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Mithila Sama Chakeva: भाई-बहन के अटूट प्रेम का त्योहार है सामा चकेवा, श्रीकृष्ण से कैसे जुड़ा है ये

Mithila में धूमधाम से मनता है सामा चकेवा, भाई बहन के प्रेम का प्रतीक है ये त्योहार, भाई ने बहन के लिए की तपस्या, क्या है इसके पीछे की कथा

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डीएनए हिंदी: Mithila Sama Chakeva Festival, Lok Sangeet- भाई बहन के अटूट प्रेम का त्योहार है सामा चकेवा. यह मिथिला का प्रसिद्ध लोक पर्व है.यह पर्व प्रकृति प्रेम,पर्यावरण संरक्षण, पक्षियों के प्रति प्रेम और भाई-बहन के स्नेह संबंधों को और गहरा करने का प्रतीक है. भाई-बहन का यह त्योहार सात दिनों तक चलता है. यह कार्तिक शुक्ल द्वितीया से शुरू होकर कार्तिक पूर्णिमा (Kartik Purnima) की रात तक चलता है. कार्तिक शुक्ल सप्तमी से कार्तिक पूर्णिमा की शाम ढलते ही महिलाएं सामा का विसर्जन करत देती हैं. इस त्योहार के दौरान महिलाएं गांव में लोक गीत गाती हैं और भाई की मंगल कामना के लिए प्रार्थनाएं करती हैं. साथ में घर के आंगन में सामा की प्रतिमा भी बनाती हैं. आईए जानते हैं इस त्योहार की खासियत. गांव में इस पर्व को धूमधाम से मनाया जाता है. 

कब होता है ये त्योहार

ऐसी मान्यता है कि भाई बहन का यह पर्व सालों से चला आ रहा है. बूढ़े बुजुर्गों व महिलाओं का कहना है कि शामा चकेवा एक लोक उत्सव है जो भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक है. शामा-चकेवा सूर्योपासना का महापर्व छठ पूजा खत्म होते ही शुरू हो जाता है और कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि को खत्म होता है. इस दौरान रातों को महिलाएं नाच गान करती हैं. खूब उत्सव मनाती हैं. आठ दिनों तक हर गली मोहल्लों में छोटी छोटी बहनें और युवतियां सामा-चकेवा बनाकर संध्या में प्रतिदिन मैथिली गीत सुनाती हैं. ये गीत हैं, सामा खेले चलली भौजी संग सहेली,जुग जुग जियो हो,हो भैया जिओ हो

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क्या है इसके पीछे की कहानी (Story Behind Sama Chakeva)

सामा नाम की द्वारिकाधीश श्री कृष्ण की एक बेटी थी, जिसकी माता का नाम जाम्बवती था और भाई का नाम सम्बा था. उसके पति का नाम चक्रवाक था. चूडक नामक एक सूद्र ने सामा पर वृंदावन में ऋर्षियों के संग रमण करने का अनुचित आरोप श्री कृष्ण के सामने लगाया, जिससे श्रीकृष्ण ने क्रोधित होकर सामा को पंक्षी बनने का शाप दे दिया और इसके बाद सामा पंक्षी बन वृंदावन में उड़ने लगी. इसके बाद उसका पति चक्रवाक भी स्वेच्छा से पंक्षी का रूप धारण करके उसके साथ भटकने लगा.

शाप के कारण उन ऋर्षियों को भी पंक्षी का रूप धारण करना पड़ा.नसामा का भाई सम्बा जो इस अवसर पर वहां मौजूद नहीं था, जब लौट कर आया तो देखा उसकी बहन के साथ ऐसा हो गया है. वो काफी दुखी हुआ, लेकिन श्रीकृष्ण का शाप तो व्यर्थ होने वाला नहीं था. इसलिए उसने कठोर तपस्या करके अपने पिता श्रीकृष्ण को फिर से खुश किया और उनके वरदान के प्रभाव से इन पंक्षियों को नया जीवन मिला. इसलिए ये त्योहार भाई बहन के प्रेम के रूप में मनाया जाता है. 

क्या है त्योहार की खासियत

इस अवसर पर मिथिला की महिलाएं कुल मूर्तियों को तैयार करके उन्हें बांस की कमचियों से निर्मित एक प्रकार की डलिया में रखती हैं. उन्हें सजाती हैं और उनके साथ खेलती भी हैं. पक्षियों को दाना भी देती हैं, इसके बाद महिलाएं सिर के ऊपर डलिया लेकर चांद की चांदनी में गलियों में सामा गीत गाते गाते घूमती रहती हैं. 

मिथिला के इस सामा खेल में कुछ धार्मिक तात्पर्य भी छुपा है. वह यह है कि जैसे ये महिलाएं यह सामा खेलने के लिए कितने मेहनत से तरह तरह से सुंदर मूर्तियों का अपने हाथों से निर्माण तथा रंग रोगन कर खेल के अंत में उन्हें अपने और अपने भाई के हाथों तोड़ देती हैं और दूसरे साल फिर से उसका निर्माण करती है, उसी तरह भगवान अपने मनोरंजन के लिए अपने हाथों से सुंदर से सुंदर वस्तुओं का निर्माण कर जमीन पर सृष्टि की रचना करता है और अपने ही इच्छानुसार अपने हाथों उसे नष्ट भी करता है. अर्थात यह सृष्टि अनित्य है. इन सब कारणों से मिथिला में यह सामा का त्योहार प्राचीन काल से मनाया जाता रहा है. इसी से ज्ञात होता है कि पौराणिक युग से ही मूर्तियों पर चित्रण करने की कला यहां की महिलाओं के संग चली आ रही है, जो इस समय भी लोक चित्रकला के रूप में प्रचलित है

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(Disclaimer: यहां दी गई जानकारी सामान्य मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है. डीएनए हिंदी इसकी पुष्टि नहीं करता है.) 

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