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Writer Vision: वरिष्ठ कवि, कथाकार और नाटककार संजय कुंदन की कविताओं में विरोध के स्वर तो हैं, लेकिन अपनी पूरी शालीनता के साथ. अपनी कविताओं में संजय कुंदन जिरह करते हुए दिखते हैं, इस जिरह से एक ऐसा रास्ता खुलता दिखता है, जो आपको आंदोलन की दिशा में ले जाता है. पढ़ें उनसे हुई विस्तृत बातचीत के कुछ अंश.
डीएनए हिंदी : संजय कुंदन हिंदी साहित्य में अब एक सुपरिचित नाम है. पत्रकारिता के पेशे में एक लंबी पारी खेलने के साथ-साथ वे साहित्य लेखन में लगातार सक्रिय रहे. इनकी कविताओं, कहानियों और नाटकों ने अपने पाठक, श्रोता और दर्शक बनाए. अपनी कविताओं में संजय कुंदन तेजी से खुलते हैं और इतने सधे अंदाज में अपनी बात रखते हैं कि पाठक दंग रह जाता है.
उनकी कविताओं में विरोध के स्वर तो हैं, लेकिन अपनी पूरी शालीनता के साथ. अपनी कविताओं में संजय कुंदन जिरह करते हुए दिखते हैं, इस जिरह से एक ऐसा रास्ता खुलता दिखता है, जो आपको आंदोलन की दिशा में ले जाता है. चार कविता संग्रह और दो कहानी संग्रह पाठकों के बीच आ चुके हैं. उनसे उनकी कविताओं और नाटकों पर खूब बात हुई, उनकी रचना प्रक्रिया पर बात हुई. पेश है बातचीत के कुछ अंशः
सवाल : कुंदन जी, आपकी कविताओं और कहानियों के कितने संग्रह अब तक प्रकाशित हो चुके.
जवाब : मेरी कविताओं के चार संग्रह आ चुके हैं - 'कागज के प्रदेश में', 'चुप्पी का शोर', 'योजनाओं का शर' और 'तनी हुई रस्सी पर'. कहानियों के दो संग्रह हैं - 'बॉस की पार्टी' और 'श्यामलाल का अकेलापन'.
सवाल : 'तनी हुई रस्सी पर' संग्रह मैंने नहीं पढ़ा है, लेकिन नाम से ऐसा लग रहा कि यह वर्तमान राजनीतिक स्थितियों पर लिखी गई कविताओं का संग्रह है. क्या ऐसा ही है?
जवाब : हां, ज्यादातर कविताएं अभी की स्थितियों पर ही हैं. खासतौर पर जो राजनीतिक हलचल है, राजनीति में जो उथल-पुथल है और आज की राजनीति ने कैसे हमारे जीवन को प्रभावित किया, उस पर ज्यादातर कविताएं हैं.
सवाल : मैंने देखा है कि अपनी कविताओं में आप अपने आपसे बहस करते हैं, जिरह करते हैं, आप पाठकों को कोई दिशा सुझाते नहीं हैं. आखिर इसके पीछे वजह क्या है?
जवाब : नहीं, हमको लगता है कि साहित्य का काम दिशा सुझाना तो नहीं है, बस बता देना है कि क्या हो रहा है. क्या चीजें हैं, क्या स्थितियां हैं - ये बताना साहित्य का असल काम है. लेकिन जिरह की जो आप बात कर रहे हैं तो कवि अपने आप से संघर्ष कर रहा होता है, खुद भी चीजों को समझ रहा होता है. वो ऐसा नहीं है कि किसी कविता में निष्कर्ष पर पहुंच जाता है बहुत जल्दी. वो संघर्ष कर रहा होता है, स्थितियों से जूझ रहा होता है. जूझने की प्रक्रिया है वही कविताओं में आती है. तो वह एक तरह का आत्मसंघर्ष है. और मेरी कविताओं के साथ तो ऐसा है कि वो आत्मसंघर्ष हैं.
