डीएनए हिंदी: श्रीलंका (Sri Lanka) के राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे (Gotabaya Rajapaksa) ने गुरुवार को 2009 से लिट्टे के साथ चल रहे गृहयुद्ध को खत्म करने का ऐलान किया. राजपक्षे ने संघर्ष को समाप्त करने और ‘मानवीय अभियान’ के माध्यम से शांति की शुरुआत करने के लिए देश की सेना की प्रशंसा करते हुए कहा कि लगभग तीन दशक तक चले इस गृहयुद्ध में ‘कोई घृणा, क्रोध या बदला’ शामिल नहीं था.
‘युद्ध नायक दिवस’ के मौके पर रक्षा मंत्री का भी दायित्व संभाल रहे राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे (Gotabaya Rajapaksa) ने जोर देकर कहा कि देश की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा करने वाले सशस्त्र बलों को किसी भी परिस्थिति में कभी नहीं भुलाया जाएगा. लिट्टे के साथ संघर्ष के दौरान रक्षा सचिव रहे गोटबाया राजपक्षे ने कहा, ‘हमारी सेना ने युद्ध को समाप्त किया और मानवीय अभियान के माध्यम से देश में शांति लेकर आए. इसमें कोई घृणा, क्रोध या बदला नहीं था. इसलिए, मातृभूमि में नस्लवाद या किसी अन्य प्रकार के अतिवाद के लिए कोई जगह नहीं है जहां शांति स्थापित हुई थी.
इस्तीफा देने का दवाब झेल रहे राष्ट्रपति
उन्होंने कहा कि हम इसे श्रीलंकाई समाज में एक अद्वितीय मूल्य के रूप में देखते हैं. ‘द आइलैंड’ अखबार ने गुरुवार को बताया कि देश के मौजूदा आर्थिक संकट के लिए अब भी इस्तीफा देने के दबाव का सामना कर रहे राष्ट्रपति ने कहा कि इस साल विशेष दिन सशस्त्र बलों द्वारा किए गए अपार बलिदानों को याद करते हुए मनाया जाएगा.
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गोटबाया ने अपने बड़े भाई व प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के 9 मई को इस्तीफे और उसके बाद हुई हिंसा के स्पष्ट संदर्भ में उन्होंने कहा, ‘संकट के जिस हालात से हम गुजर रहे हैं उसकी उम्मीद हममे से किसी ने नहीं की थी. आर्थिक संकट एक राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल की ओर बढ़ गया है.’ उन्होंने कहा, ‘किसी भी परिस्थिति में, हम इस देश की संप्रभुता और स्वतंत्रता की रक्षा करने की नीति की अवहेलना नहीं करेंगे. ऐसा इसलिए है क्योंकि मातृभूमि की रक्षा करने की हमारी इच्छा सर्वोपरि है.’
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‘युद्ध नायक दिवस’ के रूप में मनाया
वहीं कुछ श्रीलंकाई लोगों ने बुधवार को गृह युद्ध की 13वीं वर्षगांठ को ‘युद्ध नायक दिवस’ के रूप में मनाया, जबकि अन्य ने हजारों युद्ध पीड़ितों की मृत्यु को ‘तमिल नरसंहार दिवस’ के तौर पर याद किया. तत्कालीन राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने 18 मई, 2009 को 26 साल के युद्ध की समाप्ति की घोषणा की थी, जिसमें 100,000 से अधिक लोग मारे गए थे और लाखों श्रीलंकाई, मुख्य रूप से अल्पसंख्यक तमिल, देश और विदेश में शरणार्थी के रूप में विस्थापित हुए थे.
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