डीएनए स्पेशल
सुभाष नीरव एक ऐसे रचनाकार हैं जो विधा की किसी बंधी-बंधाई परिपाठी का अनुसरण नहीं करते बल्कि खुले आसमान में अपने लिए एक स्पेस बनाते हैं.
- संदीप तोमर
आलोचक भले ही लघुकथाओं को तवज्जो न देते हों, भले ही वो गद्य में कहानियों का युग होने की बात करते हों लेकिन फिर भी अनेक लघुकथाकारों ने इस विधा में अपनी उपस्थिति दर्ज की है और अपनी लेखन क्षमता से उन्होंने हमें चौंकाना नहीं छोड़ा है, यह एक शुभ संकेत हैं . लघुकथाएं लिखी जा रही हैं और खूब लिखी जा रही हैं. फेसबुक ने भी तुरंत लघुकथाकारों की एक पूरी पीढ़ी को ही जन्म दिया है. इन सबसे अलग सुभाष नीरव जैसे सशक्त रचनाकार की मौजूदगी पाठकों को आश्वस्त करती है. वे इस विधा के बेहतरीन शिल्पी हैं. बकौल बलराम अग्रवाल- “...इक्कीसवी सदी की लघुकथा का शिल्प है जो उसे ‘कौंध’ से बहुत आगे की विधा सिद्ध करता है." सुभाष नीरव एक ऐसे रचनाकार हैं जो विधा की किसी बंधी-बंधाई परिपाठी का अनुसरण नहीं करते बल्कि खुले आसमान में अपने लिए एक स्पेस बनाते हैं. उनकी लघुकथाओं को बहुत से आलोचक कहानीनुमा कहते जरुर हैं लेकिन इस आधार पर उनकी रचनाओं की उपस्थिति को कोई नकारता नहीं है, और यही इस लेखक का सबसे सबल पक्ष भी है.
नीरव का लेखन हिन्दी लघुकथा साहित्य को एक नया आयाम देता है
सुभाष नीरव नौवें दशक के सशक्त लघुकथाकार हैं. 1983 से ही पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं अपना प्रभाव दिखाती रही हैं. “कथाबिंदु” साझा संकलन(1997) के बाद सफ़र में आदमी (2012) और अब “बारिश तथा अन्य लघुकथाएं(2019)इस सफ़र में ये बात स्पष्ट होती है कि नीरव का लेखन हिन्दी लघुकथा साहित्य को एक नया आयाम देता है.
संग्रह की बात करें तो पाठक शीर्षक देख जिज्ञासावश रचना दर रचना नीरव की रचनात्मक यात्रा का आनंद उठाते हुए खुद को हमसफर महसूस करता है. जिसे बलराम अग्रवाल व्यंजनात्मक प्रयोग कहते हैं. ' बरफी ', ' जानवर ' ' सेंध ', ' पानी ' कुछ ऐसे ही शीर्षक हैं, जहां पाठक पढ़ते हुए अलर्ट हो उठता है और रचना के अंत तक आते-आते भी संतुष्ट होता है. इस मायने में नीरव आधुनिक समय की लघुकथाओं में कुछ मठाधीशों की बनायी रीतियों-यथा- अंत में झटका देना, मारकता या फिर चौकाने वाली प्रवृति का खंडन कर एक संतुष्टिदायक अंत तक रचना को ले जाते हैं. वे कुछ ऐसे शीर्षक भी लेते हैं जो एक अलग तरह का फ्लेवर देते हैं, यथा- ' वेश्या नहीं ', ' बाय अंकल ', ' लड़की की बात ', ' वाह मिट्टी ', ' कोठे की औलाद '. इस तरह के शीर्षक जब पाठक की आँखों के सामने आते हैं तो एक सहज जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि आखिर क्या है इसमें? पाठक अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए कथा को पढना आरंभ करता है, ठहराव उनके लेखन में नहीं है, ये धारा प्रवाह उन्हें अपने समकालीन रचनाकारों से अलग करता है. “वेश्या नहीं” सिंगल परेंटिंग करने वाली महिलाओं की आर्थिक समस्याओं को दर्शाती रचना है, जिसके केंद्र में नायक की सामंती सोच है. बानगी देखिये – “उसने अपनी नम आँखें रुमाल से पोंछते हुए खरखराती आवाज में कहा-“ तुम्हारा फोन आया तो मुझे कुछ उम्मीद बंधी. बड़ी उम्मीद लगाकर मैं... ."
