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लुई पाश्चर जैसे मसीहा मरा नहीं करते. उनकी भौतिक देह हमारे बीच से ओझल हो जाती है.
उसे विज्ञान से प्रेम था, जुनूं की हद तक प्रेम. वह आजीवन विज्ञान में डूबा रहा. विज्ञान उसकी साध था. विज्ञान ही ख्वाब. उसका दिल विज्ञान में धड़कता था. उसने विज्ञान को जिया और समय की रेत पर ऐसे निशान छोड़ गया, जो कभी मिट न सकेंगे. उस शख्स का नाम है लुई पाश्चर. उसने विज्ञान को तो समृद्ध किया ही, विज्ञान को उसका योगदान देखते-देखते समूची दुनिया में आम लोगों की दिनचर्या में प्रविष्ट हो गया. वह विज्ञान का सार्वकालिक महान नायक है, विलक्षण और अद्वितीय. पाश्चरीकरण और रैबीज के टीके की खोज उसका कालजयी उपक्रम है, अलबत्ता उसकी उपलब्धियों की फेहरिस्त लंबी है.
उसका जीवन औपन्यासिक कृति सरीखा है, रोचक, रोमांचक, आरोह-अवरोह और चमकीली उपलब्धियों से भरा हुआ. बिला शक बेमिसाल.
उसका जन्म 27 दिसंबर, 1822 को फ्रांस में ओल नामक स्थान पर हुआ. बकलम पाश्चर, 'मैं एक चर्मकार के घर पैदा हुआ था. मेरे पिता एक कारीगर थे, लेकिन उन्हें हमेशा कुछ न कुछ सीखने की इच्छा रहती थी. वह मेरे प्रथम शिक्षक थे और उन्हीं ने मुझे काम से प्यार करने की प्रेरणा दी, कार्य की दिशा दी और मेरे मन में देशप्रेम की भावना जगाई.'
पिता को एक पत्र में उसने अपनी भावनाओं को यूं जाहिर किया, 'आपको ध्यान नहीं होगा कि मेरे दिमाग के विकास में आपका मुझ पर कितना महत्वपूर्ण प्रभाव है. आपने ही मुझे प्राकृतिक विज्ञान के अध्ययन का निर्णय लेने में सहयोग किया.... यदि मैं हमेशा अपने देश के उत्कर्ष के लिए प्रयासरत रहता हूं तो यह आपके द्वारा ही मेरे अंदर प्रेरित भावनाओं के कारण है.'
स्कूल में लुई सामान्य विद्यार्थी थे. उनकी रुचि मछली पकड़ने में थी और चित्रकला में उनका मन रमता था. पोट्रेट में वे माहिर थे. उन्होंने रिश्तेदारों, पड़ोसियों और सहपाठियों के दर्जनों पोट्रेट बनाए. वे श्रेष्ठ पोट्रेट कलाकार के तौर पर उभरे, लेकिन उन्हें पता था कि इससे उन्हें इकोले नार्मले सुपीरीयरे में दाखिला न मिलेगा. उन्हें पिता से कहा भी कि वे चित्रों पर बरसी तारीफों पर कालेज में अव्वल आने को वरीयता देंगे. पिता भी नहीं चाहते थे कि पुत्र कलाकार बने. उनकी इच्छा थी कि लुई शिक्षा पूरी कर अरबॉइस, जहां उसका बचपन बीता था, में कालेज में शिक्षक बन जाए. नियति अपना काम कर रही थी. स्थानीय स्कूल के प्राचार्य की पारखी नजरें लुई को समझ रही थीं. उन्होंने पिता को लुई को इकोले में पढ़ाने को कहा, जो विज्ञान व मानविकी में श्रेष्ठ शिक्षा-पीठ के तौर पर प्रतिष्ठित हो चुका था.
लुई ने 26 अगस्त, सन् 1842 को इकोले में दाखिले की परीक्षा उत्तीर्ण की. बत्तीस छात्रों में वह 15वीं पायदान पर था. असंतुष्ट लुई अगले साल पुन: प्रवेश परीक्षा में बैठे. इस बार वे चौथी पायदान पर थे. तैयारी के दरम्यान द्यूमा के रसायन विषयक व्याख्यानों ने लुई में विज्ञान की लौ जगा दी. लुई इकोले से न सिर्फ गहरे जुड़े, बल्कि अपना अधिकांश अनुसंधान उन्होंने वहीं किया. इकोले नार्मले में लुई क्या न करते थे. लिखाई. पढ़ाई. प्रयोग. सूक्ष्मदर्शी से निरीक्षण. शव परीक्षण. फिर इंदराज. यह सिलसिला करीब 50 साल चला. 19वीं सदी का पूरा उत्तरार्द्ध इसी में बीता. उनकी खोजों ने, जैसा कि सुबोध मोहंती लिखते हैं- 'पाश्चर की खोजों ने रसायन विज्ञान, कृषि, उद्योग, चिकित्सा, सर्जरी और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में क्रांति ला दी. इन खोजों से मानव की स्थिति में महान सुधार हुआ.'
