Dec 23, 2023, 01:20 PM IST

महाराणा प्रताप के बेटे से क्यों घबराते थे मुगल बादशाह

Kuldeep Panwar

महाराणा प्रताप के बाद मेवाड़ का क्या हुआ? यह सवाल लोगों के जेहन में उठता है. ऐसे में बता दें कि महाराणा के बाद मेवाड़ की गद्दी उनके बेटे महाराणा अमर सिंह ने संभाली थी, जो वीरता में पिता से कम नहीं थे.

महाराणा अमर सिंह ने मुगलों के साथ 17 बार युद्ध किया था, जिनमें से आखिरी युद्ध को छोड़कर वे सारे जीत गए थे. आखिरी युद्ध में मुगलों ने मेवाड़ के साथ मैत्री संधि कर ली थी. फिर दोनों राज्य कभी नहीं भिड़े.

अमर सिंह का जन्म 16 मार्च, 1559 को हुआ था. इसके 23 साल बाद वे पहली बार युद्ध में उतरे थे. 1582 में कुंभलगढ़ किले से 50 किमी दूर दिवेर में अमर सिंह ने पिता महाराणा प्रताप का साथ दिया था.

दिवेर में मुगल कमांडर सुल्तान खान की सेना पर अमर सिंह की फौज ने धावा बोला. अमर सिंह की छोटी सी टुकड़ी के सामने मुगल सेना के पैर उखड़ गए और वे भाग निकले. ये अमर सिंह की पहली जीत थी.

दिवेर की जंग के बाद 12 साल में महाराणा प्रताप ने अमर सिंह को साथ लेकर मेवाड़ राज्य का अधिकतर हिस्सा दोबारा जीत लिया था. केवल चित्तौड़गढ़ और मंडलगढ़ के किले ही उनके कब्जे में नहीं आए थे.

साल 1597 में महाराणा प्रताप ने महज 56 साल की उम्र में मुगलों के सामने कभी भी झुके बिना अंतिम सांस ली. आखिरी सांस में उन्होंने अमर सिंह को चित्तौड़गढ़ का किला वापस जीतने का सपना सौंपा.

अकबर को लगा कि महाराणा प्रताप के बाद मेवाड़ जीतने का उसका सपना आसानी से पूरा हो जाएगा. इस कारण उसने शहजादे सलीम को सेना के साथ भेजा, जो बाद में बादशाह जहांगीर बने.

राम वल्लभ सोमानी की किताब हिस्ट्री ऑफ मेवाड़ के अनुसार, साल 1599 में महाराणा प्रताप और मुगल बादशाह अकबर के बेटों के बीच जंग हुई. शुरू में सलीम कुछ इलाके जीते, जिन्हें अमर सिंह ने फिर जीत लिया.

सलीम मेवाड़ को जीतना मुश्किल मानकर फौज लेकर बंगाल चले गए. 1603 में सलीम ने और ज्यादा बड़ी सेना के साथ मेवाड़ पर हमला की तैयारी की, लेकिन यह हमला अकबर-सलीम की तनातनी में थम गया.

दो साल बाद अकबर की मौत के बाद बादशाह बनने पर जहांगीर ने अपने बेटे परवेज को बड़ी फौज व तोपों के साथ भेजा. महाराणा अमर सिंह ने गुरिल्ला युद्ध से मुगल सेना को नाको चने चबवा दिए.

जहांगीर ने इस पूरे घटनाक्रम का जिक्र अपनी जीवनी तुजुक-ए-जहांगीरी में भी किया है. इसके बाद भी जहांगीर ने 1605 से 1615 तक मेवाड़ में कई बार सेना भेजी, लेकिन महाराणा अमर सिंह हर बार भारी पड़े.

1608 में मुगल सरदार महावत खां ने 2,000 बंदूकचियों के साथ मेवाड़ में मोर्चा संभाला. महाराणा अमर सिंह ने राजपूत सरदार मेघ सिंह को सेनापति बनाया, जिन्होंने महावत खां की सेना को भागने पर मजबूर कर दिया.

जहांगीर ने अब्दुल्ला खां को इसके बाद मेवाड़ भेजा, जिसने कुछ इलाके जीते. बाद में वह भी 1611 तक वापस भाग लिया.  मिर्जा अजीज कोका के नेतृत्व में आई मुगल सेना को भी महाराणा अमर सिंह की फौज ने पीटकर भगा दिया.  

अब जहांगीर खुद शहजादे खुर्रम को साथ लेकर मेवाड़ पर हमला करने आया. खुर्रम को भारी सेना के साथ आगे भेजा गया. मुगलों से संधि वाले सारे राजा बुलाए गए. चार तरफ से मेवाड़ की नई राजधानी चावंड को घेरा गया.

मुगल कब्जे में उत्तरी मेवाड़ आने के बाद भी अमर सिंह दक्षिणी मेवाड़ में दो साल तक उन्हें रोके रहे. आखिर में कुछ राजपूत सरदारों के कहने पर अमर सिंह के बेटे कर्ण सिंह संधि के लिए तैयार हुए.

कर्ण सिंह के आग्रह पर अमर सिंह बुझे हुए मन से संधि के लिए तैयार हो गए. फरवरी 1615 में हुई संधि में मेवाड़ मुगलों के साथ हो गया, लेकिन इसमें भी मेवाड़ की ही जीत थी.

संधि में लिखा गया कि महाराणा को मुगल दरबार में हाजिरी नहीं देनी होगी. मेवाड़-मुगलों के बीच शादी के रिश्ते नहीं होंगे और महाराणा को चित्तौड़गढ़ मिल जाएगा. इस तरह बाकी राज्यों से मेवाड़ ऊपर ही था.

जहांगीर के शासन में भारत आए ब्रिटिश राजदूत टॉमस रो के मुताबिक, बादशाह इस संधि को इतना उत्सुक था कि उसने कर्णसिंह को पास बुलाकर छाती से लगाया. हालांकि इस संधि से मुगलों को कम और मेवाड़ को ज्यादा लाभ हुआ. जहांगीर ने मेवाड़ से तोहफे लेने के बजाय उल्टा उसे बहुत सारे कीमती तोहफे भी दिए.

संधि में मेवाड़ का ही पलड़ा भारी था, लेकिन महाराणा अमर सिंह इससे खुश नहीं थे. संधि होते ही उन्होंने राजकाज कर्ण सिंह को सौंप दिया. इसके 5 साल बाद 26 जनवरी 1620 को उनका निधन हो गया. माना जाता है कि संधि के दर्द के कारण ही उनका निधन हुआ था.