सवाल : आपकी एक कविता 'गऊ जैसी लड़कियां'. इस कविता में भी देखा कि आप सिर्फ बयान दे रहे हैं कि गऊ जैसी लड़कियां कैसी होती हैं, समाज की निगाह में वे कैसी होती हैं और उनपर समाज की निगाह कैसी होती है. किस तरह वो सब सहन करती हैं... लेकिन इस कविता के अंतिम हिस्से में आप इन गऊ जैसी लड़कियों का हश्र बताते हैं और लिखते हैं कि ...तब वह गाय की तरह ही रंभाती थी/बस थोड़ी देर के लिए.
गौरक्षकों तक नहीं पहुंच/पाती थी उसकी आवाज. बेशक ये आपकी बहुत लाजवाब और हिला देने वाली कविता है. लेकिन ये नहीं समझ पाया कि इसमें चमत्कार कैसे पैदा होता है, भाषा का वो कौन सा कौशल है, जिसका इस्तेमाल आप कर लेते हैं जिससे कविता बयान बनने के खतरे से बच जाती है और वह कविता बन जाती है.
जवाब : मुझे लगता है ये प्रक्रिया धीरे-धीरे विकसित होती है. एक लंबे समय में ये अर्जित की गई है. इसे समझने या बताने के लिए हमें उस गहराई में जाना होगा कि कवि का विकास कैसे होता है. वैसे, संक्षेप में कहूं तो दूसरे कवियों को पढ़ते हुए, कविताओं पर बात करते हुए, आलोचकों और कवियों से संवाद करते हुए धीरे-धीरे अपने आप एक प्रक्रिया में विकसित हुई है. ये सीधे-सीधे बता पाना बड़ी मुश्किल है कि कैसे मैंने इसको अर्जित किया.
सवाल : आपने बताया कि लिखते हुए और दूसरे कवियों को पढ़ते हुए कविता लिखने का कौशल आता है. जाहिर है आपने भी कई कवियों की रचनाएं पढ़ी होंगी, अब भी पढ़ते होंगे तो आप कुछ कवियों के नाम बताएं जो आपको प्रिय हों...
जवाब : मेरे साथ ये थोड़ा मुश्किल है कि मैं ये नहीं बता सकता कि ये मेरे सबसे ज्यादा प्रिय एक या दो कवि हैं. मैंने कई कवियों को विश्व साहित्य से और भारतीय साहित्य से भी पढ़ा है और हर कवि की कुछ-कुछ चीजें मुझे आकर्षित करती रही हैं. ऐसे देखें तो पाब्लो नेरुदा मुझे बहुत प्रभावित करते रहे हैं. नेरुदा का शिल्प, बातें कहने का उनका ढंग मुझे बहुत प्रिय है. भारतीय कवियों में निराला हैं. उसके बाद प्रगतिशील विचारधारा के जितने कवि रहे हैं सबमें कुछ न कुछ खूबी मुझे प्रिय रही है. किसी में कुछ विशेषता तो किसी में कुछ. मुक्तिबोध में कुछ खास लगती हैं, तो रघुवीर सहाय का अपना एक ढंग है, केदारनाथ सिंह का अपना एक ढंग है, नागार्जुन और त्रिलोचन का अपना एक ढंग है. तो हर कवि में कुछ न कुछ अलग-अलग चीजें सीखने की मुझे नजर आई हैं. इस तरह लिखते हुए और पढ़ते हुए कवि परिपक्व होता है. यह एक तरह की ट्रेनिंग जैसा है. 'ट्रेनिंग' मैं नकारात्मक अर्थ से नहीं कह रहा हूं, बल्कि ट्रेनिंग सकारात्मक अर्थ में कह रहा हूं. और इस ट्रेनिंग से हर कवि को गुजरना होता है और उसे गुजरना भी चाहिए.
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सवाल : आपके साथ लंबे समय तक काम कर चुके लोगों की राय है कि आप बहुत चुप्पा इनसान हैं, लेकिन मैंने महसूस किया है कि आपकी कविताएं बहुत बोलती हुई हैं. आपकी चुप्पी का राज क्या है?
जवाब : चुप रहने का एक कारण पारिवारिक परिवेश है. मेरा लालन-पालन जिस तरह से हुआ है, इस चुप्पी में उसका थोड़ा योगदान है. मेरा जो बचपन बीता है वो थोड़ा एकांत में बीता है.
सवाल : क्या इस एकांत वाले प्रसंग को थोड़ा विस्तार दे सकते हैं?
