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Norway: इस देश में नास्तिकता भी पढ़ाई जाती है

नॉर्वे उन गिने-चुने देशों में है, जहां प्राथमिक विद्यालयों में धर्म-शिक्षा अनिवार्य है. नास्तिकता को भी पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया है.

Norway: इस देश में नास्तिकता भी पढ़ाई जाती है
Norway education

- प्रवीण झा  

मैं दशहरे की शाम गिरजाघर के सामने संगीत-केंद्र के पास टहल रहा था कि हेलिकॉप्टरों की आवाज़ सुनाई दी. कुछ देर में कई पुलिस हेलिकॉप्टर की आवाज़ और साइरन सुनाई देने लगीं. मेरा वर्तमान शहर जो भारत के किसी छोटे कस्बे की तरह मात्र 20 हजार लोगों से बना है, वहां इस तरह की आवाज़ें नयी थी. मैंने मोबाइल पर खबर पढ़ी तो पता लगा कि मैं जहां खड़ा हूं वहां से आधे किलोमीटर पर कोई व्यक्ति हाथ में तीर-धनुष लिए हमला कर रहा है. मैं हड़बड़ा कर गाड़ी में बैठ कर वहां से निकल गया.

अगले दिन मालूम पड़ा कि किसी मानसिक रोगी ने तीर-धनुष से पांच लोगों की जान ले ली. आधुनिक दुनिया में यह अलहदा घटना थी जब बंदूक के बजाय कोई तीर-धनुष से हत्यायें कर रहा हो. जब यह खबर आयी थी तो यह भी अंदेशा हुआ कि कोई भारतीय दशहरे के लिए आयोजन कर रहा होगा मगर यह मामला तो वैश्विक खबर बन गई. उस स्कैंडिनैवियाई कॉकेशियन मूल के व्यक्ति ने एक यूट्यूब विडियो में कहा था कि वह मुस्लिम है लेकिन किसी भी स्थानीय मस्जिद में कोई लेखा-जोखा नहीं मिला. तफ़्तीश में यही पता लगा कि वह पागलखानों में समय बिता चुका एक हिंसक व्यक्तित्व था, जिसे नॉर्वेजियन मानवाधिकार नियमों के तहत सामान्य जीवन बिताने की छूट दी गयी थी.

क्या हुआ इस घटना के बाद?

नॉर्वे के राजा और प्रधानमंत्री शहर में आए. एक ईसाई देश होने के नाते गिरजाघर के बिशप से मंत्रणा की. कई नागरिकों ने मृतकों की स्मृति में मोमबत्तियां जलायी. अगले दिन से शहर में सामान्य रूप से स्कूल, कार्यालय आदि चलते रहे. अखबारों में भी यह खबर छोटी होती गयी. इसी देश ने पंद्रह वर्ष पूर्व एंड्रयू ब्रेविक नामक एक चरमपंथी ईसाई आतंकवादी देखा था, जिसने दर्जनों कमउम्र नवयुवक-युवतियों की हत्या की थी लेकिन इन घटनाओं से देश के सामाजिक कलेवर पर सतह से कुछ अंतर नहीं दिखता.

धर्म-शिक्षा अनिवार्य है!

नॉर्वे उन गिने-चुने देशों में है, जहां प्राथमिक विद्यालयों में धर्म-शिक्षा अनिवार्य है. इसका बड़ा प्रतिशत ईसाई धर्म की शिक्षा है. अन्य धर्मों और नास्तिकता को भी पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया है. छठी कक्षा में गिरजाघर सभी बच्चों को आमंत्रित करती है, जहाँ रात भर बच्चों को धर्म और गिरजाघर के विषय में बताया जाता है. इनमें अधिकांश लूथेरन ईसाई गिरजाघर ही हैं, कैथोलिक न के बराबर हैं.

अगले दिन गिरजाघर में वे बच्चे यीशु के लिए गीत गा रहे थे, घंटियां बज रही थी और बिशप स्वयं साथ गा रहे थे. उन्होंने बताया कि वह किस तरह धार्मिक गतिविधियां संचालित करते हैं, और क्या बदलाव आए हैं. उनसे लोगों ने प्रतिप्रश्न भी किए. जैसे उनके हाथ में एक सुनहरी लंबी छड़ी थी जो उनके कंधे से कुछ ऊंची थी. उन्होंने कहा कि यह छड़ी अफ़्रीका और यूरोप के अन्य देशों से घूमते हुए उन तक पहुंची है.

वहीं गिरजाघर में पंद्रह-सोलह वर्ष के बच्चों का एक समूह भी था. उन बच्चों की अभी-अभी दीक्षा (कंफर्मेशन) पूरी हुई थी, जो धर्म-चयन की प्रक्रिया है. बचपन में बप्तिस्मा कराए जाने के बाद भी एक विकल्प मिलता है, जब वे ईसाई धर्म से अलग धर्म चुन सकते हैं. कंफर्मेशन के बाद वह ईसाई धर्म को अपनी चेतना से अपनाते हैं. उन बच्चों को ऐसे ‘सर्विस’ में सम्मिलित होने पर एक प्रमाण-पत्र और अंक दिए जाते हैं. इन अंकों से उन्हें आगे कई तरह की सुविधाएँ मिल सकती हैं.

दुनिया के सूचकांकों में शीर्ष स्थान पर स्थित स्कैंडिनेविया के ये देश धार्मिक रूप से बहुत ही संयोजित नज़र आते हैं. धर्म अन्य देशों में भी हैं, चुनाव की स्वतंत्रता भी है, लेकिन राजधर्म की परंपरा कुछ ही देशों में है. प्रगतिशील दुनिया में धर्म आधारित राष्ट्रों पर प्रश्न भी उठते रहे हैं. मैं नीदरलैंड गया, तो वहां नास्तिकता हावी थी और गिरजाघरों की स्थिति नॉर्वे के ठीक विपरीत थी. उस देश के विकास सूचकांक भी अच्छे हैं.

राजधर्म के होने या न होने से समाज के विकास को नहीं जोड़ा जा सकता. न ही लोकतंत्र या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़ा जा सकता है. नॉर्वे और नीदरलैंड, दोनों ही सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र और मीडिया की स्वतंत्रता में अव्वल हैं. धर्म को नकारने या अपनाने से किसी समस्या का हल ढूंढना एक मृगमरीचिका है. दोनों में आदर्श परिस्थिति बनायी जा सकती है, अगर समाज का क्रमिक विकास होता रहे. चरमपंथियों और मानसिक रोगियों से दुनिया का कोई भी कोना मुक्त नहीं लेकिन जब तक समाज इस रोग  से वाकिफ है, वह मुक्त होने की चेष्टा कर सकता है.

(तस्वीर : freestudy.com)

 

(प्रवीण कुमार झा हिंदी के बहुआयामी लेखक हैं, और इस वक़्त कॉन्ग्सबर्ग, नॉर्वे में चिकित्सक हैं)

(यहाँ दिये गये विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)