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Shekhar Joshi Passed Away: शेखर जोशी आप चले गए, अब “दाज्यू” के मदन के आंसुओं की कौन फिक्र करेगा?

कहानीकार शेखर जोशी का आज निधन हो गया. उनकी कहानियों में कोशी का घटवार, दाज्यू और बदबू बेहद चर्चित हुईं. इस लेख में दाज्यू के बारे में बात की गई है.

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Shekhar Joshi Passed Away: शेखर जोशी आप चले गए, अब “दाज्यू” के मदन के आंसुओं की कौन फिक्र करेगा?

कहानीकार शेखर जोशी नहीं रहे

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Shekhar Joshi Passed Away: हमारे देश में बच्चों की चिंता न सरकारें करती हैं और न ही समाज इसलिए मुफलिसी में वो होटलों या ढाबों में लोगों की झूठी प्लेट और प्याले मांजता है और थोड़ी सुख-सुविधा वाले घर में पैदा हो गया तो अपने माँ-बाप के सपने. व्यवस्था आज़ादी से पहले भी बचपन बचाने के लिए कुछ ख़ास नहीं कर रही थी और जब अंग्रेजों से मुक्ति मिली तब से लेकर आज लगभग सात दशक बीत जाने के बाद भी उसे (बचपन) बचाने की कोई बड़ी कोशिश हुई नहीं दिखती है. स्तिथियों में कोई सुधार हुआ हो, ऐसा नहीं जान पड़ता. देश के किसी हिस्से में चले जाएं आपको बदहाल बचपन के दर्शन आसानी से हो जाएंगे लेकिन बदहाल और बदहवास बचपन को लेकर पिछले १०-२० साल में कोई ढंग की कहानी शायद ही लिखी गयी होगी. बदहाली की यह व्यवस्था सनातनी है. बल्कि बच्चों की हालत और ख़राब हुई है, उसके शोषण के नए-नए पैरामीटर भी विकसित हुए हैं. आज की तारीख में लाखों बच्चे मनोरंजन उद्योग में स्कूल और खेल के मैदान को छोड़कर पैसा और अल्पकालिक शोहरत कमाने की मशीन बन चुके हैं. गरीबी और भुखमरी की वजह से बच्चों पर जिम्मेदारी का बोझ असमय ही आ पड़ता है. बच्चों और खास तौर पर दलित और आदिवासी बच्चों के स्कूल बीच पढाई में छोड़ने के रिकॉर्ड में इजाफा ही हुआ है. मतलब ये बच्चे स्कूल छोड़कर कहां जा रहे हैं, पड़ताल करने पर पता लगता है कहीं खेतों, ढाबों, होटलों, स्टेशन पर जूते चमकाने से लेकर कई तरह के अपराधिक कार्यों में लगे हुए. वे नशाखोरी में लिप्त हो रहे हैं. ये बातें यहां इसलिए कर रहा हूं क्योंकि हिंदी के एक बड़े कहानीकार शेखर जोशी जिनका आज निधन हो गया. उनकी एक बेहद मर्मस्पर्शी कहानी है- दाज्यू. यह कहानी बालमनोविज्ञान और गरीबी की कहानी है. 

