डीएनए एक्सप्लेनर
हेल्थ एक्सपर्ट्स अब ऑर्गेनिक फूड खाने की सलाह देते हैं. खाद और रासायनिक पदार्थों के इस्तेमाल से पैदा हुए खाद्य उत्पाद स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल रहे हैं.
मिडीएनए हिंदी: भारत जैसे कृषि प्रधान देश की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा खेती से आता है. किसान अपने खेतों से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना चाहते हैं. उत्पादन बढ़ाने के लिए वे तरह-तरह की रासायनिक खादों और जहरीले कीटनाशकों का इस्तेमाल कर रहे हैं. ये रासायनिक पदार्थ न केवल खेतों की उर्वरता प्रभावित कर रहे हैं बल्कि लोगों के स्वास्थ्य पर भी गलत असर डाल रहे हैं.
न्यूट्रिप्लस की डायरेक्टर और सीनियर क्लीनिकल न्यूट्रिनिस्ट डॉक्टर अंजली पाठक कहती हैं कि इंसेक्टिसाइड और पेस्टिसाइड के इस्तेमाल के बाद खेत में उगाए गए फूड प्रोडक्ट्स सेहत के लिए ठीक नहीं होते हैं. ऑर्गेनिक फूड में ऐसे तत्व नहीं होते हैं जो सेहत को नुकसान पहुंचाएं. यही वजह है कि जागरूक आबादी, ऑर्गेनिक फूड खाने पर जोर दे रही है और जैविक खेती करने का चलन तेजी से बढ़ गया है.
क्या होती है जैविक खेती?
शैलिन फार्मिंग सॉल्यूशंस प्राइवेट लिमिटेड के संस्थापक शैलव मंझखोला कहते हैं कि उर्वरकों और रासायनिक कीटनाशकों के बिना की जाने वाली खेती, जैविक खेती कहलाती है. जैविक खेती में जीवांश के इस्तेमाल से फसलों तक पोषण पहुंचाया जाता है.
जैविक खेती में रासायनिक, खाद, जहरीले कीटनाशकों की जगह पर जैविक खाद का इस्तेमाल किया जाता है. जैविक खेती से जमीन की उर्वरता हमेशा अच्छी बनी रहती है, जमीन में मौजूद पोषक तत्व खत्म नहीं होते और मिट्टी हमेशा पोषण से भरपूर रहती है. उवर्रकों के ज्यादा इस्तेमाल से जमीन ऊसर हो सकती है, जहां अगर रसायन न डाले जाएं तो फसल उग नहीं सकती है.
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जैविक खेती में कैसे मिलता है फसलों को पोषण?
गोबर, कचरा और बारीक छनी हुई मिटटी के इस्तेमाल से नाडेप तैयार की जाती है. नाडेप के कई प्रकार होते हैं, जिन्हें जैविक खेती के लिए इस्तेमाल किया जाता है. पिट कम्पोस्ट से भी फसलों को पोषण दिया जाता है. वानस्पतिक पदार्थ कचरा, डंठल, टहनियां, पत्तियां, बायोगैस स्लरी, वर्मी कम्पोस्ट और हरी खाद फसलों को पर्याप्त पोषण देते हैं. प्राकृतिक खाद बनाने की कई विधियां होती हैं, जिनके बारे में सरकार समय-समय पर कृषि विशेषज्ञों के जरिए जानकारी देती है.
कैसे की जाती है जैविक खेती?
शैलिन फार्मिंग सॉल्यूशंस प्राइवेट लिमिटेड के सहसंस्थापक नितिन ड्यूंडी कहते हैं कि जैविक खेती के लिए रसायन और उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं होता है. कुछ फसलों को नर्सरी में तैयार किया जाता है, कुछ फसलों की सीधी बुवाई होती है. किसान अपनी फसलों के पोषण के लिए गो-मूत्र, गोबर, नीम उत्पाद, कंपोस्ट, इपोमिया की पत्ती का घोल, मट्ठा, मिर्च, लहसुन, राख, केंचुआ और सनई-ढैंचा जैसे प्राकृतिक रूप से मिलने वाले तत्वों का इस्तेमाल करते हैं.
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किसान इन्हीं उत्पादों से कीटनाशक भी तैयार करते हैं. मट्ठा, नीम, मिर्स, लहसुन के पेस्ट का छिड़काव फसलों पर भी किया जाता है. जैविक खेती के लिए किसानों को सही ट्रेनिंग की जरूरत होती है, जिसकी जानकारी किसान, अपने जिले या तहसील के कृषि विभाग से ले सकते हैं. सरकार द्वारा चलाए गए स्थानीय कार्यक्रमों, दूरदर्शन, रेडियो और और दूसरे कृषि चैनलों पर जैविक खेती के बारे में देश के मशहूर कृषि विशेषज्ञों से जानकारी हासिल की जा सकती है.
ऑर्गेनिक खेती की क्या हैं चुनौतियां?