"...मुझे लगा, वह अपना मेहनताना..... .”
सहज ही नीरव नारी पात्र को बहुत मजबूती प्रदान करते हैं- “बेड पर बिखरे नोटों को उसने जलती आँखों से देखा, फिर मेरी ओर एकटक देखने लगी. वह बिना नोटों को छुए बेड से उतरी. खड़ी होकर उसने अपने कपड़े सही किये.“ बेबसी के बावजूद नारी का इस तरह का फैसला नीरव की रचनात्मकता को और ऊँचाई तक ले जाता है, जहां बने बनाये नियम तय मापदंड स्वतः ही धराशाही हो जाते हैं.
“मकड़ी” एक मध्यमवर्गीय इन्सान के सपनों पर बाज़ार के प्रभाव की रचना है, एक ऐसे इन्सान का चित्रण नीरव करते हैं जो न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने के लिए लोक लुभावने विज्ञापनों का शिकार हो एक बार बाजारवाद की गिरफ्त में आता है तो उससे बाहर नहीं निकल पाता. जब वह सारा माजरा समझता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.
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नीरव अनायास ही समाज के एक बड़े वर्ग की समस्या को उठाते हैं
" ...लेकिन कुछ बरस पहले बहुत लुभावना लगने वाला बाज़ार अब उसे भयभीत करने लगा था. हर माह आने वाले बिलों का न्यूनतम चुकाने में उसकी आधी तन्खवाह ख़त्म हो जाती है....” यहां नीरव अनायास ही समाज के एक बड़े वर्ग की समस्या को उठाते हैं, जहां क्रेडिट कार्ड जैसे ताउम्र कर्जदार बनाने और बाज़ार में उपलब्ध हर गैर-जरूरी वस्तु को बेचने के हथियार मौजूद हैं. मानो वे उस बूढ़े कबूतर की तरह मध्यम वर्ग को आगाह कर रहे हैं जो बहेलिये के बिछाये जाल से आगाह करता है लेकिन असहाय मनुष्य जरूरत पूरी करने के लिए कबूतरों की तरह जाल से दाना चुगने के लालच में जाल में फँस जाता है. यही इस रचनाकार की विशेषता है कि वह सांकेतिक भाषा में वह भी कह जाते हैं जिसे कहने के लिए अन्य रचनाकारों को भारी भरकम शब्द तलाशने पड़ते हैं. “भला मानुष” में रचनाकार की संवेदना उभरकर सामने आती है जब वह तेज रफ्तार कार के टक्कर मारने से घायल लड़की को अस्पताल में दाखिल कारने वाले भले मानुष के लिए लड़की के घर वालो के माध्यम से सम्वाद लिखता है-“ भला हो उस भले मानुष का जो इसे उठाकर अस्पताल ले आया वरना आजकल कौन आगे बढ़ता है ऐसे कामों के लिए.“...यहां रचनाकार संवेदनहीन समाज की चेतना को जगाने का प्रयास करता है और अपने इस प्रयास में सफल भी होता है.