प्रसिद्ध विज्ञान लेखक इसाक आसिमोव ने लिखा- 'जीवविज्ञान में पाश्चर के साथ एक ही सांस में केवल अरस्तू व डर्विन का ही नाम लिया जा सकता है.
सुबोध मोहंती ने 'विज्ञान के अनन्य पथिक' में पाश्चर के कार्यों को बेहद सलीके से लिपिबद्ध किया है.
मोहंती लिखते हैं- 'पाश्चर ने रैबीज, एंथ्रेक्स, हैजा व सिल्कवर्म जैसी-बीमारियों के रहस्य को सुलझाया और पहले टीके के विकास में योगदान किया. आधुनिक विज्ञान की कई महत्वपूर्ण सैद्धांतिक धारणाओं और प्रायोगिक अनुप्रयोगों के लिए पाश्चर जिम्मेदार थे. फिजीशियन न होने के बावजूद पाश्चर को 19वीं शताब्दी का सबसे महत्वपूर्ण चिकित्सा वैज्ञानिक माना जा सकता है. उन्होंने आयुर्विज्ञान को एक नया अर्थ दिया. वह सूक्ष्म अवयवों के अध्ययन के अग्रदूतों में से एक थे. उन्होंने न केवल संक्रामक रोगों के कारणों को व्याख्यायित किया, बल्कि उनसे बचने के रास्ते भी सुझाए. पाश्चर रोगाणु-सिद्धांत के संस्थापक थे. उन्होंने विज्ञान की तीन पृथक शाखाओं की नींव रखी. प्रतिरक्षा विज्ञान (इम्यूनोलॉजी), सूक्ष्म जैविकी (माइक्रो बायोलॉजी) और त्रिविम रसायन (स्टीरियो केमिस्ट्री). पाश्चर ही वह व्यक्ति थे, जिन्होंने स्वत: प्रसूत प्रजनन पर शताब्दियों से चल रहे विवाद को समाप्त कर दिया. उन्होंने स्पष्ट रूप से प्रमाणित किया कि स्वत: प्रसूत प्रजनन संभव नहीं है. और ऐसा करके पाश्चर ने आधुनिक जीव विज्ञान और जीव रसायन के चरण निर्धारित किए. पाश्चर ने किण्वन के वैज्ञानिक आधार का वर्णन किया. किण्वन वह प्रक्रिया है, जिसमें शराब, बीयर और सिरके का निर्माण किया जाता है. उन्होंने स्पष्ट प्रमाणित किया कि किण्वन की प्रकृति कार्बनिक होती है (एक निश्चित प्रकार के सजीव अवयव का एक उत्पाद न कि अकार्बनिक जैसा कि जस्टिस वॉन लाइबिग द्वारा प्रस्तावित और प्रतिवादित किया गया था. पाश्चर ने घरेलू जानवरों में होने वाले एक प्राणघातक उच्च-संक्रामक रोग एंथ्रेक्स का टीका विकसित किया.'
तो यह है लुई पाश्चर के कार्यों का विशाल फलक. डेयरी उत्पादों के पाश्चरीकरण और रैबीज के टीके के कारण पाश्चर का नाम घर-घर में जाना जाता है. गौरतलब है कि अवांछित सूक्ष्म अवयवों को विनष्ट की प्रक्रिया ही पाश्चरीकरण है. इस खोज ने सिरका, शराब और बीयर उद्योग में आमूलचूल तब्दीली के साथ ही ब्रेड, दूध और पनीर उद्योग को भी बदल दिया.
लुई पाश्चर के जीवन-वृत्त में कई रोमांचक और लोमहर्षक प्रसंग हैं. पाश्चर सन् 1854 में फ्रांस के औद्योगिक कस्बे लिले में विज्ञान संकाय के डीन बने. वहां एक विद्यार्थी के पिता और आसवनी के मालिक एम, बिगॉट ने किण्वन से अल्कोहल बनाने में पेश कठिनाइयों को दूर करने में पाश्चर से मदद मांगी. यह मदद पाश्चर के पाश्चरीकरण की भूमिका बनी. सन् 1865 में उनसे दक्षिण फ्रांस में रेशम के कीड़ों में तबाही के रोग की खोज करने को कहा गया, जबकि तब तक पाश्चर ने रेशम का कीड़ा देखा तक न था. पाश्चर ने रोगकारक पेब्रिन कणिकाओं का पता लगाया और किसानों को तदनुरूप प्रशिक्षित किया, फलत: फ्रांस के रेशम उद्योग में नयी जान आ गयी. भेड़ों समेत पशुओं में व्यापक एंथ्रैक्स से उद्योग और आर्थिकी बदहाली की ओर अग्रसर थी. उन्होंने निजात का रास्ता खोज निकाला. पाश्चर को चुनौतियों से जूझने का शगल था.
