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Book Review : मानवीय चिंताओं से लबरेज कविता संग्रह 'मनुष्य न कहना'

Book Review: ममता जयंत के कविता संग्रह 'मनुष्य न कहना' की कई कविताएं अपील करती हैं. 'तुम भगवान तो नहीं' शीर्षक कविता आज की राजनीति की ओर इशारा करती है और यह भी बताती है कि कवि इस स्थिति से नाखुश है.

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Book Review : मानवीय चिंताओं से लबरेज कविता संग्रह 'मनुष्य न कहना'

ममता जयंत का कविता संग्रह 'मनुष्य न कहना'

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ममता जयंत के कविता संग्रह का नाम है 'मनुष्य न कहना'. इसी शीर्षक से इस संग्रह में उनकी एक कविता भी है. संग्रह का नाम पढ़ते ही बहुत पहले पढ़ी गई व्यंग्य की एक बात याद आ गई 'मनुष्य तो अब दुर्लभ प्राणी हो गए हैं जो सिर्फ अजायबघर में ही मिलते हैं'. हो सकता है कि लिखने में पंक्ति हू-ब-बू वही नहीं लिख पाया हूंगा, पर उस व्यंग्य लेख की पंक्ति का यही अर्थ था कि मनुष्यता अब दुर्लभ होती जा रही है. संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए यह महसूस होता है कि ममता जयंत सामाजिक मूल्यों के ह्रास से विचलित हैं. उन्हें लोक की चिंता है, मानवीय मूल्यों की चिंता है और यही वजह है कि वे अपनी कविता में कहती हैं कि उन्होंने अभी तक अपनी मनुष्यता का प्रमाण नहीं दिया है. कई उदाहरण देते हुए वे इस 'शीर्षक कविता' में कहती हैं कि मुस्कान, दुखों से उबरने का प्रमाण और संवेदनशील हृदय मनुष्यता की पहचान हैं. 

इस संग्रह की कई कविताएं अपील करती हैं. 'तुम भगवान तो नहीं' शीर्षक कविता आज की राजनीति की ओर इशारा करती है और यह भी बताती है कि कवि इस स्थिति से नाखुश है. वे लिखती हैं -

मैंने रहने का मकाँ माँगा
तुमने मंदिर दे दिया
मैंने भूख का नाम लिया
तुमने भगवान का जिक्र छेड़ा

मैंने विनोद की बात की
तुमने वन्दना का राग अलापा
मैंने अनाज की तरफ देखा
तुमने अर्चना की ओर इशारा जकया
मैंने प्रार्थना में प्राण बचाने की मुहिम छेड़ी
तुमने पूजा में समय बिताने की विधि बताई
क्या सचमुच!
मन्दिर, पूजा, अर्चना और वन्दना
कर सकते हैं पेट की आग को ठण्डा
क्या मन्दिर का दीया
बन जाता है ठिठुरती सर्दी में अलाव
क्या तपती गमी में पसीना बन जाता है पानी
क्या मन्दिर का प्रसाद बन सकता है मजदूर की दिहाड़ी?
अगर नहीं
तो जितना अन्तर है भूख और भगवान् में
बस उतना ही फासला है मेरे और तुम्हारे बीच
कहीं मैं भूख तुम भगवान तो नहीं?

आज जब इस संग्रह से गुजर रहा था तभी ममता जयंत की यह कविता और प्रासंगिक हो गई. महाराष्ट्र सरकार ने गाय को राज्यमाता घोषित कर दिया. यानी सरकारों के पास शहरों के नाम बदलने, गाय और मंदिर का प्रचार करने के अलावा कोई काम नहीं रह गया है. ऐसे में कोई कवि आखिर कैसे अपना प्रतिरोध जताए. बस वह यही तो कहेगा 'जितना अन्तर है भूख और भगवान् में/बस उतना ही फासला है मेरे और तुम्हारे बीच/कहीं मैं भूख तुम भगवान तो नहीं?'

'मनुष्य न कहना' संग्रह की पहली कविता है 'सुख' और दूसरी 'दुख'. 'सुख' कविता की खूबसूरती यह है कि शीर्षक पहले न पढ़ी जाए तो बहुत प्यारी प्रेम कविता की तरह लगती है, लेकिन जब शीर्षक पर ध्यान जाता है तो कविता अचानक खुलने लगती है और वह सुख के साथ हमारा रिश्ता बना जाती है. इसी तरह 'दुख' कविता से गुजरते हुए आप भी दुखों की अनुभूति करने लगते हैं. अपने जीवन में काटे गए दुख के पल याद आते हैं और लगता है कि कवि ने शब्द-कौतुक या शब्द-विलास नही किया है बल्कि अपना भोगा हुआ सच बयां किया है.

माइग्रेन किस कदर किसी को परेशान कर सकता है, यह समझना हो तो ममता जयंत की कविता 'माइग्रेन' पढ़ी जा सकती है. इस कविता में सिर दर्द की जो पीड़ा है, इस पीड़ा का जो आतंक है, वह ऐसा लगता है जैसे जीवन का अंत हो. इन सबके अलावा इस संग्रह में मां, पिता, प्रेमी और प्रेमिका को लेकर भी कई प्यारी कविताएं हैं. एक कविता अमृता प्रीतम को याद करते हुए भी है, जिसका शीर्षक है 'तुम आना अमृता'.

लेकिन इसी संग्रह में 'पतंगें' जैसे कमजोर कविताएं भी हैं, जो अपनी बुनावट और बनावट में कई विरोधाभाष समेटे हैं. 'संवाद में सुख है' शीर्षक की कविता में कवि एक जगह लिखती हैं 'जहाँ सन्नाटे के सिवा कुछ नहीं है' लेकिन इस पंक्ति से थोड़ा आगे बढ़ते ही 'हर आहट पर कान धरे' जैसा वाक्य पढ़ने को मिलता है. इसके बाद पाठक उस सन्नाटे को तलाशने लगता है जिसकी चर्चा कविता में की गई थी. 

कविता संग्रह का आवरण प्यारा और अर्थपूर्ण है, जिसे अजामिल ने बनाया है. ब्लर्ब प्रियदर्शन ने लिखा है. छपाई साफ-सुथरी है. हार्ड बाउंड में छपे इस संग्रह की कीमत 250 रुपए रखी गई है. समय प्रकाशन से छपकर आया यह संग्रह पठनीय है.

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