जवाब : मेरा जन्म पटना में हुआ. वैसे तो हम पांच भाई-बहन हैं. लेकिन मेरे बाद थोड़ा गैप है भाई-बहनों में. मेरी बड़ी बहन मुझसे 4-5 साल बड़ी रहीं. मेरे पिताजी शायद थोड़े एकांतजीवी रहे होंगे. तो उन्होंने मुझे सामाजिक परिवेश से थोड़ा काटकर रखा. अधिकतर समय मुझे अपने करीब रखा, मुझे अपना दोस्त बनाया. मेरा बहुत सारा समय उन्हीं के साथ बीता. वे मुझे शुरू से ही साहित्य आयोजनों में और नाटकों के मंचन में ले जाया करते थे. मेरा परिवार भी छोटा रहा है और बहुत ज्यादा विस्तृत परिवार नहीं रहा है हमारा. तो उन्होंने मुझे इस तरह रखा कि मैं अपनी उम्र के बच्चों से थोड़ा कम इंट्रैक्ट कर पाया और उनके साथ ज्यादा रहा. वो मुझे बचपन से ले जाया करते थे गोष्ठि में, नाटक दिखाने. मुझे लगने लगा कि इन चीजों में मुझे ज्यादा रहना है. मेरी रुचि इन चीजों में ज्यादा लगने लगी. अपनी उमर के बच्चों के साथ खेलने के बजाए मुझे इन चीजों में ज्यादा मन लगने लगा और मेरा स्वभाव थोड़ा वैसा विकसित होता गया. मतलब, सोचने का... चीजों को जानने का... तो इसकी वजह से मेरा इंट्रैक्शन... मेरा संवाद थोड़ा कम हुआ. हो सकता है कि इसकी वजह से मेरे भीतर चुप्पा प्रवृति थोड़ी बढ़ गई. हां, लेकिन साथ ही यह भी हुआ कि उस समय के समाज को देखने, सुनने और समझने के लिए साहित्य ही मेरा सहारा बना. आंख खोलते ही मेरे चारों तरफ साहित्यिक किताबें थीं. मेरे घर में साहित्यिक किताबें थीं और मैंने बिल्कुल करंट से शुरू किया. जैसे आमतौर पर लोग शुरू में पढ़ते हैं जासूसी उपन्यास या लोकप्रिय साहित्य. या कुछ लोग प्रेमचंद से शुरू करते हैं, मेरा साथ ऐसा बिल्कुल नहीं था. मैंने तो बिल्कुल नए लोगों को पढ़ना शुरू किया. मैं बहुत कम उम्र में ही धीरेंद्र अस्थाना, कमलेश्वर और उदय प्रकाश को जानता था. क्योंकि मेरे घर में सारिका आती थी तो सारिका से मैंने साहित्य को देखना शुरू किया. मुझे बहुत सी चीजें समझ में नहीं आती थीं, लेकिन मैं पढ़ता था उसको, देखता रहता था कि यह क्या है. इससे क्या हुआ कि मुझे बचपन में जो और गतिविधियां स्वाभाविक रूप से करनी चाहिए थी शायद, उससे कटता चला गया. और साहित्य की वजह से मेरे भीतर एकांत विकसित होने लगा. अब साहित्य पढ़ने में ही ज्यादा लग गए तो वो खेलना-कूदना, वो लोगों से बात करना कम होता गया. और मैं एक ऐसी दुनिया में चलता गया धीरे-धीरे, जो मुझे एकांत की ओर लेती गई. साहित्य अध्ययन और ये सब सोचने लगे.
सवाल : और यहां मुझे लगता है कि आपने बच्चों के साथ खेलने-कूदने के बजाए कच्ची उमर में ही शब्दों से खेलना शुरू कर दिया. क्यों?