नितिन ड्यूंडी कहते हैं कि उवर्रक और आधुनिक खेती ने फसलों का उत्पादन कई गुना बढ़ा दिया है. ऑर्गेनिक खेती के शुरुआती 3 से 4 साल किसानों के लिए फायदेमंद नहीं होते हैं. अगर बहुत अच्छी फसल है तो सामान्य से 30 फीसदी कम फसल, अगर अनुकूल परिस्थितियां नहीं हैं तो 50 फीसदी तक कम फसल पैदा होती है.
नितिद ड्यूंडी का कहना है कि शुरुआती दौर में फसलों के उत्पादन में आई इस कमी को किसान समझ नहीं पाते हैं. सही बाजार और ग्राहक न मिलने की वजह से उन्हें घाटा होता है. उन्हें देखकर दूसरे किसान भी यह साहस नहीं कर पाते हैं. ऑर्गेनिक खेती करने वाले किसान 3 से 4 साल बाद फायदे का सौदा करने लगते हैं.
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ऐसा नहीं है कि यह बोझिल और घाटे की प्रक्रिया है. जिन जमीनों पर इनऑर्गेनिक फसल या पारंपरिक खेती की जाती है, वहां की उर्वरता काफी हद तक यूरिया, फास्फोरस और दूसरे कृषि उवर्रकों पर निर्भर रहती है. जैविक खेती या ऑर्गेनिक खेती के लिए जमीनें पूरी तरह 3 से 4 साल में तैयार होती हैं. एक बार जमीन तैयार हो जाए तो ऐसी जमीनों पर खेती करना फाएदे का सौदा होता है.
ऑर्गेनिक उत्पादों की पहचान कैसे करें?
जैविक खेती करने वाले किसानों से कोई खाद्य कंपनी जब फसल खरीदती है तो पहले खेती की प्रक्रिया की जांच करती है. प्रॉसेस और प्रॉडक्ट दोनों की जांच कृषि विशेषज्ञ करते हैं. उत्तराखंड में उत्तराखंड स्टेट ऑर्गेनिक सर्टिफिकेशन एजेंसी (USOCA) जैविक खेती की पूरी प्रक्रिया देखती है. फसल की रोपाई, बुवाई से लेकर उसकी सींचाई तक, हर प्रक्रिया की जांच यह संस्था करती है. कुछ प्रक्रियाओं की जांच 2 साल तक की जाती हैं, कुछ की 3 साल तक. 3 साल के बाद यह संस्था सर्टिफिकेट देती है कि इस खेत या फर्म से निकलने वाले उत्पाद ऑर्गेनिक होते हैं. हर साल इसे रिन्यू कराना होता है.
दूसरा तरीका यह होता है कि आप अपने उत्पाद को किसी फूड लैब में भेज दें. वहां लैब में कीटनाशक और रासायनिकों की जांच हो जाती है. इससे आपको पता चल जाएगा कि आपका उत्पाद जैविक है या नहीं. इन्फेंटिसाइड और पेस्टिसाइड की रिपोर्ट लैब दे देते हैं और आपको पता चल जाता है कि आपका उत्पाद जैविक है या नहीं. वहां से आपको सर्टिफिकेट मिल जाता है. ऑर्गेनिक सर्टिफिकेट तभी मिलता है, जब आपका पूरा प्रॉसेस सर्टिफाई हो.
जैविक खेती के लिए क्या कर रही है सरकार?
केंद्र सरकार का जोर है कि फॉर्मर प्रोड्यूसर ऑर्गेनाइजेशन (FPO) को बढ़ाया जाए. एफपीओ के जरिए किसानों को सही बाजार मिल जाता है. उनकी खुद की एक कंपनी होती है, जिसमें वे मालिक की भूमिका में होते हैं. छोटे-छोटे किसान मिलकर बड़े उत्पाद बेच सकते हैं.
किसान उत्पादक संगठन (FPO) बाजार में उत्पादों की पहुंच आसान करने से लेकर उनकी सप्लाई तक, किसानों के साथ खड़े रहते हैं. किसानों को अपने उत्पाद का सही दाम मिलता है. FPO के जरिए किसान को बीज, खाद, मशीनरी, मार्केट लिंकेज, ट्रेनिंग, नेटवर्किंग, वित्तीय मदद भी मिलती है. सरकार ने देशभर में हजारों किसान उत्पादक संगठन की स्थापना कर रही है. इसकी वजह से किसानों को सीधे लाभ हो रहा है. छोटे-छोटे किसान मिलकर एक FPO बना लेते हैं और अपनी फसलें भेजते हैं.
नितिन ड्यूंडी कहते हैं कि उत्तराखंड के चमोली और टिहरी जिलों में किसान व्यापक स्तर पर ऐसा कर रहे हैं. इसी योजना का प्रसार देशव्यापी हो जाए तो किसानों की जिंदगी बदल जाएगी.
ऑर्गेनिक खेती करने से डरते क्यों हैं किसान?