9-10 साल के छोटे से लड़के की कहानी है दाज्यू

उत्तराखंड में दाज्यू, बड़े भाई को कहा जाता है. कहानी एक अल्मोड़ा जिला के एक गांव से भागकर आये हुए 9-10 साल के छोटे से लड़के मदन की है. मदन, गोरा-चिट्टा रंग, नीली शफ्फ़ाफ आंखों वाला, सुनहरे बाल और चाल में एक अनोखी मस्ती वाला लड़का है. वह एक छोटे से कैफ़े में हेल्पर का काम करता है. इसी कैफ़े में जगदीश बाबू की मदन से मुलाक़ात होती है. जगदीश बाबू उससे गांव का पता-ठिकाना पूछ लेते हैं और उन्हें पता लगता है कि मदन उनके आसपास के गांव का है. धीरे-धीरे दोनों के बीच से दूरी कब सिमट जाती है, इसका पता ही नहीं चलता है.  जगदीश बाबू के चेहरे पर पुती हुई एकाकीपन की स्याही दूर हो गई और जब उन्होंने मुस्करा कर मदन को बताया कि वे भी उसके निकटवर्ती गांव ‘……..’  के रहने वाले हैं तो लगा जैसे प्रसन्नता के कारण अभी मदन के हाथ से ‘ट्रे गिर पड़ेगी। उसके मुंह से शब्द निकलना चाह कर भी न निकल सके। खोया-खोया सा वह मानो अपने अतीत को फिर लौट-लौट कर देखने का प्रयत्न कर रहा हो। अतीत- गांव…ऊंची पहाडिय़ां…नदी…ईजा (मां)…बाबा…दीदी…भुलि (छोटी बहन)…दाज्यू (बड़ा भाई)…!
मदन को जगदीश बाबू के रूप में किसकी छाया निकट जान पड़ी! ईजा?- नहीं, बाबा?- नहीं, दीदी,…भुलि?- नहीं, दाज्यू? हां, दाज्यू!
दो-चार ही दिनों में मदन और जगदीश बाबू के बीच की अजनबीपन की खाई दूर हो गई. टेबल पर बैठते ही मदन दाज्यू-दाज्यू रटने लग गया. 

शेखर जोशी: अलविदा कोसी के घटवार


कुछ दिनों बाद जगदीश बाबू का एकाकीपन दूर हो गया. उन्हें अब चौक, केफे ही नहीं सारा शहर अपनेपन के रंग में रंगा हुआ सा लगने लगा. परंतु अब उन्हें यह बार-बार ‘दाज्यू  कहलाना अच्छा नहीं लगता और यह मदन था कि दूसरी टेबल से भी ‘दाज्यू’…. एक रोज जगदीश बाबू ने झल्लाकर मदन से कह ही दिया कि यह दाज्यू, दाज्यू क्या लगा रखा है? तुम्हें प्रेस्टीज का खयाल ही नहीं है. मदन भीतर तक हिल गया और अपनी कोठरी में घुटनों में सर छुपाकर खूब रोया लेकिन उसने अब तय कर लिया कि वह कैफ़े में बॉय बनकर ही रहेगा और यहाँ आने-जाने वाले ग्राहक सिर्फ और सिर्फ शाब. इसलिए जगदीश बाबू के साथ हेमंत के इस कैफ़े में पहुंचने और नाम पूछने के बाद उसने अपना नाम पूछने के बाद भी अपना नाम बॉय ही बताया था. जगदीश बाबू और मदन अब एक-दूसरे से अपरिचित सा व्यवहार करने लग जाते हैं. जगदीश बाबू को अपनी प्रेस्टीज का खयाल हो आता है और मदन को अपनी हैसियत का. इस कहानी में क्लास डिफरेंस और वर्ग चेतना को लेकर मनुष्य की सक्रियता को बहुत ही बारीकी से पकड़ने और दिखाने की कोशिश की गयी है. मध्वर्गीय और शहरी कुंठा के बोझ तले बचपन को तिल-तिल दम तोड़ते हुए दिखाया गया है. कहानी में संकेत और प्रतीकों और शारीरिक हावभाव का उपयोग शब्दों की तुलना में अधिक प्रभावशाली तरीके से किया गया है.

   
देश की गुलामी से लेकर आज आज़ादी मिलने के सात दशकों के बाद भी बचपन को बचाने को लेकर केवल बाल मजदूरी कानून के प्रावधान भर किये गए हैं उन्हें लागू करने में कोई ख़ास दिलचस्पी किसी भी रंग के झंडेबरदारों ने नहीं किया है. अचरज तो यह है कि आज इन विषय को कलमकार अपनी कहानी का विषय तक नहीं बनाना नहीं चाहते हैं. दरअसल ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों ने बचपन बचाने और उसे संवारने को मुद्दा नहीं बनाया. छिटपुट आंदोलन को छोड़ दें तो कोई बहुत जोरदार आंदोलन नहीं चलाया गया. मेरी नजर में हाल के कुछ वर्षों में बालमनोविज्ञान से जुड़ी इतनी शानदार कोई कहानी भी नहीं गुजरी है. शेखर जोशी आप जैसा लेखक सदियों में एक पैदा होते हैं जो मनुष्यता बचाने की कहानी रचते हैं.  

आपको नमन.

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