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Social Psychology: प्रमोद द्विवेदी ने पत्रकारिता में एक लंबी पारी खेली है. इस बीच समाज को जानने-समझने की उनकी दृष्टि और पैनी हुई है. उन्हें पता है कि अब के दौर में एक-दूसरे को लेकर हमसब काल्पनिक संशय की दुनिया में जी रहे हैं. इसी संशय का ताना-बाना बुनती है प्रमोद द्विवेदी की कहानी 'बुखार उतर गया'.
डीएनए हिंदी : बहुत कम रचनाकार ऐसे होते हैं जिनकी बातचीत में भी रचनाशीलता झलके. प्रमोद द्विवेदी ऐसे ही कथाकार हैं, जो बातचीत भी करते हैं तो उनका अंदाज कुशल किस्सागो जैसा होता है. किसी घटना या पात्र के वर्णन में वो ऐसा रस घोलते हैं कि सुननेवाला मंत्रमुग्ध सा उसे सुनता रहता है. उनकी बातचीत में जरूरत के हिसाब से अभिधा, लक्षणा, व्यंजना या वक्रोक्ति खुद-ब-खुद चली आती है. इन्हीं टूल्स के जरिए वे पात्रों के सामाजिक मनोविज्ञान की परतें उघाड़ते रहते हैं. बता दूं कि प्रमोद द्विवेदी की कहानियों का संग्रह 'सोनमढ़ी चीनीबत्तीसी' प्रकाशित होनेवाला है.
प्रमोद द्विवेदी ने पत्रकारिता में एक लंबी पारी खेली है. वे सामाजिक कार्यों में भी खूब सक्रिय हैं. तो पत्रकारिता और सामाजिक कार्यों में रचे-बसे होने के कारण समाज को जानने-समझने की उनकी दृष्टि और पैनी हुई है. उन्हें पता है कि अब के दौर में एक-दूसरे को लेकर हमसब काल्पनिक संशय की दुनिया में जी रहे हैं. इसी संशय का ताना-बाना बुनती है प्रमोद द्विवेदी की कहानी 'बुखार उतर गया'. इस कहानी में प्रमोद जी ने ट्रेन यात्रा में एक मुसाफिर के दिलो-दिमाग पर छाई धुंध को रोचक तरीके से रखा है, लेकिन यह तरीका इतना सहज और विश्वसनीय है कि वो पाठकों के जेहन पर छाई धुंध को आसानी से साफ कर देता है. तो आज DNA Katha Sahitya में पेश है प्रमोद द्विवेदी की कहानी 'बुखार उतर गया'.
सामने वाली सीट पर हंसमुख और हसीन मुसाफिर हो तो संतोष ठाकुर का रास्ता हंसते-मुस्काते निकल जाता था. वह महंगे टिकट वाली, तेज रफ्तार रेलगाड़ी से लखनऊ जा रहा था. किनारे की सीट उसकी च्वाइस थी. शीशे से बाहर की दुनिया देखते जाना उसे रोचक किताब पढ़ने जैसा लगता था. वह कुदरत को देखता जाता था- जैसे अपने देश को पढ़ रहा हो. किनारे की सीट वह कभी नहीं बदलता. किसी सुंदर लड़की की फरमाइश पर भी. उसने स्थायी जवाब ढूंढ़ रखे थे- 'किनारे की सीट हमारी कमजोरी है, हमें बचपन की याद दिलाती है. खिड़की से अपना देश दिखता है...' आदि-आदि. एक बहाना यह भी था कि 'रिजर्वेशन के समय ही वह विंडो सीट भर देता है इसलिए कानूनन उसका हक है.'