ऑर्गेनिक खेती की उपज, पारंपरिक खेती की तुलना में 50 से लेकर 30 फीसदी तक कम हो सकती है. खेतों को रासायनिक खाद की आदत होती है. अचानक से ऑर्गेनिक फॉर्मिंग पर शिफ्ट होने की वजह से उत्पादकता बुरी तरह कम हो जाती है. किसान अपनी फसलों पर सालभर की पूंजी लगाता है. उसके पास इतनी पूंजी नहीं होती है कि 2 से 3 साल तक बिना मुनाफे की खेती कर सके. ऐसे में किसान अनऑर्गेनिक से ऑर्गेनिक खेती की प्रक्रिया में आर्थिक तौर पर जूझता है.
हर किसान को सही बाजार मिल जाए यह जरूरी नहीं है. उस क्षेत्र में ऑर्गेनिक उत्पाद खरीदने वाले लोग कितने हैं, इस पर भी किसान का मुनाफा टिका होता है. आम आदमी के लिए दोनों फसलें एक सी होती हैं लेकिन ऑर्गेनिक प्रोडक्ट्स खरीदने वाली क्लास अलग है. बाजार भी अधिकांश शहरी ही है. ऐसे में हर किसान को सही प्लेटफॉर्म मिल पाए, यह दुर्लभ है. किसान हमेशा इसी जोखिम में रहता है. इसके अलावा मौसम भी किसानों के लिए बड़ी चुनौती है. कीटनाशकों का इस्तेमाल ऑर्गेनिक खेती में नहीं होता है, ऐसे में फसलों के लिए कीड़े भी किसी चुनौती से कम नहीं होते हैं. फसलों की सुरक्षा भी किसानों के लिए बड़ी चुनौती है.
जैविक खेती पर क्या कहते हैं किसान?
श्यामा मौर्य, ऑर्गेनिक खेती करते हैं. सिद्धार्थनगर के एक छोटे से गांव में 4 बीघे में ऑर्गेनिक खेती करने वाले श्यामा बताते हैं कि शुरुआत में मुझे लगा कि यह घाटे का सौदा है. मुझे लगातार घाटा हो रहा था. धीरे-धीरे प्राकृतिक तौर से उगाए जाने वाले फसलों के लाभ के बारे में लोगों को पता लगा. अब मुझसे सीधे लोग सब्जियां खरीदने आ जाते हैं. श्यामा मोटे अनाज की खेती का भी प्लान बना रहे हैं. वह दूसरी की तुलना में सब्जी महंगे रेट पर बेचते हैं लेकिन उनकी सब्जियों की धाक इलाके में खूब है.
जैविक खेती का कितना बड़ा है कारोबार?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने करीब एक साल पहले कहा था कि देश में जैविक उत्पादों का बाजार 11000 करोड़ तक पहुंच गया है. निर्यात 6 साल पहले के 2,000 करोड़ रुपये से बढ़कर अब 7000 करोड़ रुपये से अधिक हो गया है. लोग पर्यावरण के अनुकूल जीवन शैली अपना रहे हैं, जिसकी वजह से जैविक उत्पादों की मांग बढ़ी है. किसानों को जैविक खेती पर जोर देना चाहिए.
क्यों सेहत के लिए जरूरी हैं ऑर्गेनिक फूड?
डॉक्टर अंजली पाठक का कहना है कि ऑर्गेनिक फूड, दूसरे खाद्य पदार्थों की तुलना में ज्यादा महंगे हैं लेकिन इनके लाभ अनेक हैं. ऑर्गेनिक फूड केमिकल और खतरनाक उर्वरकों के इस्तेमाल से नहीं उगाए जाते हैं. ऐसे में इनमें मौजूद विटामिन, ऑर्गेनिक कंपाउड और मिनिरल की गुणवत्ता किसी बाहरी केमिकल के साथ रिएक्शन करके प्रभावित नहीं होती है.
डॉ. अंजली पाठक का कहना है कि ऑर्गेनिक फूड उगाने में किसान किसी भी तरह के एंटीबायोटिक, ग्रोथ हॉर्मोन और वैक्सीन का इस्तेमाल नहीं करते हैं. ऐसे में खाद्य पदार्थ अपनी प्राकृतिक अवस्था में होते हैं. प्राकृतिक तरीके से उगाई गई फसलें का स्वाद भी अच्छा होता है और उनमें पोषक तत्व भी भरपूर होते हैं.
क्यों खाद-उर्वरकों पर निर्भर हो गए किसान?
भारत में साल 1965 के बाद शुरू हुई हरित क्रांति ने किसानों की मानसिकता ऐसी बदली कि किसान अच्छी उपज के लिए खेतो में अंधाधुंध उवर्करों का इस्तेमाल करने लगे. भारत में हरित क्रांति के जनक कहे जाने वाले एमएस स्वामीनाथन ने 1966-67 के बाद देश की तकदीर बदलकर रख दी थी. खेते में उर्वरकों का अंधाधुंध इस्तेमाल होने लगा था. ऐसे कृषि उत्पादों की वजह से अब लोगों का स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है. यही वजह है कि जैविक खेती का चलन बढ़ गया है.
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