नीरव की इन रचनाओं को नई विधा के अंकुरण के रूप में भी देखा जा सकता है
“बारिश.....” असल में न ही कहानी संग्रह है न ही ये मात्र लघुकथाएं ही हैं, नीरव की इन रचनाओं को नई विधा के अंकुरण के रूप में भी देखा जा सकता है जो कहानी की रवानगी से शुरू होकर लघुकथा के कलेवर में प्रस्तुत होती है. कथानक के चयन से लेकर वाक्य विन्यास की दृष्टि से अगर देखा जाए तो मालूम होता है कि कहीं लघुकथा के कथानक को कहानी के अंदाज में लिखा गया है तो कहीं कहानी के कथानक को लघुकथा के रूप में लिखा गया है. लेकिन एक बात महत्वपूर्ण है कि ये रचनाएं समाज में हो रहे परिवर्तन- आधुनिकीकरण, विकास, पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव, बाजारवाद इत्यादि का गहन प्रभाव छोडती है. नीरव हर पात्र पर अलग अलग प्रयोग करते हुए उनके आन्तरिक द्वंद्व को गहरे से निकाल पन्नो उकेर देते हैं. लम्बे समय तक अनुवाद का अनुभव उनकी लेखनी को पैनेपन के साथ उभारता है.
“बारिश....” नीरव की संवेदनाओं का विस्तार है जो विभिन्न पात्रों के माध्यम से उभरा है. उनके पास संवेदना के विभिन्न रंग है. साथ ही एक बात और यहां गौर करने वाली है, नीरव नारी पात्रों के साथ रचनात्मक रूप गहरे से जुड़ते हैं, वे मात्र उनकी समस्याओं से रूबरू नहीं कराते वरन एक सम्मानजनक समाधान तक पहुँचने का भी प्रयास करते हैं.
”सहयात्री” लघुकथा बस में यात्रा करने वाली सवारियों अंतर्द्वंद को उजागर करती है. “कोठे की औलाद” भी एकदम अलग मनोदशा को लेकर लिखी गयी है. यहां मानवता को बेहतरीन तरीके से संवाद के माध्यम से परिभाषित किया गया है. नीरव की एक विशेषता और है वो मात्र कथानक को विस्तार देने के लिए नहीं लिखते हैं, उनके लेखन में लघुकथा के यथार्थ के साथ समाधान भी उपलब्ध है जिसे वे पात्र के माध्यम से समाज के सामने बड़े ही सहज ढंग से पेश करते है. “..तभी उनमें से एक व्यक्ति ने मुँह बिचकाते हुए कहा,”जरुर साला कोठे की औलाद है.“ ...यह तुम कैसे कह सकते हो?”-दूसरे ने प्रश्न किया. “एक वही तो जगह है, जहां सभी धर्मों का बराबर स्वागत होता है.“ यह जो भाषा का महीनपन है, यह सिर्फ नीरव के यहां मिलता है. ”मुस्कुराहट” के माध्यम से लेखक आर्थिक रूप से सम्पन्न होने के बाद मुस्कुराहट के गायब होने की बात कहकर समाज को बहुत बड़ा सन्देश दे जाता है.
इसी तरह ‘मरना जीना’ में नारी-शोषण के परिणामस्वरूप पात्र के द्वारा पड़ोसी को सच न बता पाने की विवशता और तदुपरांत आत्महत्या के प्रकरण को छुपाने के साथ ही एक समाधान भी लेखक दे देता है- समय को अगर टाल दिया जाए तो व्यक्ति अपना आत्महत्या जैसा अपराधिक निर्णय भी बदल सकता है. इस रचना के माध्यम से लेखक ने क्षणिक और भावुक फैसलों से भी आगाह किया गया है. ”दिहाड़ी” पुलिसिया विकार से उबरने की कथा है जिसके माध्यम से नीरव पुलिसिया रवैये को बदलने के लिए इशारा करते हैं. ”चोर” में वे अधिकारी वर्ग के दोगले चरित्र को उभारते हैं, रामदीन नामक पात्र के सामने बच्चो के कमरे में प्रवेश करने और हाथ में उनके द्वारा ऑफिस स्टेशनरी से चुराए रजिस्टर देख अधिकारी का बच्चो और पत्नी पर गुस्सा करना इस बात को दर्शाता है कि चोरी एक जरुरत के साथ प्रवृति भी है जो हर वर्ग के व्यक्ति में पहुँच सकती है, यहां बरबस ही प्रेमचंद के उपन्यास “गबन” की याद ताज़ा हो जाती है.