परिवार के साथ यात्रा में भी वह किनारे बैठने पर अड़ जाता. पत्नी कहती भी,'अरे यार, बच्चों से भी गए बीते हो.' वह जवाब देता, 'जिस दिन बचपना चला गया, समझो इन्सान चला गया.' पत्नी कहते, 'हे राम, तुम्हें समझाना मुश्किल है... बौड़मदास अग्निहोत्री जी.' वह अग्निहोत्री उसे मजाक में कहती थी. असल में जब भी कभी वह किचन में जाता, हड़बड़ी के मारे अंगुली जलाकर आता या कलाई में फफोले लेकर. एक दिन अचानक आह से उपजे स्वर की तरह पत्नी के मुंह से निकल पड़ा, 'अरे यार आदमी हो कि अग्निहोत्री. जब देखो आग से खेलते, फूंकते चले आ जाते हो.' इस तरह उसके नाम में अग्निहोत्री जुड़ गया.
तो यह किनारे की सीट आज फिर रार की जड़ बनी. गोरी सी, मोटी सी, नाक पर सुनहरी कील पहने उस औरत ने बिना भूमिका के घुन्नही आवाज में कहा, 'भाईसाब आप सीट चेंज करेंगे. इफ यू डोंट माइंड...' उसकी अंग्रेजी से वह समझ गया कि यह बीए पास पति से सीखकर आई है.
उसने कहा, 'काहे करेंगे, पहले से बुक करा रखी है.'
'अरे भाई सिर्फ पूछा ही, मुझे कुछ प्राब्लम है...' औरत और कुनकुनाई.
'ट्रेन में यह सब नहीं होता...' वह जनवादी सिद्धांतकार बन गया. हालांकि जनवाद से उसकी लाठी चली थी. वह मानता था कि संसार में पीड़क और पीड़ित की दूरी बनी रहेगी.
उसके बेलाग जवाब से चिढ़ गई वह औरत, 'उपदेश नही मांगा आपसे... चलिए यह बैग अपना उठाकर ऊपर रखिए. पैर रखने में दिक्कत हो रही है.'
'श्योर...' वह थोड़ा बेइज्जजती महसूस करने लगा था. अंदर ही अंदर औरत को भगिनी मिश्रित बनारसी गाली दी. बैग उठाकर ऊपर चढ़ा दिया. इतने में ही हांफ गया. उसकी दाहिनी कलाई कुछ दिन पहले थोड़ी मुरक गई थी, इसलिए वजन उठाने से बच रहा था. पर एक स्त्री के आगे यह मजबूरी कैसे जाहिर करता. खैर, हल्के से वह कलाई को सोहराता रहा. सोहराने का तरीका थोड़ा दुअर्थी हो चला था. औरत उसकी यह हरकत देखकर पता नहीं क्या सोच रही थी. संतोष ने उसकी निगाह देखकर कलाई को मुक्त कर दिया.
औरत ने जीत महसूस करते हुए स्टील वाली बोतल खोलकर पानी गट-गट किया. उसकी गट-गट ने संतोष बाबू की सुलगा दी.
वह समझ गया कि सफर खुशगवार नहीं रहने वाला. आसपास परिवारी लोग थे जिन्हें बाकी से मतलब नहीं था.
संतोष हमेशा रेलगाड़ी को अध्ययनशाला मानकर चलता था. इन्सानों के चेहरे पढ़ता. उनके कमीनेपन, घोंघेमन की मीमांसा करता. औरतों को पढ़ने में तो और भी आनंद आता. अपने पतियों से लड़ते हुए सफर करती, बच्चों को कूटती औरतों को देखकर वह तसल्ली कर लेता कि उसकी पत्नी इनकी तुलना में कम लड़ंती है. असल में उसकी पत्नी ज्योति ठाकुर सरस्वती शिशु मंदिर में हिंदी की मास्टरनी थी. जीवन विद्या का कोर्स करने के कारण उसके व्यवहार में मुलायमियत दिखती थी और मोहल्ले की औरतें भी कहतीं कि ज्योति जी नाम को सार्थक करने वाली हैं. कुछ लोग तो बाबा रामदेव के अंदाज में उसकी तारीफ करते हुए कहते- ज्योति जी संतोष जी का प्रकाश बनकर आई हैं. ज्योति जी बस अपने सांवले मसूड़ों को होंठों से बंद करते हुए मंद-मंद मुस्काती जातीं. ज्योति जी के दांत तो वाकई सुंदर थे. पर वे पूरे दिखते तो कसे हुए मसूड़े भी अपना सौंदर्य दिखा जाते. ज्योति जी ने कई बार शीशे के सामने अभ्यास करके यह सीख लिया था कि हंसने के लिए कितना मुंह खोलना है. या होंठों को बिना खोले ही मुस्का लेना है. बहरहाल वह स्वभाव से हंसमुख थीं.