सन् 1884 में उन्होंने रैबीज के अध्ययन को हाथ में लिया. रैबीज के भेद में ही हाइड्रोफोबिया से बचाव का फार्मूला था. पाश्चर ने रैबीज से मृत बच्चे की लार का नमूना लिया और खरगोश पर प्रारंभिक प्रशिक्षण के बाद एंटी-रैबीज टीका खोज निकाला. सन् 1885 में उन्होंने कुत्ते के बुरी तरह काटे गए नौ वर्ष के जोसेफ मीस्टर पर 14 इंजेक्शनों का कोर्स आजमाया. टीके का चमत्कार की बच्चा बच गया. यही जोसेफ मीस्टर पाश्चर संस्थान का प्रभारी बना. बरसों बाद सन् 1940 में फ्रांस पर कब्जे के दरम्यान जर्मन सेना ने मीस्टर से पाश्चर - स्मारक का दरवाजा खोलने को कहा, लेकिन मीस्टर ने नात्सी-आदेश के पालन के विपरीत आत्महत्या करना श्रेयस्कर समझा.
1 मार्च, 1886 को एकेडमी ऑफ साइंस में पाश्चर ने रैबीज टीका केंद्र के निर्माण का आवाहन किया. एकेडेमी ने कोष के लिए व्यापक अभियान छेड़ा. लोगों ने मुक्त हस्त सहयोग किया. 25 लाख से अधिक फ्रैंक एकत्र हुए. रु-द्यूरॉ में 11,000 वर्गमीटर जमीन ली गयी. 14 नवंबर, 1888 को फ्रांस के राष्ट्रपति सैडी कारनॉट की मौजूदगी में पाश्चर संस्थान उद्घाटित हुआ. संस्थान के प्रत्एक पत्थर को मानवीय उदारता का भौतिक प्रतीत बताते हुए पाश्चर ने लोगों से विवेचनात्मक मस्तिष्क को अपनाने की अपील की. इस मौके पर पाश्चर इस कदर भावविह्वल हो गए कि अपने लिखित भाषण का आखिरी हिस्सा उन्होंने अपने पुत्र को पढ़ने को दे दिया. बहरहाल, पाश्चर संस्थान विश्व का प्रमुख अंतरराष्ट्रीय जैविक अनुसंधान केंद्र हो गया. वह फ्रांस के गौरव का प्रतीक हो गया.
सन् 1891 में विएतनाम में सैगान (अब हो ची मिन्ह सिटी) में पाश्चर संस्थान की स्थापना से वैश्विक नेटवर्क का पथ प्रशस्त हुआ. लुई पाश्चर प्रयोगों की महत्ता में यकीन रखते थे. वे महान राष्ट्रवादी थे, लेकिन उनकी दृढ़ मान्यता थी कि विज्ञान का कोई देश नहीं होता. वे प्रकृति की जांच-गहन जांच- के हिमायती थे. उनका कहना था कि मस्तिष्क की सबसे बड़े बुराई किसी निश्चित चीज पर विश्वास कर लेना है. वे चाहते थे कि लोग प्रयोगशाला जैसी पवित्र जगहों में रुचि लें. अपने बारे में उन्होंने कहा था- 'विज्ञान मेरे जीवन का प्रमुख अनुराग है. मेरा पूरा जीवन इसके प्रति समर्पित है... मैं अपनी मातृभूमि की उत्कर्षता को विज्ञान की उत्कर्षता से जोड़ता हूं.'
28 सितंबर, 1895 को लुई पाश्चर का देहांत हुआ. राष्ट्रीय सम्मान के साथ उनकी अंत्एष्टि हुई. 5 अक्टूबर को उनकी अंतिम यात्रा में जनमेदिनी उमड़ पड़ी. लोगों को जार-जार रोते देखा गया. उन्हें नोत्रदम की कब्रगाह में दफ्नाया गया, किन्तु बाद में उनके अवशेष पाश्चर संस्थान में निर्मित भव्य मोजैक स्मारक में ले जाए गए.
लुई पाश्चर जैसे मसीहा-व्यक्ति मरा नहीं करते. हां, उनकी भौतिक देह हमारे बीच से चली जाती है. विज्ञान और मानवता को हर लम्हा जीने वाले पाश्चर सदृश्य महान व्यक्ति हमारे बीच सतत जीवित व जीवन्त रहते हैं.
(यहां दिए गए विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
डॉ. सुधीर सक्सेना लेखक, पत्रकार और कवि हैं. 'माया' और 'दुनिया इन दिनों' के संपादक रह चुके हैं.
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