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आलोक मिश्रा शिक्षक हैं और शिक्षकों के लिए बच्चों के बालमन को समझने पर उनका जोर रहता है. उनकी किताब की समीक्षा महेश पुनेठा ने लिखी है.
Bacche Machiene Nahi Hain Book Review : मुझे गिजुभाई (Gijubhai Badheka) द्वारा लिखी "दिवास्वप्न" बहुत पसंद है. इसके पीछे कारण है, इसका प्रत्यक्ष अनुभव से जुड़ा होना. ऐसी किताबें एक शिक्षक के रूप में मुझे हमेशा समृद्ध करती रही हैं. कक्षा में नए प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित करती हैं. इस वर्ष शिक्षा के प्रत्यक्ष अनुभवों से जुड़ी तीन किताबें प्रकाशित हुईं. पहली, अनुपमा तिवारी की "शिक्षक अपने को तराशता है", दूसरी दिनेश कर्नाटक की "शिक्षा में बदलाव की चुनौतियां" और तीसरी किताब है आलोक कुमार मिश्र की "बच्चे मशीन नहीं है" (Bacche Machiene Nahi hain). पहली दो किताबों पर मैं पहले टिप्पणी कर चुका हूं. इन दिनों मैंने आलोक कुमार मिश्र की किताब पढ़कर पूरी की है. यहां उस पर ही बात करूंगा.
दिलचस्प उदाहरणों से भरी है किताब
यह किताब एक शिक्षक की नजर में विद्यार्थी और शिक्षा को हम सबके सामने रखती है. शिक्षा के लगभग हर व्यवहारिक पहलुओं पर पूरी जिम्मेदारी और संवेदनशीलता से बात करती है. शिक्षा नीति के विभिन्न मुद्दों पर टिप्पणी करती चलती है. इस किताब में छोटे बड़े 32 आलेख हैं. हर आलेख पठनीय है. इन आलेखों की सबसे बड़ी खूबसूरती है कि इनमें अपनी बात उदाहरणों के द्वारा स्पष्ट की गई है और एक शिक्षक के रूप में तमाम ऐसी गतिविधियां इसमें दी गई हैं, जिनको हम अपने कक्षा कक्ष में प्रयोग कर सकते हैं. इसलिए केवल सैद्धांतिक समझ ही नहीं बढ़ाती है बल्कि व्यवहारिक उपाय भी सुझाती है. इस किताब को पढ़ते हुए डायरी पढ़ने का सा आस्वाद प्राप्त होता है. बोरियत नहीं होती. हम अपने आप को लेखक के साथ जोड़ लेते हैं,हमें अपने अनुभव भी याद हो आते हैं,धीरे धीरे हमारी बालमन और शिक्षा को लेकर समझ गहरी होती जाती है. साथ ही हमारी संवेदनशीलता का विस्तार होता है. यह किताब शिक्षक के सामने आने वाली चुनौतियों को बताने के साथ ही एक शिक्षक को आत्मावलोकन करने के लिए प्रेरित करती है. यह पुस्तक हमें दिल्ली में शिक्षा के क्षेत्र में जो नए प्रयोग पिछले कुछ सालों में प्रारंभ हुए हैं, उनसे हमारा परिचय कराती है. दिल्ली के शिक्षा के मॉडल को अच्छी तरह से समझने का एक अवसर प्रदान करती है. साथ ही केरल के मॉडल पर भी इसमें एक संस्मरणात्मक आलेख दिया गया है, जिससे केरल की शिक्षा के बारे में बहुत कुछ रोचक जानकारी मिलती है.
लेख में शामिल हैं जेंडर को लेकर जरूरी सवाल
भाषा और सामाजिक विज्ञान के शिक्षकों के लिए यह पुस्तक विशेष रूप से पठनीय और उपयोगी है क्योंकि स्वयं लेखक सामाजिक विज्ञान के शिक्षक के रूप में कार्य कर चुके हैं. उन्हें कक्षा कक्ष का व्यवहारिक अनुभव है. अच्छी बात यह है कि आलोक केवल विषय विशेष को पढ़ाने के बारे में ही बात नहीं करते हैं बल्कि बच्चों में संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों को किस तरह से विकसित किया जा सकता है, इस बारे में भी अपने अनुभव और प्रयोगों के आधार पर बताते हैं. जेंडर के प्रति भी संवेदनशील करते हैं. जाति और धर्म के मसले पर भी अपना तार्किक पक्ष प्रस्तुत करते हैं. उनकी कोशिश दिखाई देती है कि किसी भी तरह की पहचान उनके विमर्श में आने से न रह जाए. इसीलिए थर्ड जेंडर के परिप्रेक्ष्य को भी सामने रखते हैं. इससे उनके लोकतांत्रिक होने का प्रमाण मिलता है.