इसीलिए ज्योति खड़ूस पति से लड़ने के बाद फौरन सोचने लगतीं कि अगर वह लड़ेंगी तो बच्चे कैसे संस्कार प्राप्त करेंगे. इस चक्कर में वह अखिल भारतीय गालियां भी सीमित ही जानती थीं. अपने दस साल के दापंत्य जीवन में दो-चार बार ही उन्होंने पति को बेहद तनाव के क्षणों में गधा-वधा, घोंचूदीन बोला होगा. हालांकि संतोष मानता था कि पति-पत्नी के बीच उच्चारित गालियों को ज्यादा गंभीरता से नहीं लेना चाहिए. यही इनके शांत जीवन का राज था.
दिमाग में खटका हुआ कि... अगर मुसलिम है तो बैग पर बुद्ध कैसे. खुद जवाब भी दे दिया कि बैग तो कंपनी का बना है. इसे तो पता ही नहीं होगा कि ये कौन से भगवान हैं. अब पप्पू नाम से धर्म का अंदाज लगाना मुश्किल था. पप्पू, मुन्ना, सोनू, छोटू नाम अब कॉमन हो चुके थे.
इस बीच ट्रेन में दृश्य बदल चुका था. एसी ट्रेन में खानपान की महक बस रही थी. उसने सिर्फ चाय पी. सामने वाली बेअदब औरत तीन बार नाक में छिंगुली घुसेड़ कर अपने नीले, चमकीले कुर्ते में पोंछ चुकी थी. उसकी भंगिमा बेहद बोर करने वाली थी. अचानक उसने मोबाइल में बतियाते हुए जोर-जोर से बोलना शुरू कर दिया, 'तुम सब नंबर वन के कमीने हो. जिम्मेदारी का अहसास ही नहीं. मैं बस रास्ते में हूं. पप्पू के पापा को बोल देना कि स्टेशन आने की जरूरत नहीं. मैं खुद ओला करके आ जाऊंगी. हालांकि सुबै से जिसिम में कमजोरी है. कल डॉक्टर अरोड़ा से दवा ले ली थी. पर आज फिर चक्कर आ रहे हैं... शायद खाली पेट के कारण.. खैर...'
संतोष ने अपने महा सामाजिक ज्ञान से अंदाज लगा लिया कि यह औरत पक्का मियांइन है. भाषा बता रही है. बदतमीज भी है. ना माथे पर बिंदी, ना मांग. पांव में बिछिया भी नहीं. मोटी और गोल कलाइयों में लाख के कड़े जरूर दिख रहे थे. कान के सुनहरे बाले पूरा एक इंची घेरा लिए हुए थे. पर उसके कपड़े के बैग में गौतम बुद्ध की कढ़ी हुई तस्वीर जरूर दिख रही थी.
दिमाग में खटका हुआ कि... अगर मुसलिम है तो बैग पर बुद्ध कैसे. खुद जवाब भी दे दिया कि बैग तो कंपनी का बना है. इसे तो पता ही नहीं होगा कि ये कौन से भगवान हैं. अब पप्पू नाम से धर्म का अंदाज लगाना मुश्किल था. पप्पू, मुन्ना, सोनू, छोटू नाम अब कॉमन हो चुके थे.
उसे लगातार इस औरत से चिढ़ हो रही थी. वह दो बच्चों को बुरी तरह डांट चुकी थी कि 'खामोशी से अपनी जगह क्यों नहीं बैठते. सर दर्द हो गया चिल्लपों सुनते-सुनते.' बच्चों की मां अपनी गलती मानकर चुप थीं. उसका बड़बड़ाना बंद ही नहीं हुआ, 'साले गोमती एक्सप्रेस बना दिया शताब्दी को... मैनर्स सीखे ही नहीं...'
