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नेपाल में फिर प्रचंड और ओली की सरकार, दोबारा चलेगा चीन की 'गुंडई' या भारत का काम होगा आसान?

Nepal Prime Minister Prachanda: प्रचंड और केपी शर्मा ओली की जोड़ी ने पिछली बार सरकार बनाई थी तो भारत को नक्शा विवाद से गुजरना पड़ा था.

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नेपाल में फिर प्रचंड और ओली की सरकार, दोबारा चलेगा चीन की 'गुंडई' या भारत का काम होगा आसान?

pushp kamal dahal prachanda तीसरी बार नेपाली पीएम बने हैं.

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डीएनए हिंदी: India Nepal News- नेपाल की राजनीति में तेजी से हुई उठापटक के बीच कम्युनिस्ट पार्टी- माओवादी के नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड (pushp kamal dahal prachanda) ने सोमवार को प्रधानमंत्री पद की शपथ ले ली. प्रचंड इस पद पर पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली (KP Sharma Oli) की  कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (Communist Party of Nepal) के समर्थन से आए हैं. करीब डेढ़ साल पहले तक भी इस जोड़ी ने नेपाल में सरकार चलाई थी. उस दौरान जहां नेपाल की तरफ से भारत के लिए कई तरह की मुसीबतें खड़ी हुई थीं, वहीं चीन की तरफ नेपाल का जबरदस्त झुकाव भी देखने को मिला था. इससे यह सवाल फिर खड़ा हुआ है कि क्या इस बार भी नेपाल की राजनीति चीनी इशारे के इर्द-गिर्द घूमकर भारत के लिए मुसीबत का सबब बनेगी? कम से कम अब तक का घटनाक्रम तो नेपाली राजनीति में चीनी दबदबे की ही तरफ इशारा कर रहे हैं.

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शपथ लेते ही प्रचंड ने किया ये ट्वीट

प्रचंड ने सोमवार को नेपाल के प्रधानमंत्री पद पर शपथ लेने के बाद अपने ऑफिशियल ट्विटर अकाउंट से एक ट्वीट किया. इस ट्वीट ने उनकी भविष्य की नीति को बहुत हद तक स्पष्ट कर दिया है. प्रचंड ने चीन में राष्ट्रपिता जैसी हैसियत रखने वाले माओत्से तुंग (Mao Tse Tung) की 130वीं जयंती पर बधाई संदेश का ट्वीट किया. उन्होंने लिखा, अंतरराष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग के महान नेता कॉमरेड माओत्से तुंग की 130वीं जयंती पर सभी को हार्दिक शुभकामनाएं.

बता दें कि माओत्से तुंग वही चीनी नेता हैं, जिन्होंने भारत के खिलाफ 1962 में युद्ध छेड़ा था. इससे पहले माओत्से तुंग की अगुआई में ही चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया था. माओत्से तुंग को कम्युनिज्म की माओवादी थ्योरी का जनक माना जाता है, जिसमें क्रांति के लिए हथियार उठाकर खून बहाने की नीति को सही माना गया है.

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प्रचंड हैं माओवादी नेता, खुद को मानते हैं चीन का करीबी

प्रचंड की पढ़ाई-लिखाई भारत की दिल्ली में हुई है, लेकिन वे खुद को चीनी कम्युनिज्म के ज्यादा करीब मानते हैं. उन्होंने कई बार अपने इंटरव्यू में साफतौर पर खुद को माओवादी नेता माना है. प्रचंड की अगुआई में ही चीन में वामपंथियों ने माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी बनाकर राजशाही के खिलाफ हथियारों से खूनखराबा शुरू किया था, जिसके बाद वहां राजशाही के बजाय राजनीतिक दलों के हाथ में ताकत आई थी. इस कथित क्रांति के दौरान भी प्रचंड को चीन से ही हथियारों से लेकर अन्य तमाम तरह की मदद मिली थी. इसके चलते भी वे चीन के प्रभाव में माने जाते हैं.

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पहली बार पीएम बने थे तो तोड़ी थी भारत दौरे की परंपरा

प्रचंड पहली बार साल 2008 में नेपाल के प्रधानमंत्री बने थे. उस समय उन्होंने वह परंपरा तोड़ दी थी, जिसके तहत नेपाली पीएम अपने पहले विदेशी दौरे पर दिल्ली आते रहे हैं. प्रचंड ने दिल्ली आने के बजाय बीजिंग जाने का विकल्प चुना था. उनके पहला विदेशी दौरा चीन का करने से उनके ड्रैगन समर्थक होने की छवि और ज्यादा मजबूत हो गई थी. उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत और नेपाल के रिश्तों में पहले जैसी गर्मजोशी नहीं देखी गई थी.

हालांकि पिछले कुछ साल में प्रचंड ने दिल्ली के साथ रिश्ते सुधारने की कोशिश की है. पिछले साल वे दिल्ली में भाजपा मुख्यालय पहुंचे थे, जहां उन्होंने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से मुलाकात की थी.

