूस में येकातेरिंग बर्ग में हुई थी, किन्तु इसकी अधारणा जिम ओनील ने सन् 2001 में अपने शोधपत्र में प्रस्तुत की थी. इसके संस्थापक राष्ट्र हैं : भारत, चीन, रूस और ब्राजील.

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ब्राजील रूस, भारत और चीन के आद्य-रोमन अक्षरों के सायुज्य से यह समूह कहलाया ब्रिक. तदंतर साउथ अफ्रीका के प्रवेश के उपरांत ब्रिक ब्रिक्स में तब्दील हो गया. विश्व के आर्थिक या सामरिक समूहों के सदस्यों की संख्या में इजाफा कोई नयी बात नहीं है. सन् 1949 में सोवियत प्रभाव को रोकने के प्रयोजन से गठित नाटो के शुरुआती सदस्य 12 देश थे. अब यह संख्या ढाई गुना यानी बढ़कर तीस तक पहुंच रही है. जहां तक ब्रिक्स का प्रश्न है, सदस्यता का फैसला राष्ट्र पारस्परिक विचार-विमर्श से करते हैं. तय है कि ब्रिक्स में ईरान का दाखिला अमेरिका को रास नहीं आयेगा. इससे आपसी रिश्तों में बदमजगी पैदा तो होगी ही व्हाइट हाउस इसे अमेरिका विरोधी कदम के रूप में देखेगा. राजनय यूं भी तनी हुई रस्सी पर चलने की मानिंद है. ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा  और कसौटी भी कि भारत निर्गुट और तटस्थ राजनय का निर्वाह कैसे करता है? ईरान की बेताबी को लेकर अब अटकलों की जरूरत नहीं, क्योंकि ईरान के प्रवक्ता सईद खातिब जादेह ने ब्रिक्स में सदस्यता की पुष्टि कर दी है.

(डॉ. सुधीर सक्सेना लेखक, पत्रकार और कवि हैं.  'माया' और 'दुनिया इन दिनों' के संपादक रह चुके हैं.)

(यहां दिए गए विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)

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