संतोष को अहसास हुआ कि देखो कैसे एक फूहड़, विधर्मी औरत ने खौफ कायम कर रखा है. अपने यहां की किसी औरत की इतनी हिम्मत है... वह गुस्से से भर गया. सुबह से ही वह यह खबर सुनकर नाराज था कि मुसलमानों ने इंदौर और सीहोर में हिंदुओं की शोभायात्रा पर पत्थर बरसाए. मन में यह तसल्ली भी कि सरकार की पुलिस ने मुल्लों को अच्छा प्रसाद दिया. उसने इतना ज्यादा सोचा कि दिल की धड़कन बढ़ गई और उसे पानी पीना पड़ा. उसने गौर किया कि वह विधर्मी औरत उसकी मनोदशा पढ़कर और भी गंदा मुंह बना रही है.
औरत के बैग से चमकीला काला कपड़ा निकला देखकर उसने अंदाज लगा लिया कि इसने बुर्का बैग में रखा है. अपना स्टेशन आते ही पहन लेगी. बुर्का देखकर वह हिजाब विवाद में घुस गया.
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वह ट्रेन में लगातार कुछ ना कुछ चबुरियाने का आदी था. उसका एक बार भी मन नहीं किया कि एक बार इस मुसाफिर से भी पूछ लिया जाए. अगल-बगल के मुसाफिर मोबाइलरत थे. इसलिए इन्हें छेड़ने का मतलब ही नहीं था. उस विधर्मी औरत के जितने भी फोन आए, सब तनाव भरे थे. किसी की बीमारी की बात होती, किसी की मौत की बात होती. सबसे वह इतना जरूर कहती कि 'देखो, हमारा मूड टोटली ऑफ है. खोपड़ी सन्न-गन्न है. टिफिन में थोड़ा सामान है. जरूरत पड़ेगी तो देख लेंगे, नहीं तो घर में ही फल-वल देखेंगे... और सुनो कुछ बनाना नहीं. सेंधा नमक जरूर निकाल कर रख देना... और सुनो एसी कम यूज करना. बिजली के बिल का मेसेज पेटीएम में आया है. कमीनों ने चार हजार का बिल भेजा है...' कमीना जैसे उस औरत का तकियाकलाम था.
संतोष को याद आया कि बचपन में उसके मोहल्ले की एक-दो मुसलमान औरतें बच्चों की मसकाई करते हुए कमीना जरूर बोलती थीं. हिंदू माताओं में नासपीटे और दहिजार का प्रचलन था. इन शब्दों ने ही जैसे धर्म का विभाजन कर दिया था. सो, यह सिद्ध होता था कि यह मुसाफिर प्योर मियांइन है. पता नहीं कौन सी खटिया में सोकर आई थी कि पूरे जहान से खफा दिख रही थी. बैग में ना जाने कौन ऐसी माया थी कि दो बार पेशाब करने गई और बैग साथ में लिए. वही बैग जिसमें महात्मा बुद्ध बने हुए थे. टॉयलेट से लौटकर आती तो और थकी लगती. फिर वही बोतल उठाकर गट-गट... खाया कुछ नहीं. ट्रेन में मिलने वाला अल्पाहार भी नहीं लिया. बस एक स्टील का टिफिन जरूर उसने निकालकर रखा था. एक बार भी खुला नहीं.
संतोष समझ गया कि यह मानसिक रूप से भी परेशान है. उसका थूथुन बता रहा था कि लगातार गुस्से के कारण उसके होंठ भी सूजे हैं. नाक भी फैली है. बस भगवान ने रंग पंजाबियों सा दे रखा था. उसके सामने वाले दोनों दांतों के बीच ठीकठाक गैप था, जो मुंह खुलने पर चेहरे पर प्रेम चोपड़ा जैसी खलनायकी भर देता था. संतोष को ऐसी औरतें बड़ी मायावी लगती थीं.