जवाब : हो सकता है. और उसी समय से मैंने लिखने की कोशिश शुरू कर दी थी. मैं बताऊं आपको कि मेरी पहली कविता 12 साल की उम्र में छप चुकी थी. आर्यावर्त जो अखबार निकलता था, उसके बच्चों वाली परिशिष्ट में छपी थी. रोचक घटना यह थी कि मेरी कविता का शीर्षक था 'बादल', लेकिन प्रूफ की गलती से इसका 'द' गायब हो गया और कविता 'बाल' शीर्षक से छपी. तो उस समय मैं बाल कविता भी लिखता था और दूसरी चीजें भी लिखने की कोशिश करता था. मेरी एक आदत हो गई थी, पता नहीं क्यों, यह बड़ी विचित्र बात है, शायद ये मेरी लेखन प्रक्रिया का हिस्सा है कि जो मैं सुनता था उसे रीराइट मतलब कि उसको मैं अपने तरीके से लिखने की कोशिश करता था. जैसे, पिताजी से मैंने कोई कहानी सुनी, तो उसे अपने तरीके से अपनी कॉपी के पिछले हिस्से पर लिखने की कोशिश करता था. यानी कॉपी के शुरू वाले हिस्से में पढ़ाई वाली बातें और बाद के हिस्से में सुनी हुई कोई कहानी. मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब मैं 7वीं क्लास में था तो मेरी जो इतिहास की किताब थी स्वतंत्रता आंदोलन की, उसका मैंने नाट्य रूपांतरण कर दिया. और चित्रगुप्त पूजा के अवसर पर अपने मुहल्ले के लड़कों के साथ उसका मंचन भी किया. तो उस समय अधकचरे ढंग से ही कविता, कहानी, नाटक सबकुछ एकसाथ लिखना शुरू किया.
सवाल : हाल के दिनों में आपके कुछ नाटकों का मंचन हुआ है लगातार. तो आपके किन-किन नाटकों का मंचन अभी हाल में हुआ? क्या आपके नाटकों का कोई संग्रह भी आया?
जवाब : मेरे नाटकों का संग्रह आनेवाला है, एक प्रकाशक को दिया हुआ है. मैंने अधिकतर छोटे नाटक लिखे हैं, अभी एक बड़ी अवधि का नाटक भी लिखा है जिसका मंचन इसी 14 नवंबर को हुआ नेहरू के जन्मदिन पर. यह नाटक खुले हुए फॉर्म में है, यानी आप इसे नुक्कड़ नाटक की तरह भी इस्तेमाल कर सकते हैं और चाहें तो मंच पर भी.
सवाल : मुझे लगता है कि नाटक लिखने के लिए मंच की बारीकी से परिचित होना जरूरी है, तो क्या आपने नाटकों में अभिनय भी किया है?
जवाब : अभिनय और निर्देशन दोनों किया है. ये बात है 1984-85 की. उस समय मैं इंटर में था. मैं आपको एक बात बताता चलूं कि मेरी पिताजी रंगकर्मी थे दरअसल. इसलिए वो मुझे नाटक दिखाने ले जाते थे. पहले बांग्ला रंगमंच से जुड़े हुए थे वे फिर मैथिली रंगमंच से जुड़ गए. इस माहौल में रहते हुए मैं स्कूल में होने वाले नाटकों में शरीक होने लगा. बाद के दिनों में बाकायदा मैंने एक संस्था बनाकर नाटक किया. इप्टा से भी जुड़ा मैं. और 84-85 में जब मैं पटना कॉलेज में आया तो 'अंततः' नाम से एक ग्रुप बनाया और उससे मैंने 4-5 नाटक किए. वहां अभिनय भी किया मैंने और निर्देशन भी.
सवाल : आपके पास 1984 के दौरान होनेवाले नाटकों का अनुभव है और आज है 2023. इस बीच थिएटर की दुनिया बहुत बदल गई. इसमें कैसा परिवर्तन देखते हैं आप?
जवाब : हिंदी रंगमंच का एक करेक्टर नहीं है. हिंदी रंगमंच की एक खासियत यह है कि उसमें एक स्थानीयता होती है. जैसे पटना का जो रंगमंच होगा, दिल्ली का जो रंगमंच होगा या रांची का जो रंगमंच होगा - इन तीनों में फर्क होगा. साहित्य और रंगमंच में यही थोड़ा अंतर है कि इसमें कोई केंद्रीयता नहीं है. अब दिल्ली के रंगमंच को लोग मानते हैं कि यह केंद्रीय रंगमंच है, लेकिन मुंबई का रंगमंच बिल्कुल अलग है उससे, उसका चरित्र अलग है. ये थिएटर की अपनी एक स्थानीयता होती है. तो उस हिसाब से बदलाव होता है. बीच में एक नुक्कड़ आंदोलन बहुत तेज चला था. सफदर हाशमी उसके सेंट्रल करेक्टर थे. वो बीच में बहुत मजबूत था. हमलोगों का उससे जुड़ाव हुआ था. लेकिन वो अब खत्म हो चुका है. तो रंगमंच में बीच में एक शून्य भी आया, कोरोना की वजह से भी रंगमंच थोड़ा शिथिल भी पड़ा है इन दिनों.
