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Karnataka Polls 2023: लिंगायत जिसके साथ सत्ता उसकी, क्यों मजबूत है ये समुदाय, क्या है सियासी ताकत?

लिंगायत 12वीं शताब्दी के समाज सुधारक बासवन्ना के अनुयायी हैं, जिन्होंने मूर्ति पूजा और जातिगत भेदभाव को चुनौती दी थी. वह सभी लिंग और धर्मों के लिए समानता का धर्म चाहते थे. कई पिछड़ी जाति के लोग कठोर हिंदू जाति व्यवस्था से बचने के लिए लिंगायत बन गए.

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राहुल गांधी भी लिंगायत धर्मगुरुओं से कर्नाटक में मुलाकात कर रहे हैं.

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डीएनए हिंदी: कर्नाटक में अगर किसी सियासी दल को चुनाव में जीतना है तो उसे लिंगायतों का दिल जीतना पड़ता है. लिंगायत कर्नाटक में सत्ता के सूत्रधार हैं और इस बात को हर सियासी पार्टी बाखूबी जानती है. लिंगायत एक धार्मिक समुदाय है, जो इतना प्रभावी है कि सूबे की सत्ता पर कौन बैठेगा, यह तय करता है.

बीजेपी हो या कांग्रेस हर पार्टी इस समुदाय को रिझाने की पूरी कोशिश कर रही है. लिंगायतों की संख्या कर्नाटक की आबादी का लगभग 18 प्रतिशत है. पूरे राज्य में जितने अहम पद हैं, उन पर लिंगायत समुदाय के लोग बैठे हैं. मंत्रिमंडल से लेकर न्यायपालिका और कार्यपालिका तक, कर्नाटक में इस समुदाय का जलवा है. 

समुदाय के प्रभुत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जातीय समीकरणों को तोड़कर राजनीति करने वाली बीजेपी भी लिंगायत मोह से बाहर नहीं आ रही है. 

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हिंदुओं से कैसे अलग हैं लिंगायत?

लिंगायत 12वीं शताब्दी के एक कवि बासवन्ना का अनुसरण करते हैं, जिन्होंने मंदिर पूजा और जातिगत भेदभाव को चुनौती दी थी. वह सभी लिंग और धर्मों के लिए समानता का धर्म चाहते थे. कई पिछड़ी जाति के लोग कठोर हिंदू जाति व्यवस्था से बचने के लिए लिंगायत बन गए थे. देखते-देखते यह समुदाय खुद एक धर्म बन गया.

क्या है लिंगायतों की पूजा पद्धति?

लिंगायत खुद को हिंदू नहीं मानते हैं. लिंगायतों का मानना है कि वे हिंदू नहीं हैं क्योंकि वे लिंग या जाति की परवाह किए बिना सभी के साथ समान व्यवहार करते हैं. वे हिंदू रीति-रिवाजों का पालन नहीं करते हैं. उनकी वेदों में आस्था नहीं है. वे शिव को एक निराकार आत्मा (इष्ट लिंग) के रूप में पूजते हैं. वह शिव की उस अवधारणा को भी खारिज करते हैं जिसमें उनके गले में सांप, माथे पर गंगा और चंद्रमा नजर आते हैं. वह मूर्ति पूजा को खारिज करते हैं.

कर्नाटक में इतने कद्दावर कैसे हैं लिंगायत?

लिंगायत कर्नाटक की बहुसंख्यक आबादी है. राज्य के उत्तरी हिस्से में वे बेहद प्रभावशाली हैं. दक्षिण में भी सियासत पर उनकी मजबूत पकड़ है. उनके पास अलग-अलग दलों के 54 विधायक हैं, जिनमें ज्यादातर भारतीय जनता पार्टी (BJP) के हैं. साल 1952 से 23 मुख्यमंत्रियों में से 10 लिंगायत थे. लिंगायत आबादी का 17 फीसदी हैं. कर्नाटक में वोक्कालिगा 15 फीसदी, ओबीसी 35 फीसदी, एससी-एसटी 18 फीसदी, मुस्लिम करीब 12.92 फीसदी और ब्राह्मण करीब तीन फीसदी हैं.

लिंगायतों को साथ दोबारा पाएगी बीजेपी?

कर्नाटक में बीजेपी के सबसे बड़े नेता बीएस येदियुरप्पा रहे हैं. उनका कार्यकाल पूरा होने से पहले ही बीजेपी ने उन्हें जबरिया रिटायर कर दिया. मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद भी येदियुरप्पा ही बीजेपी की सियासत तय कर रहे हैं. बीजेपी इस राज्य में विकल्पहीन है. जब बीजेपी ने उन्हें पद से हटाया तो सारे लिंगायत बीजेपी के खिलाफ हो गए.

बीजेपी ने उन्हें केंद्रीय नेतृत्व में एक बड़ी भूमिका दी और फिर येदियुरप्पा से कहा कि वे लिंगायतों की नाराजगी पार्टी के खिलाफ खत्म करें. डैमेज कंट्रोल के लिए बीजेपी ने मुसलमानों से 4 प्रतिशत ओबीसी कोटा ले लिया और लिंगायत और वोक्कालिगा को 2 प्रतिशत आवंटित किया.

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बीजेपी सरकार ने मुसलमानों को 10 प्रतिशत आर्थिक तौर पर पिछड़े वर्ग में ट्रांसफर कर दिया. दूसरी ओर, कांग्रेस ने कहा है कि अगर वह सत्ता में आई तो मुसलमानों के लिए कोटा बहाल कर देगी.

लिंगायतों को कैसे रिझा रही है कांग्रेस?

लिंगायत काफी हद तक बीजेपी के प्रति वफादार रहे हैं लेकिन कांग्रेस यथास्थिति को बदलना चाहती है. हाल ही में दो बड़े लिंगायत नेता लक्ष्मण सावदी और जगदीश शेट्टार बीजेपी से कांग्रेस में शामिल हुए. कांग्रेस शीर्ष लिंगायत नेताओं के पार्टी छोड़ने पर बीजेपी पर हमला करती रही है. हर नेता अपने साथ एक निश्चित वोट बैंक साथ लेकर दूसरी पार्टी में शामलि होता है. राहुल गांधी ने अपने लगभग सभी चुनावी भाषणों में कहा है कि आरएसएस और बीजेपी लिंगायत गुरु वासवन्ना की मान्यताओं के खिलाफ हैं.

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