टीटीई के आने पर उसे थोड़ी उम्मीद बंधी कि उसका नाम सामने आ जाएगा. उसने बस चेहरे देखे. अपने टैब से सीट नंबर का मिलान किया. बस एक बच्चे को देखकर मां से उम्र पूछी. मां झूठ बोल रही थी. टीटीई साहब के कोट पर नाम दिख रहा था- निसार अहमद. बेहद मीठी आवाज में उसने कहा, 'बहन जी, झूठ बोलने से बच्चे को झूठ की ही तालीम मिलेगी. क्या चार पैसे बचाने के लिए आप भी. बच्चे का आई कार्ड, आधार कार्ड कहां है...' औरत खड़ी हो गई. सर-सर करने लगी. निसार अहमद मुस्कराकर आगे बढ़ गए. संतोष ने मन ही मन सोचा, कहां एक सज्जन निसार अहमद और एक सामने तोपना बेगम... पता नहीं क्यों उसे इस औरत से चिढ़ मचती जा रही थी. वह औरत भी इन्हें देखकर मुंह बिचकाए थी.
उस औरत ने एक काम और किया. ट्रेन में पढ़ने को मिलने वाला अंग्रेजी अखबार अपने कब्जे में कर लिया. अखबार पढ़ते हुए उसने डोरी वाला चश्मा लगा लिया. थोड़ा माथा सिकोड़कर पढ़ रही थी. या अंग्रेजी पढ़ते हुए कुछ ज्यादा ही मेहनत करनी पड़ रही थी. थोड़ी देर में उसने अखबार को तहा कर अपने टिफिन के नीचे दबा दिया. उसकी हिम्मत ही नहीं हुई कि बेगम साहिबा से अखबार मांग ले. बाध्य होकर उसने पड़ोसी का हिंदी अखबार ले लिया.
संतोष ने भी सामान समेटने की तैयारी शुरू कर दी. बोतल में बचा पानी खत्म किया. बोतल मेज पर ही रख दी. थोड़ा पानी उसके अंदर हिल रहा था. उसे लगा, कुछ गुनाह हो गया. वह औरत फिर चिढ़ी हुई दिखी. पर इस बार आवाज में सख्ती नहीं थी, 'भाईसाब बोतल का काम हो गया ना, हियां से हटा लीजिए... हमारा व्रत है और आपने झूठी बोतल टिफिन के पास रख दी... हद है... लोगों में सेंस ही नही होता...'
हिंदी अखबार की पहली ही खबर लव जेहाद को लेकर थी. इसमें बताया गया था कि सहारनपुर में एनुल बख्त ने अनिल आर्य बनकर राधिका से शादी कर ली. फिर बिजनौर ले जाकर धर्मपरिवर्तन कराया. पुलिस ने घरवालों की शिकायत पर एनुल को गिरफ्तार किया. पीड़ित लड़की ने बताया कि एनुल उसे दोस्तों के हवाले भी कर देता था... खबर पढ़कर उसका मूड खराब हो गया. वह कल्पना करने लगा, ऐसे लड़कों को कैसे बीच सड़क में गोली मारी जाए. सोचते-सोचते दिल धकधका गया. सामने वाली औरत आराम से धुंधुआ रही थी. उसके नीचे वाला होंठ लतरा ऐसा लटक कर अशोभनीय लग रहा था. संतोष को एकबारगी लगा कि इसके पास से बास भी आ रही है. जरूर नल्ला खाकर आई होगी. उसके दिमाग में एक बात घुस गई थी कि इनकी औरतें नहाती भी कम हैं. उसके दफ्तर में नसरीन पारचा नामक एक लड़की थी. देखने में सुंदर. पर संतोष को हमेशा लगता था कि जब यह ज्यादा पास आकर हंसती है तो छिछरही महक आती है. इसीलिए कैंटीन में वह उसके साथ बैठकर खाने से बचता.
