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Black Fever: कालाजार ने फिर से दी दस्तक, आखिर कैसे एक मक्खी से फैलती है यह बीमारी, जानिए इसका इतिहास

Kalajar : बालू मक्खी से फैलने वाली इस बीमारी को कालाजर क्यों कहते हैं, कैसे फैलती है यह और कितनी साल पुरानी है यह बीमारी, जानिए सब कुछ यहां

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Black Fever: कालाजार ने फिर से दी दस्तक, आखिर कैसे एक मक्खी से फैलती है यह बीमारी, जानिए इसका इतिहास
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डीएनए हिंदी: सालों बाद एक बार फिर कालाजार यानी Black Fever ने दी दस्तक दी है.पश्चिम बंगाल, बिहार और झारखंड में पिछले हफ्ते 70 से अधिक मामले सामने आने के बाद स्वास्थ्य विभाग भी काफी सचेत हो गया है. बंगाल में इस बीमारी ने पहले भी कहर बरपाया है और हजारों लोगों की जान ली है. 

बालू मक्खी (Sandflies) के काटने से फैलने वाली इस बीमारी के लक्षण शुरुआत में नहीं दिखते हैं. यह विसरल लीशमैनियासिस (वीएल) जिसे काला अजार या काला बुखार के रूप में भी जाना जाता है. यह एक प्रोटोजोआ परजीवी के कारण होने वाली बीमारी है. यह 9- सैंडफ्लाई प्रजातियों से अधिक फैलती है. इसके मुख्य लक्षणों में अनियमित बुखार, वजन घटना, प्लीहा व यकृत का बढ़ना और एनीमिया शामिल हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार यह बहुत ही खतरनाक एक बीमारी है. 

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कारण (Causes of Black Fever)

कुपोषण (Malnutrition) 

प्रोटीन, आयरन, विटामिन ए और जिंक की कमी वाले आहारों का सेवन करने से कालाजार या काला बुखार होने का खतरा बढ़ जाता है. जिससे यह बुखार आसानी से ऐसे व्यक्ति को अपना शिकार बना लेता है, जिनमें इन पोषक तत्त्वों की कमी है।

बढ़ती जनसंख्या (Large Population) 

ऐसे लोग जो पहले ही बीमारी के संकट में हैं या फिर जिनके घर में अधिक लोग हैं और वे एक के बाद एक इस बीमारी से ग्रसित हो सकते हैं, जिससे बीमारी होने की संभावना अधिक होती है।

जलवायु परिवर्तन (Climate change)

लीशमैनियासिस जलवायु के प्रति संवेदनशील है और तापमान, वर्षा और आर्द्रता में परिवर्तन इनके विकास चक्र (ब्रीडिंग साइकल) में सहायता कर सकता है

आर्थिक स्थिति  (Economic Condition) 

जिनके घर में आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, वे ना तो ठीक से खा पाते हैं और ना ही इस बीमारी का इलाज करवा पाते हैं. उनके यहां ये बीमारी ज्यादा घर कर जाती है 

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लक्षण (Symptoms of Kala Azar)

बुखार का अक्सर रुक-रुक कर या तेजी से आना
भूख न लगना, पीलापन और वजन में कमी
शरीर में कमजोरी 
प्लीहा का अधिक बढ़ना
जिगर का बढ़ना लेकिन प्लीहा के जितना नहीं
त्वचा-सूखी, पतली और शल्की होती है तथा बाल झड़ने लगते हैं 
गोरे व्यक्तियों के हाथ, पैर, पेट और चेहरे का रंग भूरा हो जाता है
खून की कमी-बड़ी तेजी से होने लगती है 

भारत में कालाजार का इतिहास (History of Black Fever in India) 

भारत में काला अजार (अंग्रेजी-विस्केरल लीश्मेनियेसिस) रोग काला अजार की विशेष परिस्थितियों को संदर्भित करता है. काला अजार 2012 के अनुसार प्रति वर्ष 146,700 नए मामलों के साथ भारत में एक प्रमुख स्वास्थ्य समस्या है. रोग में परजीवी आंतरिक अंगों जैसे कि यकृत, प्लीहा और अस्थि मज्जा में प्रवास के बाद बीमारी का कारण बनता है. इस बीमारी में मरीजों की मृत्य जल्दी हो जाती है.

लोगों को यह बीमारी सैंडफ्लाइज़ के काटने से होती है जो खुद परजीवी से संक्रमित किसी दूसरे व्यक्ति का खून पीने से परजीवी हो जाते हैं. विश्व स्तर पर 20 से अधिक अलग-अलग लीशमैनिया परजीवी हैं जो बीमारी का कारण बनते हैं और उन परजीवी को फैलाने वाली 90 प्रकार की सैंडफ्लाई हैं. 

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1903 में ब्रिटिश सेना के एक चिकित्सा अधिकारी विलियम बूग लीशमैन ने कलकत्ता के पास दमदम में परजीवियों की पहचान की जो काला अजार का कारण बनता है. उनकी रिपोर्ट सही थी और वैज्ञानिकों ने उनका नाम परजीवी लीशमैनिया दिया था. इस रोग का पश्चिमी नाम लीशमैनियासिस दिया गया. बंगाली चिकित्सक और वैज्ञानिक उपेन्द्रनाथ ब्रह्मचारी ने 1946 में उनकी मृत्यु तक काला अज़ार के बारे में इलाज, शोध और प्रकाशन किया

भारत का राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम मलेरिया को रोकने के लिए कीटनाशक के रूप में 1953 और 1964 के बीच डीडीटी का उपयोग कर रहा था.डीडीटी अत्यधिक प्रभावी है जो मनुष्यों और पर्यावरण के लिए विषाक्त होने के कारण उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, जब भारत डीडीटी का उपयोग कर रहा था तब मलेरिया को कम करने के प्रयास ने भी सैंडफ्लाइस को कम किया और काला अजार में भी कमी आई.  

1964 के बाद और डीडीटी के उपयोग के ठहराव के बाद काला अजार की बीमारी वापस आई लेकिन चिकित्सकों ने इसके अभाव के बाद इस बीमारी को नहीं पहचाना.लगभग 1960-1975 तक उपमहाद्वीप में कला अजार के कोई रिकॉर्ड नहीं था,  नेपाल में 1978 में लोगों ने इस बीमारी की सूचना दी और धीरे धीरे यह बीमारी कई लोगों में फैल गई.

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