सवाल : कहते हैं कि मुंबई का रंगमंच प्रफेशनल है, दिल्ली के साथ भी कमोबेश यही बात है. लेकिन पटना, रांची जैसे शहरों में यह प्रफेशनल नहीं हो पाया. लोग इससे जीविका नहीं चला सकते. तो इसकी वजह क्या है?
जवाब : इसकी वजह ये है कि हिंदी रंगमंच ने कभी दर्शक बनाने की कोशिश नहीं की. दर्शक का न होना रंगमंच का बहुत बड़ा संकट है. और बीच में जब नुक्कड़ आंदोलन चला था तो जनता से संवाद और जनता को उसका हिस्सा बनाने की कोशिश चली थी. ताकि जनता उसको एक तरह से प्रश्रय दे अपना, आर्थिक रूप से भी. और एक जमाने में जैसे भिखारी ठाकुर वगैरह ने जिस तरह से रंगमंच का विकास किया था. वो लोगों के पास जाकर उनसे पैसा लेकर काम करते थे, वो विकसित नहीं हो सका. ये बिल्कुल शौकिया ग्रुप जैसा ही रह गया.
सवाल : नाटकों पर आपसे आखिरी सवाल. हाल के दिनों में आपके लिखे किन नाटकों का मंचन हुआ है? और क्या इन नाटकों का कोई संग्रह भी लेकर आ रहे हैं आप?
जवाब : अभी हाल में जो नाटक हुआ वह नेहरू को लेकर लिखा है मैंने. यह पूर्णकालिक नाटक है. इसका मंचन इसी 14 नवंबर को मुंबई में हुआ. इससे पहले 'हंसमुख नवाब' नाटक है मेरा, जिसको इप्टा ने नुक्कड़ पर कम से कम 40-50 शो किया. और इसी नाटक को महेश वशिष्ठ की संस्था 'रंग परिवर्तन' ने स्टेज पर गुड़गांव में किया. मेरा लिखा एक नाटक है 'मैं भी रोहित वेमुला'. इसका भी मंचन मुंबई में हुआ. इन सारे नाटकों को मिलाकर एक संग्रह तैयार किया गया है. यह संग्रह 'हंसमुख नवाब व अन्य नाटक' नाम से आनेवाला है.
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सवाल : आइए फिर लौटें कविताओं पर. आपने कहा था कि आलोचकों को सुनते हुए, आलोचना पढ़ते हुए कविता लिखने के कौशल का परिमार्जन हुआ. जानना चाहता हूं कि कैसी आलोचनाओं से आपने सीखा.
जवाब : जब कोई आलोचक किसी बड़े कवि के बारे में बात कर रहा होता है, तो यह समझ में आता है कि वो आलोचक उस कवि को किस तरह से देख रहा है. किस टूल से उसको देख रहा है, उसकी किस विशेषता की बात कर रहा है. तो इससे यह समझ में आता है कि अच्छा ये चीजें जो हैं यह कविता को परखने का तरीका है, यह कविता को समझने का तरीका है. अनुभव को कैसे कविता में विस्तार दिया गया है, अनुभव कविता में कैसे उतरा है - इसको अगर रेखांकित कर रहा है कोई आलोचक, तो इससे समझ में आता है कि उस कवि ने इसको ऐसे किया है, इससे मदद मिलती है.
सवाल : कविता के पारपंरिक पद्य रूप से इतर इन दिनों वह गद्य शैली में भी लिखी जा रही हैं. तो दोनों शैलियों में क्या बारीक फर्क होना चाहिए?