लेखक का एक विशेष गुण ये है कि वह स्त्रीवाद का हिमायती न होकर स्त्री की अस्मिता की हिमायत करता है जो लेखक को स्त्रीवादी (पुरुष व स्त्री दोनों) रचनाकरों से अलग करता है. उनके अन्दर की स्त्री के प्रति चेतना स्वाभाविक है. “बाँझ” भी उनके सबल पक्ष को प्रकट करती रचना है. यहां वे दो स्त्री पात्रों के संवाद के माध्यम से बहुत सी मनोवैज्ञानिक बातें कह जाते हैं. ...” बच्चों से ज्यादा पौधा प्यारा हो गया. अपना नहीं है न.. छह साल हो गए शादी को, एक भी जना होता तो जानती कि बच्चा क्या होता है...हुंह... बाँझ कहीं की.... ". ”पानी” एकदम अलग मिजाज की कथा है. यह भी मनोवैज्ञानिक ट्रीटमेंट लिए हुए है. इसके माध्यम से धन की किल्लत झेल रहे व्यक्ति से मित्र के जेब कटने के प्रकरण को सुना हजार रुपया माँगने के वर्णन कर लेखक लगभग हर माध्यम वर्गीय व्यक्ति की परेशानी को उजागर करता है. समाज के मनोवैज्ञानिक नजरिये को इस संग्रह में तार्किकता के साथ कहने की काफी हद तक कामयाब कोशिश की गई है.
कुल मिलाकर ज़िन्दगी के उत्साह-उम्मीद-निराशा-तनाव आदि विविध गाढ़े-फीके रंगों को विविध रूपों में पाठक के सामने रखा गया है. ये वो रंग हैं जिनसे हर पाठक का कभी न कभी वास्ता पड़ता है. इस लिहाज से नीरव के लेखन को सफल कहा जा सकता है.
भाषा-शैली की बात करें तो नीरव की भाषा काफी लचीली है, जिसमें वे बातचीत के अंदाज में अपनी बातें कह जाते हैं. उन्हें किसी भी तरह से किसी विशेष शैली की जरुरत महसूस नहीं होती. नीरव के लेखन में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की भाषा को देखा जा सकता है. उन्हें जबर शब्दों का चयन करते हुए नहीं देखा जाता है, बड़े सीधे सरल तरीके से वे अपनी बात कहते हैं. शब्दों के प्रयोग में वे बहुत अधिक सावधान नहीं हैं. इसका तात्पर्य ये नहीं है कि वे असावधानी से भाषा प्रयोग करते हैं. “जरुर साला कोठे की औलाद है...” ठेठ मेरठी प्रयोग है, जो कथा की डिमांड है. बहरहाल, कुल मिलाकर ये कह सकते हैं कि नीरव की “बारिश...” की सबसे बड़ी खासियत यह है कि ये बारिश अपने आप में एकदम अलग और अनूठी है. और हमें यह मानना होगा कि ये बारिश अपने आप में हिंदी साहित्य को विधागत स्तर पर और समृद्ध करने का ही काम करती है. बारिश के अन्दर सबके लिए कुछ न कुछ मौजूद है अर्थात हर तरह के मिजाज के पाठक के लिए इसमें सिंचाई का पानी, बाढ़, बारिश के बाद की हरियाली का लुत्फ़ भी है.