शिक्षकों से बालमन को समझकर पढ़ाने का आग्रह
वह इस बात पर भी बल देते हैं कि शिक्षकों को बालमन को समझकर शिक्षण करने के लिए किताबों का अध्ययन करना जरूरी है. इस बात को स्वीकार करने में कोई झिझक नहीं कि शिक्षक समाज में अध्ययन की प्रवृति बहुत कम है. यदि अपने शिक्षण को बेहतर करना है तो किताबों से दोस्ती तो करनी ही पड़ेगी. यदि खुद शिक्षक नहीं पढ़ेंगे तो फिर भला बच्चों को स्वाध्याय के लिए कैसे प्रेरित कर सकेंगे. बच्चों को सही तरह से समझने पर आलोक का विशेष आग्रह है. वह बच्चों को लेकर प्रचलित अवधारणाओं पर भी चोट करते हैं. बच्चे मशीन नहीं है, बच्चे कोरे कागज नहीं है, बच्चे और राजनीति, संस्कृतियों के घेरे में बचपन आदि कुछ ऐसे आलेख हैं, जिनको पढ़ते हुए उनकी बालमन की समझ और बच्चों के प्रति संवेदनशीलता को महसूस किया जा सकता है. बालमन और शिक्षा की सही समझ होने पर ही एक प्रभावशाली शिक्षण संभव है. बच्चों को लेकर उनका यह सुझाव बहुत महत्वपूर्ण है," बच्चों को बच्चा तो समझा जाना चाहिए पर बच्चे का मतलब अनाड़ी नहीं है. कहने का तात्पर्य है कि उन्हें हमें अपने परिवेश की जीवन तो सामाजिक सांस्कृतिक इकाई मानकर आगे बढ़ना होगा. एक ऐसी इकाई, जो अपने अवलोकन, अवसरों के दोहन, गलतियों और प्रयासों से निरंतर सीखती है. सीखने की यह प्रक्रिया समता, स्वतंत्रता से पूर्ण वातावरण में संपन्न की जानी चाहिए." वह बच्चों को कितना महत्व देते हैं ,इस बात का पता उनके "बच्चों से भी सीखें" विषयक आलेख से मिलता है. बच्चों से सीखने की बात वही शिक्षक कर सकता है, जो बच्चों को मिट्टी का लौदा, खाली बर्तन या कच्चा घड़ा न मानता हो और उनकी गरिमा का ध्यान रखता हो. यह माना भी जाता है कि बच्चे वहीं सबसे अच्छी तरह सीखते हैं,जहां उनकी गरिमा का सम्मान होता है.
शिक्षा एक राजनीतिक मसला है
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के बारे में भी इस पुस्तक में एक आलेख है, जो लेखक की शिक्षा की सही और गहरी समझ को बताता है. यह आलेख बहुत गहराई से नई शिक्षा नीति की पड़ताल करता है. उन पूर्वाग्रहों और अंतर्विरोध को सामने लाता है, जो नई शिक्षा नीति में है. अकेले इस आलेख के लिए भी इस पुस्तक को पढ़ा जाना चाहिए. उनकी इस बात से मेरी पूरी सहमति है," शिक्षा भी अंततः राजनीति मसला ही है वह अपने समय की वर्चस्वशाली शासकीय विचारधारा और हितों को बखूबी अभिव्यक्त करती है. वैसे जब हम ऐसी नीतियों में विविध हितों के प्रतिनिधित्व और उन्हें समाहित करने के लिए आवाज उठाते हैं, तब यह लोकतांत्रिक प्रयास भी अंततः राजनीतिक ही होते हैं." मेरा मानना है कि एक शिक्षक को अपने समाज, राजनीति, इतिहास, अर्थव्यवस्था की समझ होना बहुत जरूरी है. ऐसा शिक्षक ही जिम्मेदार संवेदनशील और जागरूक, नागरिक तैयार कर सकता है. आलोक कुमार मिस्र इस कसौटी में खरे उतरते हैं. एक शिक्षक की भूमिका को सही रूप में निर्वहन करने के लिए इस किताब को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए. पढ़ना तो इसे अभिभावकों को भी चाहिए क्योंकि इसे पढ़ते हुए उन्हें समझ में आएगा कि बच्चे का सही रूप में विकास किस तरह से होना चाहिए और असली मायनों में शिक्षा का अर्थ क्या होता है. साथ ही यह बात भी समझ में आएगी कि बच्चे मशीन नहीं है और उनको अंकों की दौड़ ने वाली रोबोट मशीन बनाए जाने का कोई भी प्रयास उन्हें बर्बाद करने वाला ही होगा.
Book Review: पुस्तक श्रृंखला ‘कालजयी कवि और उनका काव्य'
एक शिक्षक के लिए अपने अनुभवों को लिखना क्यों जरूरी है, यह किताब उसका उत्तर भी देती है. सोचिए, यदि आलोक अपने अनुभवों को दर्ज नहीं करते तो हम इतने महत्वपूर्ण और उपयोगी विचारों और प्रयोगों से वंचित हो जाते. इसलिए मेरा हमेशा शिक्षक साथियों से आग्रह रहता है कि वे अपने अनुभवों को अवश्य लिखें. साथ ही इस तरह की अनुभवजनित किताबों को पढ़ें.
क़िताब- 'बच्चे मशीन नहीं हैं'
लेखक- आलोक कुमार मिश्रा
प्रकाशक- अगोरा प्रकाशन, वाराणसी, उत्तर प्रदेश
प्रकाशन वर्ष- 2022
कीमत- 210 रुपए
(पुस्तक की समीक्षा महेश पुनेठा ने लिखी है. वह बच्चों की शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए काम करते हैं. शैक्षिक दखल नाम की पत्रिका का संपादन भी करते हैं.)
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