जवाब : गद्य कविता जो लिखते हैं या लिखी जा रही है, उसमें एक लय होनी चाहिए. वो गद्य के ढांचे में जरूर लिखी जाती है लेकिन वो सामान्य गद्य से अलग होनी चाहिए. नहीं तो फिर कविता में या गद्य में कोई फर्क नहीं रह जाएगा. हम आखिर गद्य में लिखने के बावजूद उसको कविता क्यों कहते हैं - यह स्पष्ट होना चाहिए. यह तभी होगा जब कवि के दिमाग में एक आंतरिक लय होगी. मतलब लय के साथ कोई विषय आए.
सवाल : गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति यानी कवियों की एक कसौटी उनका गद्य भी है. इस बात से आप कितना सहमत हैं?
जवाब : मैं इसको दूसरे रूप में देखता हूं. जैसे लोग हमसे पूछते हैं कि आप कहानी क्यों लिखते हैं. तो मुझे क्या लगता है कि जो रचनाकार होता है, वह अपनी पूरी रचनात्मकता का दोहन करना चाहता है. यानी उसकी चुनौती जो है रचनात्मकता की, उसको लेने में उसको आनंद आता है. उस क्रिएटिव चैलेंज को लेना चाहता है. उसमें उसको मजा आता है और आना भी चाहिए... (इतना कहते-कहते अक्सर चुप रहनेवाले संजय कुंदन की आवाज में किसी नौजवान की उत्साही आवाज भर चुकी थी. उसी उत्साह में वो बोलते रहे.) ....कविता है तो कविता का चैलेंज लेना चाहिए, कहानी लिखकर देखें जरा, नाटक लिखकर देखें, जरा उपन्यास लिखकर देखें. अगर वो ये सोचने लगेगा कि हमसे नहीं होगा और ये कि लोग क्या कहेंगे, तो मुझे लगता है कि वह जेन्यूइन रचनाकार नहीं है, वो करियरिस्ट है. जेन्यूइन रचनाकार को क्रिएटिव चैलेंज लेना चाहिए, भले उसका जो हश्र हो. तो मैं तो इसी रूप में देखता हूं कि मुझे क्रिएटिव चैलेंज लेने में, रचनात्मकता की चुनौती लेने में, उसका आनंद लेने में जो सुख मिलता है, उसकी वजह से मैंने कहानी भी लिखी. उसका एक अलग सुख है, कविता का अलग, नाटक का अलग.
सवाल : आप अपनी कहानियों को पढ़ते हुए क्या उसमें काव्य तत्त्व महसूस करते हैं? क्या किसी कहानी में कविता वाली भाषा आनी चाहिए, नहीं आनी चाहिए - इस पर कुछ बताएं.
जवाब : एक बात मुझे याद आ रही है कि जब 'तद्भव' पत्रिका में मेरी कहानी 'केएनटी की कार' छपी थी तो अखिलेश जी ने मुझसे यह कहा था कि यह कवि जैसी कहानी नहीं है. ये बिल्कुल एक कहानीकार के ठाट की कहानी है. इसलिए हमको ऐसा लगा था कि कहानी की अपनी कुछ डिमांड है. तो जब आप कहानी लिखते हैं तो उसकी अपनी जो शर्तें हैं, उसकी जो मांग है, उसके हिसाब से लिखें तो ज्यादा अच्छा है. अब जैसे मैं आपको बताता हूं कि कई बार कई कवियों की कहानी मुझे कहानी जैसे नहीं लगती है. मुझे लगता है कि उसमें भाषा का अनावश्यक खेल किया गया है. इस वजह से वहां कवि हावी हो गया है. इससे मुक्त होकर लिखना चाहिए.
सवाल : प्रकाशकों पर अक्सर ये आरोप लगता रहा है कि वे रॉयल्टी देने में बेईमानी करते हैं. आप खुद भी एक प्रकाशन से जुड़े हैं, साथ ही आप लेखक भी हैं. तो प्रकाशकों को लेकर लेखन संजय कुंदन क्या कहना चाहेंगे.
जवाब : देखिए, मैं जिस प्रकाशन से जुड़ा हूं वहां तो रॉयल्टी से लेकर सबकुछ पारदर्शी है. हमारे यहां सबसे पहले कॉन्ट्रेक्ट बनता है. ज्यादातर प्रकाशक तो कॉन्ट्रेक्ट ही नहीं करते. लेकिन जहां तक बेईमानी की बात है, इसको लेकर परखने का कोई मौका नहीं मिला है.
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