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ओली सरकार के भारत विरोधी फैसलों पर नहीं बोले थे

पिछली बार केपी शर्मा ओली और प्रचंड एकसाथ कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (CPN-UML) में मौजूद थे. तब प्रचंड के समर्थन से ही ओली प्रधानमंत्री बने थे. ओली के राजकाज में काठमांडू स्थित चीनी दूतावास को बेहद प्रभावशाली भूमिका में देखा गया था. यह भी कहा गया था कि नेपाल के कूटनीतिक फैसले चीनी दूतावास से लिए जा रहे हैं. इस दौरान जहां नेपाल संसद में देश का नया भौगोलिक नक्शा पारित करा दिया गया, जिसमें भारत के कई हिस्सों को नेपाल का बताते हुए उन पर दावा ठोका गया. वहीं कई जगह भारतीय सुरक्षा बलों के साथ नेपाली सुरक्षा बलों की झड़प की भी घटनाएं हुईं. कई अन्य फैसले भी भारत विरोधी माने गए, लेकिन इस दौरान प्रचंड ने एक बार भी ओली का विरोध नहीं किया. इसके चलते अब यह जोड़ी एक बार फिर आई है तो उसी दौर का रिपीट देखने को मिलने की संभावना मानी जा रही है.

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चीन के हस्तक्षेप से ही आए हैं एकसाथ?

माना जा रहा है कि इस बार भी प्रचंड और ओली चीन के हस्तक्षेप से ही सरकार में एकसाथ आए हैं. प्रचंड की पार्टी ने शेर बहादुर देउबा (Sher Bahadur Deuba) की नेपाली कांग्रेस पार्टी (Nepali Congress) के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. इसके बाद देउबा के प्रधानमंत्री बनने की घोषणा भी कर दी गई थी, लेकिन ऐन मौके पर प्रचंड ने पाला बदलकर उन्हें झटका दे दिया. नवंबर महीने में हुए आम चुनाव में नेपाली कांग्रेस ने 89 सीट जीती थी, जबकि प्रचंड की पार्टी के 32 सांसद हैं. ओली की पार्टी को 78, राष्ट्रीय स्वतंत्रता पार्टी को 20, राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी को 14, जनता समाजवादी पार्टी को 12, जनमत पार्टी को 6 और नागरिक उन्मुक्त पार्टी को 4 सीट मिली थीं. कई निर्दलीय सांसद हैं. 

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नवबंर, 2017 में ओली और प्रचंड की पार्टी ने मिलकर चुनाव लड़ा था. तब ढाई साल के लिए ओली पीएम बने थे. इसके बाद प्रचंड को पीएम बनना था, लेकिन ओली ने पद छोड़ने से मना कर दिया. बेहद लंबे राजनीतिक ड्रामे के बाद प्रचंड सरकार से निकल गए थे और जून, 2021 में उनके ही समर्थन से देउबा प्रधानमंत्री बने थे. इसके बावजूद अब एक बार फिर ओली और प्रचंड एकसाथ खड़े हो गए हैं. इसके लिए पर्दे के पीछे से चीन के 'मैनेजमेंट' को ही जिम्मेदार माना जा रहा है. कहा जा रहा है कि बीजिंग से मिले इशारे के बाद ही दोनों वामपंथी नेता एकसाथ आए हैं.

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नेपाल में पूर्व भारतीय राजदूत की नजर से जानिए यह बदलाव

बीबीसी हिंदी से बातचीत में नेपाल में भारत के राजदूत रहे रंजीत राय ने बताया है कि भारत के लिए प्रचंड का पीएम बनना कैसा रहेगा? राय के मुताबिक, नेपाल की सारी कम्युनिस्ट पार्टियों का एकसाथ आना हमेशा चीन के लिए सुखद रहा है. इससे चीन के लिए वहां डील करना आसान हो जाता है.

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प्रचंड को समर्थन दे रहे भारतीय झुकाव वाले नेताओं का नजरिया

प्रचंड की सरकार को जनता समाजवादी पार्टी ने भी समर्थन दिया है, जिसे नेपाली मधेशियों की पार्टी माना जाता है. मधेसी समुदाय भारत से सटे तराई के इलाकों में रहता है और इसमें ज्यादातर यादव जाति है, जिनका नेपाल से सटे भारतीय राज्यों में 'रोटी-बेटी' का संबंध है. इस पार्टी के अध्यक्ष उपेंद्र यादव नहीं मानते कि प्रचंड के तीसरी बार पीएम बनने पर भारत को चिंता करना चाहिए. नेपाल के विदेश मंत्री रह चुके यादव ने बीबीसी हिंदी को दिए इंटरव्यू में यह बात स्पष्ट की है. यादव के मुताबिक, नेपाली वामपंथियों को समझना होगा कि कौन दोस्त है और कौन दुश्मन. उन्होंने दावा किया कि भारत को लेकर प्रचंड की सोच अब पहले जैसी विरोधी नहीं है.

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