Aug 14, 2024, 05:08 AM IST

रोशनी कम होते ही क्यों बढ़ जाती थी तवायफ के मुजरे की रफ्तार

Aditya Prakash

भारत में तवायफों के मुजरे का अपना इतिहास रहा है.

कोठे, मुजरे और तवायफ की तारीख की निशानियां मुगल सल्तनत से जाकर जुड़ती है.

असल में 16वीं सदी के मुगल सल्तनत के दौरान तवायफ, महफिल और मुजरा को खूब सरंक्षण मिला.

उस दौर में तवायफें कलाकार के तौर पहचानी जाती थीं. उनके मुजरों को सुसंस्कृत और उच्च तहजीब का समझा जाता था.

उस दौर में मनोरंजन के क्षेत्र में ये कला अपने उरूज पर थी.

उत्तर भारत के राजा और दरबारियों का तवायफ कथक, हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत और गजल के माध्यम से मनोरंजन करती थी.

शाम होते ही महफिल शुरू होती थी. जैसे-जैसे शाम ढलती और रोशन कम होने लगती, तवायफों के मुजरे की रफ्तार तेज होती चली जाती थी.

बादशाह और दरबारी सुबह तक इसका भरपूर आनंद लेते थे. 

उस दौर में तवायफों के मुजरे तहजीब का अहम हिस्सा बन चुके थे.