लेखक जीवन की घटनाओं को इस सलीक़े से बयां करता है कि उसमें से भूत तथा भविष्य का हस्तक्षेप समाप्त हो जाता है. कहानी कहने की यह बारीक़ी और शालीनता ही लेखक की रचनाओं में बार-बार दिखाई देती है जो उनका सबल पक्ष है. “बारिश..” में लेखक ने रचनाओं की टपटप से अलग-अलग इक्यावन बूदें सजायी हैं. ये लघुकथाओं की एक ऐसी पुस्तक है जिसमें सभी रचनाएं लेखक के जीवन या उनके वैचारिक फ़लक पर घटित घटनाएं होकर भी एक घटना किसी भी दूसरी घटना से न तो प्रभावित है न सम्बध्द ही!
इन कथाओं को पढ़कर स्पष्ट होता है कि लेखक ने कथाओं को इस अंदाज़ में बयान किया है कि पढ़ते हुए कई बार पाठक हर पल को जी लेता है. लेखक कई जगह शब्दचित्र भी गढ़ता हैं. नीरव अपने लेखन से यह भी सिद्ध करते हैं कि अच्छा लेखन के लिए बहुत कम लिखा जाए, वे स्वयं संग्रह की भूमिका में लिखते हैं कि मेरे लिखने की गति बहुत कम रही है.
शब्दों से चित्र कैसे बनाया जाता है इसका श्रेष्ठ उदाहरण है “धूप”. इस रचना में लेखक ने दर्शाया है कि जरुरत किस तरह अफसर और चपरासी के लाइफ स्टाइल को ख़त्म कर एकरूप कर देती. “कबाड़” आधुनिकता के दौर में परिवार के पतन की पराकाष्ठा और पतित चरित्र को उजागर करती है. यहां लेखक बेटे की मंशा को बहू के माध्यम से प्रस्तुत कर समाज की एक बड़ी लकीर को चिह्नित करता है, इतना बड़ा यथार्थ प्रस्तुत करने का साहस नीरव ही कर सकते हैं. लेखक ने पुस्तक रूप देते हुए इन कथाओं को विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन के वर्ष के साथ प्रस्तुत किया है हालाकि उनमें कोई क्रम निर्धारित नहीं है तथापि यह उनकी रचना यात्रा से रूबरू कराता है. इतना अवश्य कहना चाहूँगा कि पुस्तक की लघुकथाएं कहानी से कुछ अधिक सशक्त हैं. आत्मकथ्य शैली को विभिन्न कथाओं में प्रयोग करके लेखक ने कोई नया प्रयोग बेशक नहीं किया है, तथापि यह शैली उनकी रचनाधर्मिता का गवाह भी है. कुल मिलाकर पूरी पुस्तक पठनीय होने के साथ-साथ विचारणीय भी है.
एक महत्वपूर्ण बात प्रकाशकीय स्तर पर अक्सर कुछ वर्तनी संबंधी अशुध्दियाँ मिलती हैं लेकिन प्रस्तुत संग्रह में आप ऐसे अवरोध नहीं पाएंगे. साज-सज्जा की दृष्टि से पुस्तक आकर्षक है और आवरण-पृष्ठ उतना ही विशेष है जितनी सुभाष नीरव की रचनाएं. रचनाओं की गहन अंतरात्मा की तरह आवरण पृष्ठ पर भी एक गंभीर कलाकृति के रूप में “बारिश....” को विस्तार दिया गया है जो पुस्तक के पूरे कथ्य को न सही लेकिन कुछ प्रतिनिधि रचनाओं को अपने में समेटने का प्रयास अवश्य करता है. साहित्य जगत में लघुकथा लेखक नीरव की इस पुस्तक का भरपूर स्वागत होगा इस आशा और शुभकामनाओं के साथ.
पुस्तक-“ बारिश तथा अन्य लघुकथाएं”
रचनाकार- सुभाष नीरव
प्रकाशक: किताबगंज प्रकाशन, गंगापुर सिटी, राजस्थान
प्रकाशन वर्ष: 2019, मूल्य : 195 रुपए (पेपर बैक)
(संदीप तोमर कई किताबों के लेखक रह चुके हैं. साथ ही सम्पादन के कार्य में भी हैं.)
(यहां दिये गये विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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