इटावा आते ही आसपास की सवारियां उतर गईं. बस दो सवारियां चढ़ीं. इनमें भी एक बुर्केवाली. दूसरी जींस कुर्ते में. मां-बेटी थीं. उनके पास सिर्फ एक बैग था. उनका आत्मविश्वास बता रहा था कि वे इस रेलगाड़ी की नियमित मुसाफिर हैं. बुर्के वाली ने बैठते ही कहा, 'मर गए यार, चार्जर घर में रह गया. तुम्हारा तो लग भी नहीं सकता... इसीलिए कहते हैं जल्दी का काम शैतान का.... ' लड़की ने कहा, 'अंकल आपके पास चार्जर होगा.' संतोष ने हड़बड़ा कर कहा,'है, पर पिन चेक कर लीजिए.' लड़की ने देखा और कहा, 'चलेगा अंकलजी.' उसे अंकल सुनकर ज्यादा अच्छा तो नहीं लगा. पर उन दोनों की मुलायम आवाज ने उसे नरम कर दिया. लड़की ने पूछ भी लिया, 'अंकल आप लखनऊ जा रहे हैं.' उसने 'हां' कहकर अपना सिर खिड़की की तरफ घुमा लिया. ऐसे दिखाया कि वह उन आदमियों में नहीं है जो औरतों से बात करने को लालायित रहते हैं.
इस बीच वह तोपना बेगम जागकर आंखें मिचमिचा रही थीं. उनके होंठ से बही लार ने लिपस्टिक की सरहद को थोड़ा बढ़ा दिया था. संतोष ने अनुमान लगाया कि घटिया किस्म की लिपस्टिक अपनी औकात दिखा देती है. कई बार लगता है कि बिल्लो रानी की तरह देवी जी मूस हनन करके निकली हैं. खैर, यह अहसास उसे हो चला था. उसने बैग से चारखाने वाला रूमाल निकाल कर होठों की सफाई शुरू कर दी और मोबाइल से सेल्फी मोड में मुखड़ा देखते हुए होठों को कुदरती रंग के करीब ला दिया.
संतोष यह सब देख तो रहा था. पर बच-बच के. औरतों को लेकर हाल में जो कानून बने थे, उनसे वह डरने लगा था. पता नहीं ससुरी कौन सी धारा लग जाए. भीड़ में भी वह हाथ जेब में डाल लेता था, इस डर से कि कहीं झूलता हाथ किसी मोहतरमा के पृष्ठभाग से ना छू जाए.
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शताब्दी का सफर संतोष को हमेशा सूट करता था. कभी बोरियत हुई ही नहीं. पहली बार वह मनहूसी में सफर कर रहा था. इस औरत की वजह से. लंबे अंतराल के बाद कथित बेगम के मोबाइल में एक और फोन आया. इस बार वह थकी आवाज में बोल रही थी, 'हां नखलऊ आधे घंटे में आ ही रहा है... कह दिया ना, किसी को भेजना नहीं. हमारे पास समझो एक झोला, मल्लब बैग ही है... कहकर उसने स्टील का छोटा टिफिन खोला, देखा, फिर वहीं रख लिया. शायद उसे भूख लग आई थी.
संतोष ने भी सामान समेटने की तैयारी शुरू कर दी. बोतल में बचा पानी खत्म किया. बोतल मेज पर ही रख दी. थोड़ा पानी उसके अंदर हिल रहा था. उसे लगा, कुछ गुनाह हो गया. वह औरत फिर चिढ़ी हुई दिखी. पर इस बार आवाज में सख्ती नहीं थी, 'भाईसाब बोतल का काम हो गया ना, हियां से हटा लीजिए... हमारा व्रत है और आपने झूठी बोतल टिफिन के पास रख दी... हद है... लोगों में सेंस ही नही होता...'
'ओ, सॉरी सॉरी...वैरी सॉरी... आज शायद एकादशी का व्रत है.'
संतोष बेअंदाज हो गया, 'मेरी वाइफ भी रखती है.'
उस औरत ने संतोष की बात पर कुछ गौर नहीं किया. बस उपेक्षित सा 'हूं' किया और टिफिन से निकालकर भुने हुए मखाने खाती रही. चेहरे पर महान शांति के साथ. लग रहा था, आहार ग्रहण में भी ध्यान होता है.
और संतोष ठाकुर का तो मानोमियादी बुखार ही उतर गया था. शीशे पर आंख लगाकर उसने देखा, सचमुच लखनऊ दिखने लगा था.
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