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...आखिर किन वजहों से 'खल वंदना' को मजबूर हुए होंगे बाबा Tulsidas?

दुष्टों की यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसी का भी हित सुनकर जलते हैं.

...आखिर किन वजहों से 'खल वंदना' को मजबूर हुए होंगे बाबा Tulsidas?
Tulsidas.

सन इव खल परबंधन करई। खाल कढाइ दुसह दुख सहई।।
 
अभी बैठे ठाले बाबू जी से तुलसी बाबा की चर्चा होने लगी. बात की बात में मानस के बालकांड की बात होने लगी. बाबू जी कहने लगे- तुलसी बाबा को खलों ने कितना सताया होगा कि मानस जैसे ग्रंथ जो कि नितांत भक्ति भाव से लिखा गया, उसकी शुरुआत में खलों (दुष्ट जनों) की वंदना ही कर दी महराज ने. कुछ तो चौपाइयां मैं जानता था. उत्सुकता वश बालकांड पढ़ने लगा. कितने रोचक ढंग से तुलसीदास जी ने वंदना की है और किस किस तरह की उपमाएं दी हैं कि कालिदास भी प्रणाम करें. लीजिये प्रस्तुत है-

बहुरि बंदि खल गन सतिभाएं। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएं॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥॥

भावार्थ:-अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूं जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं. दूसरों के हित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है.

हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥
जे पर दोष लखहिं सहसाखी. पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥॥

भावार्थ:-जो हरि और हर के यश रूपी पूर्णिमा के चन्द्रमा के लिए राहु के समान हैं (अर्थात जहां कहीं भगवान विष्णु या शंकर के यश का वर्णन होता है, उसी में वे बाधा देते हैं) और दूसरों की बुराई करने में सहस्रबाहु के समान वीर हैं. जो दूसरों के दोषों को हजार आंखों से देखते हैं और दूसरों के हित रूपी घी के लिए जिनका मन मक्खी के समान है (अर्थात्‌ जिस प्रकार मक्खी घी में गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरों के बने-बनाए काम को अपनी हानि करके भी बिगाड़ देते हैं).

तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥॥

भावार्थ:-जो तेज (दूसरों को जलाने वाले ताप) में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं, पाप और अवगुण रूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं, जिनकी बढ़ती सभी के हित का नाश करने के लिए केतु (पुच्छल तारे) के समान है और जिनके कुम्भकर्ण की तरह सोते रहने में ही भलाई है.

पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
बंदउं खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥॥

भावार्थ:-जैसे ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरों का काम बिगाड़ने के लिए अपना शरीर तक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टों को (हजार मुख वाले) शेषजी के समान समझकर प्रणाम करता हूं, जो पराए दोषों का हजार मुखों से बड़े रोष के साथ वर्णन करते हैं.

पुनि प्रनवउं पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥॥

भावार्थ:-पुनः उनको राजा पृथु (जिन्होंने भगवान का यश सुनने के लिए दस हजार कान मांगे थे) के समान जानकर प्रणाम करता हूं जो दस हजार कानों से दूसरों के पापों को सुनते हैं। फिर इन्द्र के समान मानकर उनकी विनय करता हूं, जिनको सुरा (मदिरा) नीकी और हितकारी मालूम देती है (इन्द्र के लिए भी सुरानीक अर्थात्‌ देवताओं की सेना हितकारी है).

बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥

भावार्थ:-जिनको कठोर वचन रूपी वज्र सदा प्यारा लगता है और जो हजार आंखों से दूसरों के दोषों को देखते हैं.

दोहा:

उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥

भावार्थ:-दुष्टों की यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसी का भी हित सुनकर जलते हैं. यह जानकर दोनों हाथ जोड़कर यह जन प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है.

Rahul Dwivedi

चौपाई:

मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥

भावार्थ:-मैंने अपनी ओर से विनती की है, परन्तु वे अपनी ओर से कभी नहीं चूकेंगे. कौओं को बड़े प्रेम से पालिए, परन्तु वे क्या कभी मांस के त्यागी हो सकते हैं?

और अंत में 

बंदउं संत असज्जन चरना। उभय मध्य दुःखप्रद कछु बरना 
मिलत एक दारुन दुःख देहीं। बिछुरत एक प्रान हर लेहीं।

(राहुल द्विवेदी भारत सरकार के  दूरसंचार विभाग  में अवर सचिव हैं. हिंदी में रोचक निबंध लिखते हैं. यह आलेख उनकी फेसबुक वॉल से साभार प्रकाशित किया जा रहा है.)